सूफ़ी संगीत में डफ़ की अहमियत

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 02-06-2023
सूफ़ी संगीत में डफ़ की अहमियत
सूफ़ी संगीत में डफ़ की अहमियत

 

-फ़िरदौस ख़ान

सूफी दुनिया के जिस हिस्से में गए, वहां की मिट्टी में ही रच-बस गए. ये सूफियों की बहुत बड़ी खासियत है कि उन्होंने अपने अकीदे को पुख्ता रखते हुए वहां की संस्कृति को अपनाया. इस तहजीब में क्षेत्रीय संगीत भी शामिल है. फिलहाल हम बात कर रहे हैं वाद्य यंत्र डफ की.

डफ क्या है 

डफ लकड़ी का बना हुआ एक गोलाकार वाद्य यंत्र है. इस पर चमड़ा मढ़ा हुआ होता है. इसे बायें हाथ से पकड़कर दिल के करीब करके दाहिने हाथ से बजाते हैं. इससे छोटे वाद्य को डफली कहा जाता. डफ के घेरे में तीन या चार जोड़े झांझ लगे हों, तो उसे खंजरी कहा जाता है. इसे हाथ की थाप से बजाया जाता है.

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दुनिया भर में डफ से मिलते-जुलते बहुत से वाद्य यंत्र हैं, जिनके नाम जुदा-जुदा हैं. डफ दक्षिण और मध्य एशिया में बहुत लोकप्रिय है. शास्त्रीय संगीत में इसका खूब इस्तेमाल किया जाता है. लोक संगीत में भी डफ की बहुत अहमियत है. डफ पाकिस्तान, अफगानिस्तान, अजरबैजान, ताजिकिस्तान, उज्बेकिस्तान, इराक, ईरान, जॉर्जिया और रूस में भी बजाया जाता है. भारत समेत दुनियाभर के खानाबदोश कबीलों का यह प्रिय वाद्य यंत्र माना जाता है. लोकगीत डफ की थाप पर खूब गाये जाते हैं. डफ के बिना लोक संगीत अधूरा है. 

हदीसों में डफ का जिक्र  

मुख्तलिफ हदीसों में भी डफ का जिक्र मिलता है. बुखारी शरीफ के खंड 5 की किताब संख्या 59 की हदीस संख्या 336 के मुताबिक अर रुबाई बिन्त मुआविद रजियल्लाहु अन्हा से रिवायत है कि मेरी शादी वाले दिन घर में कुछ गाने वाली लड़कियां जंग-ए-बदर में शहीद हुए मेरे वालिद और दीगर शहीदों के एजाज में डफली पर गीत गा रही थीं, तभी अल्लाह के रसूल हजरत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम तशरीफ लाए. आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम को देखकर एक गाने वाली लड़की गाने लगी- ‘‘हमारे बीच वे पैगम्बर हैं, जो जानते हैं कि मुस्तकबिल में क्या होने वाला है.’’

इस पर आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने गाने वाली लड़की को रोका और फरमाया- ‘‘यह न कहो, बल्कि वही कहो जो पहले गा रही थीं.’’ कहने का मतलब यह है कि आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने गाने वाली लड़कियों से फरमाया कि वे पहले जो गा रही थीं, वो ही गायें यानी आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने हम्द और नात से अलग भी किसी गीत को गाने की इजाजत दी है, बशर्ते उसमें कोई बुराई न हो, यानी गुनाह की कोई बात न हो. गीत-संगीत में अश्लीलता न हो, जैसे आजकल गीत-संगीत के नाम पर अश्लीलता परोसी जा रही है. इससे मुआशरे में बुराइयां ही फैल रही हैं.

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जिस गीत-संगीत को सुनकर रूह को सुकून मिले, उसमें भला क्या बुराई है. सूफी गीत-संगीत में ऐसे खो जाते हैं कि उन्हें खुद का होश ही नहीं रहता. वे होते हैं और उनका खुदा होता है. इसके अलावा उनके दरम्यान कुछ बाकी नहीं रहता. मशहूर सूफी शायर मौलाना मुहम्मद जलालुद्दीन रूमी फरमाते हैं-

जो कुछ भी तुम सोचते हो, फना है मानो

वो जो तुम्हारी सोच में नहीं, उसे खुदा जानो

ऐ दोस्त तेरी दोस्ती में साथ आए हैं हम

तेरे कदमों के नीचे बन गए खाक हैं हम

मजहबे आशिकी में कैसे ये वाजिब है

देखें तेरा आलम व तुझे न देख पाएं हम

डफ और कसीद-ओ-मनकबत

भारत के कई हिस्सों में सूफियों की दरगाहों और खानकाहों में मुरीद डफ बजाते हुए अपने मुर्शिद की तारीफो-तौसीफ में कसीद-ओ-मनकबत पढ़ते हैं. बिहार के पटना जिले के मनेर में स्थित हजरत मखदूम जहां शेख शरफुद्दीन याहया मनेरी रहमतुल्लाह अलैह की दरगाह पर मुरीद डफ बजाते हुए गाते हैं- 

ऐ नूरे निगाहे शरफे शहे याहया शरफुद्दीन

बन जा मेरा महवा मेरा आका शरफुद्दीन

एक चश्मे करम मुझ पे खुदारा शरफुद्दीन

मैं जाऊं किधर होके तुम्हारा शरफुद्दीन       

मुरीद झूम-झूम कर गाते हैं-

या शाहे शरफा नजरे करम हो

तेरी हस्ती का क्या शोहरा नहीं है

शर्फ तू क्या मेरा आका नहीं है

तेरी हस्ती का क्या शोहरा नहीं है

महाराष्ट्र के ठाणे जिले के भिवंडी तहसील के गांव नारपोली में हजरत दीवान शाह रहमतुल्लाह अलैह की दरगाह में कव्वाल डफ की थाप पर कलाम पढ़ते हैं. बानगी देखें-  

सल्लल्लाहु अलैह या रसूल अल्लाह

वसल्लम अलैह या हबीब अल्लाह

मालिकुल मुल्क ला शरिका लहू

वहदहू लाइलाहा इल्लल्लाह

शम्स तबरेज गर खुदा तलबी

खुश ब ख्वां ख्वाजा लाइलाहा इल्लल्लाह

तेरे ही नाम से हर इब्तिदा है

तेरे ही नाम तक हर इन्तिहा है

तेरी हम्दु सना अलहम्दुलिल्लाह है

कि तू मेरे मुहम्मद का खुदा है

हर शय तेरे जमाल की आईनादार है

सूफी संगीत का जिक्र हजरत अमीर खुसरो रहमतुल्लाह अलैह के बिना अधूरा है. अदब और दीगर चीजों के अलावा संगीत के क्षेत्र में भी किए गये उनके कामों को कभी भुलाया नहीं जा सकता. उन्होंने सितार और ढोलक जैसे वाद्य यंत्रों को इस्तेमाल किया. उन्होंने हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की एक विधा तराना का भी आविष्कार किया. मारिफुन्नगमात के रचयिता राजा नवाब अली के मुताबिक तराना दिल्ली घराने के अमीर खुसरो का इजाद किया हुआ है.

काबिले गौर है कि तराना हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत की एक गायन शैली है. यह मध्य काल में पैदा हुई. इस दौरान खूब फली फूली और अपने उरूज तक पहुंची. विद्वानों के मुताबिक तराना की उत्पत्ति ‘तरन्नुम’ लफ्ज से हुई है. तरन्नुम अरबी जबान का लफ्ज है, जिसका मतलब है स्वर माधुर्य, लय, दिलकश आवाज आदि.

जब कोई शायर या कवि अपना कलाम, अपनी रचना को गाता है, तो वह एक खास तरह की धुन का इस्तेमाल करता है, जिसे तरन्नुम कहा जाता है. इसमें ताल की बहुत अहमियत होती है, जिसके लिए तबले का इस्तेमाल किया जाता है.

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हजरत अमीर खुसरो रहमतुल्लाह अलैह ने कई राग भी बनाए. इसके अलावा उन्होंने खयाल गायन शैली का ईजाद किया. कव्वाली सूफी संगीत का सबसे प्रचलित और लोकप्रिय रूप है. कव्वाली में हारमोनियम, तबले और ढोलक जैसे वाद्य यंत्रों का इस्तेमाल किया जाता है.

हारमोनियम से सुर साधा जाता है. यह लकड़ी की पेटी से बना होता है. इसमें काली और सफेद पट्टियां लगी होती हैं, जिनमें तीन सप्तकों के स्वर होते हैं. यह हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत का एक अभिन्न अंग है. तबला ताल को साधता है. यह गायन, वादन और नृत्य आदि में ताल देने के लिए बजाया जाता है. ढोलक की थाप भी ताल का काम करती है.

काबिले गौर यह भी है कि सूफियों ने लोक वाद्ययंत्रों का खूब इस्तेमाल किया है. इसमें इकतारा भी शामिल है. ज्यादातर लोकगायक इसका खूब इस्तेमाल करते हैं. हरियाणा और पंजाब समेत उत्तर भारत के बहुत से इलाकों में अल सुबह लोकगायकों को इकतारे पर भक्ति गीत गाते हुए देखा जा सकता है. लोक गीत व लोक संगीत हमारी जिन्दगी का एक अटूट हिस्सा है और सूफियों ने इसे खुदा तक पहुंचने का जरिया बनाया.  

(लेखिका सूफिज्म के चिश्तिया सिलसिले से जुड़ी हुई हैं और उन्होंने सूफी-संतों के जीवन दर्शन पर आधारित किताब ‘गंगा-जमुनी संस्कृति के अग्रदूत’ लिखी हैं.)