भारत विभाजन के समय हमने नफरत को कैसे हराया? आज के लिए सबक

Story by  मंजीत ठाकुर | Published by  [email protected] | Date 05-07-2022
भारत विभाजन के समय हमने नफरत को कैसे हराया? आज के लिए सबक
भारत विभाजन के समय हमने नफरत को कैसे हराया? आज के लिए सबक

 

साकिब सलीम

"बच्चा मनुष्य का पिता है" और "मनुष्य वही है जो वह पढ़ता है".

सोशल मीडिया के माध्यम से हमारे दिलों में डाली जा रही नफरत ने हमारे समाज को प्रदूषित कर दिया है. पवित्र गंगा की भूमि में हम धार्मिक कट्टरता के नाम पर निर्दोष रक्त की धाराएँ देख रहे हैं. छोटे बच्चे जनसभाओं में नफरत भरे नारे लगा रहे हैं. हम किस तरह का भारत बनाने की कोशिश कर रहे हैं? नफरत से भरे माता-पिता द्वारा पाले जा रहे बच्चे किस तरह के व्यक्ति बनेंगे?

यह पहली बार नहीं है जब हमारी मातृभूमि धार्मिक कट्टरता देख रही है और मेरा विश्वास कीजिए, यह सबसे बुरा दौर है. 1947में, अंग्रेजों और उनके गुंडों की जिद से हमारे प्यारे राष्ट्र का विभाजन हुआ. इसके बाद जो हुआ वह मानव सभ्यता के इतिहास के सबसे खूनी अध्यायों में से एक था. धर्म के नाम पर लाखों भारतीय, हिंदू, मुस्लिम और सिख मारे गए.

उस समय सभी का मानना ​​था कि भारत फिर कभी नहीं उठ सकता. खूनखराबे को देखने के बाद बच्चे बड़े होकर बड़े होकर 'विरोधी' धार्मिक समूहों के खून के प्यासे बन जाते. विदेशी प्रेस ने भारत को एक राष्ट्र के रूप में बट्टे खाते में डाल दिया था. जिस राजधानी में नरसंहार हो रहा था, उससे कोई देश कैसे बच सकता है?

जो 'बुद्धिमान' दिमाग नहीं समझ सके, वह भारत की भावना थी, भारतीय लोकाचार जिसने भारत को हजारों वर्षों तक जीवित रहने दिया, जबकि रोम, ग्रीस, फारस और अरब उठे और गिरे.

भारतीयों को पता था कि नफरत को कैसे हराया जाए. यह प्राचीन राष्ट्र समझता है कि भविष्य में कैसे जाना है जब वर्तमान उदासियों से भरा लगता है.

1947में, राष्ट्रीय राजधानी जल रही थी. लोग मारे जा रहे थे और संपत्ति लूटी जा रही थी. पश्चिमी पंजाब, (अब पाकिस्तान) से सिख और हिंदू शरणार्थी आ रहे थे और शहर के मुस्लिम निवासियों पर धार्मिक कट्टरपंथियों का हमला हो रहा था. उम्मीदें भी अधूरी थीं. लेकिन, क्या भारत ने हार मान ली? नहीं.

डॉ. सैफुद्दीन किचलू, बेगम अनीस किदवई, सुचेता कृपलानी, सुभद्रा जोशी, डॉ. जाकिर हुसैन और भगत सिंह के कई साथियों, जिन्होंने ब्रिटिश उपनिवेशवाद के खिलाफ लोगों का नेतृत्व किया था, ने देश को उस दुखद समय से बाहर निकालने का बीड़ा उठाया. युवा रक्त की मदद से पुराने पहरेदारों ने नफरत को हराने का कार्यक्रम शुरू किया.

जाकिर जामिया मिल्लिया इस्लामिया के मामलों को देख रहे थे. यह निर्णय लिया गया कि, “जामिया ने एक समय में एक आंदोलन को परिवर्तित करने में मदद की. अब, यह हमारे समय की मांग है कि आंदोलन को इलाकों और बस्तियों में बदल दिया जाए. ”

1947में जब दिल्ली जल रही थी और जामिया के युवा छात्रों ने शहर भर में स्कूल शुरू किए. मुसलमान अपने बच्चों को स्कूल भेजने से बहुत डरते थे जबकि सिख और हिंदू मुस्लिम स्वयंसेवकों पर भरोसा नहीं करते थे. स्वयंसेवकों ने छोटे बच्चों को खेलने के लिए इकट्ठा करना शुरू कर दिया. बच्चे मासूम थे, वे खेलना चाहते थे और जल्द ही सभी धार्मिक समूहों के बच्चे उनके साथ खेलने लगे. स्वयंसेवकों ने उन्हें पढ़ाना शुरू किया.

घरों से उखड़ने के कुछ ही महीनों के भीतर इन बच्चों ने अपने माता-पिता को 'दूसरे' धार्मिक समुदायों के लोगों से मिलने के लिए मजबूर किया. इन बच्चों को पढ़ाने वाले स्वयंसेवकों में सिख शरणार्थी, मुस्लिम और हिंदू थे. राष्ट्र के भविष्य, उन बच्चों ने जल्द ही 'अन्य' समुदायों के बच्चों के बारे में घोषणा की, "हम मिलेंगे और उन्हें अपना भाई बनाएंगे".

जब महात्मा गांधी को इस प्रयोग की सफलता के बारे में बताया गया तो उन्होंने इस पहल की सराहना की और आशीर्वाद दिया.

75 वर्षों के बाद, हमें फिर से स्कूलों, खेल के मैदानों और सार्वजनिक स्थानों के महत्व पर फिर से विचार करने की जरूरत है जहां विभिन्न धार्मिक समूहों के बच्चे स्वतंत्र रूप से बातचीत कर सकते हैं. बच्चों को सही शिक्षा ही एकमात्र हथियार है जो इन विभाजनकारी राष्ट्रविरोधी को हरा सकता है