हिन्दी कवियों को भी है पैग़म्बरों पर नाज़

Story by  फिदौस खान | Published by  [email protected] | Date 03-01-2024
Hindi poets are also proud of the prophets
Hindi poets are also proud of the prophets

 

-फ़िरदौस ख़ान

हिन्दी के कवियों ने अपनी रचनाओं में पैग़म्बरों की भूरि-भूरि प्रशंसा की है और उनके प्रति अपनी आस्था को प्रकट किया है. सुप्रसिद्ध कवि सुमित्रानन्दन पन्त ने हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के जीवन पर ‘अंतिम पैग़म्बर’ नाम से कविता लिखी, जो बहुत प्रसिद्ध हुई. वे लिखते हैं-

वहाँ उच्च कुल में जन्मे तुम दीन क़ुरैशी के घर

बने गड़रिए, तुम्हें जान प्रभु, भेड़ नवाती थी सर!

हँस उठती थी हरित दूब मरु में प्रिय पदतल छूकर

प्रथित ख़दिजा के स्वामी तुम बने तरुण चिर सुंदर!

छोड़ विभव घर द्वार एक दिन अति उद्वेलित अंतर

हिरा शैल पर चले गए तुम प्रभु की आज्ञा सिर धर

दिव्य प्रेरणा से निःसृत हो जहाँ ज्योति विगलित स्वर

जगी ईश वाणी क़ुरान चिर तपन पूत उर भीतर!

कवि बालमुकुंद अर्श हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के प्रति अपनी श्रद्धा प्रकट करते हैं और उनकी प्रशंसा में कहते हैं-

हामिल-ए-जलवा-ए-अजल, पैकर-ए-नूर-ए ज़ात तू

शान-ए-पयम्बरी से है, सरवर-ए-कायनात तू

हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम सिर्फ़ एक क़ौम के ही पैग़म्बर नहीं हैं, बल्कि वे तो कुल कायनात के पैग़म्बर हैं. अल्लाह ने हर क़ौम को एक नबी दिया है और वे तो नबियों के सरदार हैं. रघुपति सहाय उर्फ़ फ़िराक़ गोरखपुरी आप सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की शान में कहते हैं-

अनवार बेशुमार मादूद नहीं

रहमत की शाहराह मसदूद नहीं

मालूम है कुछ तुमको मुहम्मद का मक़ाम

वह उम्मत-ए-इस्लाम में महदूद नहीं

इसी तरह चंद्र प्रकाश जौहर भी कहते हैं-

नहीं ज़िक्र-ए-मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) के लिए तख़सीस मज़हब की

ये किसने कह दिया ये सिर्फ़ मुस्लिम की ज़बां तक है

हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम ने दुनिया के तमाम लोगों की रहनुमाई की. उन्हें नेकी के रास्ते पर चलने का सबक़ पढ़ाया और उन्हें बुराई से बचने की हिदायत दी. वह इस दुनिया का सबसे अच्छा दौर था, जब अल्लाह के आख़िरी नबी इस ज़मीन पर मौजूद थे. प्रोफ़ेसर जगन्नाथ आज़ाद कहते हैं-

सलाम उस ज़ात-ए-अक़दस पर, सलाम उस फ़ख़्र ए दौरां पर

हज़ारों जिसके अहसानात हैं दुनिया-ए- इमकां पर

कवि हरीचंद अख़्तर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की प्रशंसा करते हुए कहते हैं-

आदमीयत का ग़र्ज़ सामान मुहैया कर दिया

एक अरब ने आदमी का बोलबाला कर दिया

हिन्दी के कवि सिर्फ़ नबी के ही चाहने वाले नहीं हैं, बल्कि उन्हें तो उनके शहर मदीने से भी बेपनाह मुहब्बत है.  किशन प्रसाद शाद ख़ुद को नबी और मदीने का प्रशंसक बताते हुए कहते हैं-

काफ़िर न कहो शाद को, है आरफ़ी-ओ-सूफ़ी

शैदा-ए-मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) है वो, शैदा-ए-मदीना

कवि कृष्ण बिहारी नूर ने तो अपना उपनाम नूर भी नबी से प्रभावित होकर रखा है. वे कहते हैं- 

दैर से नूर चला और हरम तक पहुंचा

सिलसिला मेरे गुनाहों का करम तक पहुंचा

तेरी मेराज मुहम्मद (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम) तो ख़ुदा ही जाने

मेरी मेराज के मैं तेरे हरम तक पहुंचा

कवयित्री रूप कुमारी अल्लाह के रसूल और उनकी बेटी का ज़िक्र करते हुए कहती हैं-

बुतों को छोड़ा तो फ़रज़ंदे बू-तुराब मिला

जो घर को छोड़ा तो ख़ुल्द-ए-बरीं का बाब मिला

किया जो कायापलट रूप ने ब-फ़ज़ल-ए-रसूल

कनीज़ फ़ातिमा ज़ेहरा इसे ख़िताब मिला

कवि सतनाम सिंह ख़ुमार भी नबी के प्रति आस्था और श्रद्धाभाव रखते हैं. वे कहते हैं-

ख़ुमार शाने करीमी की तुझपे बरकत है

अक़ीदतों से मुरस्सा कलाम है तेरा

ऐसा नहीं है कि कवियों ने सिर्फ़ अल्लाह के नबी की शान में ही कविताएं लिखी हैं. उन्होंने हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम के दामाद हज़रत अली अलैहिस्सलाम, उनकी बेटी फ़ातिमा ज़ेहरा अलैहिस्सलाम, उनके नवासे हज़रत हसन अलैहिस्सलाम, हज़रत हुसैन अलैहिस्सलाम व उनके ख़ानदान के दूसरे सदस्यों ख़ासकर कर्बला के शहीदों की शान में भी रचनाएं लिखी हैं.

कवि राम बिहारी लाल सबा हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का ज़िक्र करते हुए कहते हैं-

करबला में एक बहाना थे हुसैन इब्ने अली

लेने वाले ने लिया था इम्तहान-ए-मुस्तफ़ा (सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम)

कवियों को नबी की औलादों से भी मुहब्बत थी. कवि गौहर प्रसाद विलायत गोरखपुरी कहते हैं-

ख़ुल्द उसकी है, ख़ैबां उसका, कौसर उसका है

जिसको उल्फ़त है विलायत आल-ए-पयम्बर के साथ

कवि दर्शन सिंह दुग्गल हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के बारे में कहते हैं-

हुसैन लश्कर-ए-बातिल का ग़म नहीं करता

हुसैन अज़्म है माथे को ख़म नहीं करता

कवि विश्वनाथ प्रसाद माथुर ने कर्बला के बारे में बहुत सी कविताएं लिखी हैं. वे कहते हैं-

कहां यज़ीद कहां अज़मत-ए-हुसैनियत

कोई जफ़ा के लिए था, कोई वफ़ा के लिए

कोई है नूर का मरकज़, कोई है शोला-ए-नार

किसे चुनेंगे मुसलमान रहनुमा के लिए

जब से आने को कहा था कर्बला से हिन्द में

हो गया इस रोज़ से हिन्दोस्तां शब्बीर का

हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के चाहने वाले ज़ालिमों से डरा नहीं करते. इस बारे में महेंद्र सिंह अश्क कहते हैं-

ऐ दौर-ए-मुख़ालिफ़ होश में आ, हमको डराना चाहता है

हम वो सर हैं जो नेज़ों पर, क़ुरआं सुनाया करते हैं

कवि दल्लू राम कौसरी कर्बला का ज़िक्र करते हुए कहते हैं-

सीने पे था चढ़ा हुआ जब क़ातिले लईं

आवाज़-ए-दर्दनाक में कहते थे शाहे दीं

इय्या का नआबदो कभी इय्या का नस्तईं

हुसैनी ब्राह्मण ख़ुद को हुसैनी ब्राह्मण कहलाने में गर्व महसूस करते हैं. प्रोफ़ेसर वशिष्ठ ‘जावेद’ कहते हैं-

अस्नान करके आया है संगम पे बरहमन

और ख़ाके कर्बला का तिलक लाजवाब है

जावेद मदह ख़्वाह है तेरा बिन्ते मुर्तज़ा

ये बरहमन इसीलिए इज़्ज़त मआब है

कवि लाला दिगंबर प्रसाद गौहर हज़रत अली अलैहिस्सलाम के पैग़ाम के बारे में कहते हैं-

मख़सूस ना महकूम ना सरवर के लिए है

मसरूर ना मजबूर ना मुज़तर के लिए है

तख़सीस ना हिन्दू की ना मुस्लिम की है इसमें

शब्बीर का पैग़ाम जहां भर के लिए है

कवि नत्थू लाल कर्बला के शहीदों की प्यास और दरिया फ़ुरात का ज़िक्र करते हुए कहते हैं-

अल्लाह रे तश्निगी मेरे ज़ौक़-ए-सफ़ात की

गंगा से हमकिनार हैं मौजें फ़ुरात की

अगर हज़रत हुसैन अलैहिस्सलाम का क़ाफ़िला हिन्दुस्तान आया होता और वे अपना ख़ेमा गंगा के किनारे लगाते, तो यहां के हिन्दू उनके घोड़ों को पानी पिलाते और उनकी ख़िदमत करते. इसी बाबत कवि भुवनेश अमरोहवी कहते हैं-

इनके ख़ेमे भी लगे गंगा किनारे होते

इनके घोड़ों को भी जल इसका पिलाते हिन्दू

जंग करने यहां शब्बीर से आता जो यज़ीद

इसको रावन की तरह धूल चटाते हिन्दू

हक़ीक़त तो यही है कि अल्लाह के नबियों का पैग़ाम का कुल कायनात के लिए था. वे सबके थे और सब उनके थे. 

(लेखिका शायरा, कहानीकार व पत्रकार हैं)