कैप्टन अब्बास अली: ब्रिटिश आर्मी से बागी होकर आजाद हिंद फौज में हुए शाामिल

Story by  राकेश चौरासिया | Published by  onikamaheshwari | Date 31-01-2024
Captain Abbas Ali
Captain Abbas Ali

 

राकेश चौरासिया / नई दिल्ली

कैप्टन अब्बास अली एक महान योद्धा, स्वतंत्रता सैनानी और समाजवादी नेता थे. वे मां भारती के सच्चे सपूत और धरती पुत्र थे. वे क्रांतिकारी विचारों के होने के बावजूद अंग्रेजों को शिकस्त देने के लिए ब्रिटिश आर्मी में शामिल हो गए.

बाद में वे नेता जी सुभाष चंद्र बोस के आह्वान पर इंडियन नेशनल आर्मी (आईएनए) यानी आजाद हिंद फौज में शामिल होकर भारत माता को गुलामी की जंजीरों से मुक्त करवाने लिए संघर्षरत रहे. उन्हें अंग्रेजों ने मृत्यु दंड भी दिया, लेकिन कालक्रम ऐसा चला कि इतने में भारत आजाद हो गया और वे मौत के पंजे से निकलने में कामयाब रहे.

कैप्टन अब्बास अली का जन्म 3 जनवरी 1920 को उत्तर प्रदेश के जनपद बुलंदशहर के खुर्जा के कलंदर गढ़ी गांव के एक मुस्लिम राजपूत परिवार में हुआ था. कैप्टन साहब का खानदान भी स्वतंत्रता संग्राम का हिस्सा रहा.

उनके दादास रुस्तम अली खान ने 1857 की पहली क्रांति में हिस्सा लिया था, जिसके कारण उन्हें अंग्रेजों ने बुलंदशहर के काला आम स्थान पर फांसी दे दी गई. उनके वालिद अयूब अली खान अंग्रेजों की फौज में मुलाजिम हो गए थे, जिन्होंने प्रथम विश्व युद्ध में हिस्सा लिया था.

किंतु वे अपने दादा से ज्यादा मुतासिर थे. उनके बचपन के दौर में ही क्रांति की चिंगारी प्रलंयकारी ज्वाला बन चुकी थी और उनमें बगावती तेवर आने लगे और नौजवान भारत सभा के सदस्य बन गए.

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शहीद-ए-आजम भगत सिंह को 23 मार्च, 1931 को लाहौर में फांसी दी गई थी, तब कैप्टन अब्बास अली पांचवीं कक्षा में पढ़ते थे. भगत सिंह की फांसी के खिलाफ खुर्जा में एक जुलूस निकाला गया.

तब उन्होंने जुलसू में भगत सिंह को समर्पित एक गीत गाया, जिसके बोल थे, ‘‘ऐ दरिया-ए-गंगा तू खामोश हो जा, ऐ दरिया-ए-सतलुज तू सियाहपोश होजा, भगत सिंह तुम्हें फिर से आना पड़ेगा, हुकुमत को जलवा दिखाना पड़ेगा.’’ और यह गीत बाद में आजादी मिलने तक वे अक्सर गुनगुनाते और गाते हुए देखे गए.

भगत सिंह की फांसी की घटना ने कैप्टन अब्बास के बाल मन पर गहरी छाप छोड़ी और उनके मन में भी कुछ कर गुजरने की तमन्ना जाग उठी.

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खुर्जा में हाईस्कूल की पढ़ाई के बाद आगे के अध्ययन के लिए अलीगढ़ आ गए और उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में अध्ययन करने लगे. यहां उन्हें प्रोफेसर कुंवर मुहम्मद अशरफ का मार्गदर्शन और सानिध्य मिला.

कैप्टन अब्बास अखिल भारतीय छात्र संघ के सदस्य बन गए. प्रोफेसर अशरफ का मानना था कि अंग्रेजों को केवल क्रांति के दम पर ही भारत से भगाया जा सकता है.

उन्हें गांधी जी का अहिंसक आंदोलन रास न आया. वे युवाओं से कहते थे युवाओं को बड़े पैमाने पर ब्रिटिश आर्मी में शाामिल होना चाहिए और उन्हें अंदर से बगावत करनी चाहिए.

अपने उस्ताद का ये कथन कैपटन अब्बास के जेहन में दर्ज हो गया. और जब वक्ता आया, तो वे 1939 में ब्रिटिश भारतीय सेना में शामिल हो गए.

ब्रिटिश सेना में अपनी सेवा के दौरान और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान उनकी भारत के विभिन्न अधिकारियों के प्रशिक्षण स्कूलों जैसे बैंगलोर, आरआईएएससी डिपो फिरोजपुर (पंजाब), वजीरिस्तान, नौशेरा, खानपुर कैंप (दिल्ली), बरेली कैंट, भिवंडी आर्मी ट्रेनिंग कैंप (महाराष्ट्र), सिंगापुर, इपोह, पेनांग, कुआलालमपुर (मलाया), अराकान और रंगून में तैनाती रही.

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1945 में जब सुभाष चंद्र बोस ने विद्रोह का आह्वान किया, तो उन्होंने ब्रिटिश सेना छोड़ दी और आजाद हिंद फौज में शामिल हो गए, लेकिन बाद में उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और उनका कोर्ट-मार्शल कर दिया गया. उन्हें मौत की सजा सुनाई गई. इसी बीच, 1947 में जब भारत को स्वतंत्रता मिली, तो उन्हें भारत सरकार द्वारा रिहा कर दिया गया.

1948 में अब्बास अली नरेंद्र देव, जयप्रकाश नारायण और राम मनोहर लोहिया के नेतृत्व वाली सोशलिस्ट पार्टी में शामिल हो गए और सोशलिस्ट पार्टी, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी, संयुक्ता सोशलिस्ट पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी जैसे सभी सोशलिस्ट धाराओं से जुड़े रहे, जब तक कि 1977 में जनता पार्टी के साथ उनका विलय नहीं हो गया. वे 1966-67 में संयुक्ता सोशलिस्ट पार्टी (एसएसपी) की उत्तर प्रदेश इकाई के महासचिव और 1973-74 में क्रमशः सोशलिस्ट पार्टी के महासचिव थे और सोशलिस्ट पार्टी और उसके संसदीय बोर्ड की राष्ट्रीय कार्यकारिणी के सदस्य रहे.

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1967 में उन्होंने चरण सिंह के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश में पहली गैर-कांग्रेस संयुक्त विधायक दल (एसवीडी) सरकार के गठन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई. समाजवादी आंदोलन (1948) के दौरान उन्हें विभिन्न सविनय अवज्ञा आंदोलनों में पचास से अधिक बार गिरफ्तार किया गया था.

आपातकाल (1975-77) के दौरान उन्हें 19 महीने के लिए भारत की रक्षा नियम  और आंतरिक सुरक्षा अधिनियम के तहत कैद किया गया था. जब 1977 में आपातकाल हटा लिया गया और जनता पार्टी सत्ता में आई, तो वे जनता पार्टी की उत्तर प्रदेश इकाई के अध्यक्ष बने.

1978 में वह छह साल के लिए यूपी विधान परिषद के लिए चुने गए. वह छह साल तक यूपी सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड के सदस्य रहे. उन्होंने 2008 में अपनी आत्मकथा ना रहूं किसी का दस्तेनिगर-मेरा सफरनामा लिखा, जिसे 3 जनवरी 2009 को श्री सुरेंद्र मोहन, मुलायम सिंह यादव, रामविलास पासवान, रामजीलाल सुमन, सगीर अहमद और कई लोगों द्वारा नई दिल्ली में उनके नब्बेवें जन्मदिन पर जारी किया गया था.

अली का 11 अक्टूबर 2014 को जवाहरलाल नेहरू मेडिकल कॉलेज, अलीगढ़ में दिल का दौरा पड़ने से निधन हो गया था.