फिराक गोरखपुरीः आने वाली नस्लें तुम पर फ़ख्र करेंगी हम-असरो

Story by  ज़ाहिद ख़ान | Published by  [email protected] | Date 29-08-2021
फिराक गोरखपुरी
फिराक गोरखपुरी

 

आवाज विशेष । फ़िराक़ गोरखपुरी का जन्मदिन    

ज़ाहिद ख़ान

‘‘एक उम्दा मोती, खु़श लहजे के आसमान के चौहदवीं के चांद और इल्म की महफ़िल के सद्र. ज़हानत के क़ाफ़िले के सरदार. दुनिया के ताजदार. समझदार, पारखी निगाह, ज़मीं पर उतरे फ़रिश्ते, शायरे-बुजु़र्ग और आला. अपने फ़िराक़ को मैं बरसों से जानता और उनकी ख़ासियतों का लोहा मानता हूं. इल्म और अदब के मसले पर जब वह ज़बान खोलते हैं, तो लफ़्ज़ और मायने के हज़ारों मोती रोलते हैं और इतने ज़्यादा कि सुनने वाले को अपनी कम समझ का एहसास होने लगता है. वह बला के हुस्नपरस्त और क़यामत के आशिक़ मिज़ाज हैं और यह पाक ख़ासियत है, जो दुनिया के तमाम अज़ीम फ़नकारों में पाई जाती है.’’

यह मुख़्तसर सा तआरुफ़ अज़ीम शायर फ़िराक़ गोरखपुरी का है. उनके दोस्त शायर-ए-इंक़लाब जोश मलीहाबादी ने अपनी आत्मकथा ‘यादों की बरात’ में फ़िराक़ का ख़ाका खींचते हुए उनके मुताल्लिक यह सब बातें कहीं हैं.

जिन लोगों ने भी फ़िराक़ को देखा, पढ़ा या सुना है, वे सब अच्छी तरह से जानते हैं कि फ़िराक़ गोरखपुरी की शख़्सियत इन सबसे कमतर नहीं थी, बल्कि कई मामलों में, तो वे इससे भी कहीं ज़्यादा थे. फ़िराक़ जैसी शख़्सियत, सदियों में एक पैदा होती है. फ़िराक़ गोरखपुरी का ख़ाका लिखते वक्त जोश मलीहाबादी यहीं नहीं रुक गए, बल्कि इसी मज़ामीन में उन्होंने डंके की चोट पर यह एलान भी कर दिया,‘‘जो शख़्स यह तस्लीम नहीं करता कि फ़िराक़ की अज़ीम शख़्सियत हिंदुस्तान के माथे का टीका और उर्दू ज़बान की आबरू, शायरी की मांग का संदल है, वह खुदा की क़सम पैदाइशी अंधा है.’’

फ़िराक़ गोरखपुरी की सतरंगी शख़्सियत का इससे बेहतर तआरुफ़ शायद ही कोई दूसरा हो सकता है. 

फ़िराक़ गोरखपुरी ने गुलाम मुल्क में किसानों-मज़दूरों के रंज-ओ-ग़म को समझा और अपनी शायरी में उनको आवाज़ दी. जोश मलीहाबादी की तरह उनकी इन नज़्मों का फ़लक बड़ा होता था. मज़दूरों का आहृान करते हुए वे लिखते हैं,

‘‘तोड़ा धरती का सन्नाटा किसने?

हम मज़दूरों ने

डंका बजा दिया आदम का किसने?

हम मज़दूरों ने

ओट में छिपी हुई तहज़ीबों का घूंघट सरकाया किसने?’’

तमाम तरक़्क़ीपसंद शायरों की तरह फ़िराक़ गोरखपुरी के कलाम में भी साम्राज्यवाद, पूंजीवाद और साम्प्रदायिकता की मुख़ालिफ़त साफ दिखलाई देती है.

‘बेकारी, भुखमरी, लड़ाई, रिश्वत और चोरबज़ारी

बेबस जनता की यह दुर्गत, सब की जड़ सरमायादारी.’’

उनकी क़िताब ‘गुले नग़्मा’ में इस तरह की ग़ज़ले और नज़्में बहुतायत में हैं. साम्राज्यवाद के खिलाफ कई नज़्मों में उनका लहज़ा काफी तल्ख़ भी हो जाता है. उनकी ऐसी ही एक नज़्म का मुलाहिजा करें,

‘ये सब मर्दखोर हैं साथी इनके साथ मुरव्वत कैसी

यह दुनिया है इनकी मिलकियत इस दुनिया की ऐसी तैसी

दुनिया भर बाजार है जिसका इक मंडी हेराफेरी की

उस अमेरिका की यह हालत यह बेकारी धत तेरे की.’’

फ़िराक़ गोरखपुरी हालांकि अपनी ग़ज़लों और मानीखे़ज शे’र के लिए जाने जाते हैं, मगर उन्होंने नज़्में भी लिखी. और यह नज़्में, ग़ज़लों की तरह खूब मक़बूल हुईं. ‘आधी रात’, ‘परछाइयां’ और ‘रक्से शबाब’ वे नज़्में हैं, जिन्हें जिगर मुरादाबादी, जोश मलीहाबादी से लेकर अली सरदार जाफ़री तक ने दिल खोलकर दाद दी. ‘दास्ताने-आदम’, ‘रोटियां’, ‘जुगनू’, ‘रूप’, ‘हिंडोला’ भी फ़िराक़ की शानदार नज़्में हैं, जिनमें उनकी तरक़्क़ीपसंद सोच साफ ज़ाहिर होती है.

‘हिंडोला’ नज़्म में तो उन्होंने हिंदुस्तानी तहज़ीब की शानदार तस्वीरें खींची हैं. हिंदू देवी-देवताओं, नदियों, त्यौहारों, रीति-रिवाजों और अनेक मज़हबी-समाजी यक़ीनों का इज़हार इस नज़्म में उन्होंने बड़े ही खूबसूरती से किया है.

उर्दू आलोचकों ने इस नज़्म को पढ़कर, बेसाख़्ता कहा, यह नज़्म हिंदुस्तानियत की बेहतरीन मिसाल है. इस नज़्म में मकामी रंग शानदार तरीके से आए हैं. फ़िराक़ गोरखपुरी के एक और समकालीन फै़ज़ अहमद फै़ज़ ने अपने एक मज़मून में उनके कलाम की तारीफ़ करते हुए कहा था,‘‘फ़िराक़ साहिब जज़्बात व एहसासात की बारीकबीनी में इज़्हार के ढंग के बारे में कशीदाकारी के माहिर थे. इस लिहाज से कुल्ली तौर से न सही, बहुत हद तक उनका ‘सौदा’ और ‘मीर’ से मुकाबला कर सकते हैं.’’

फ़िराक़ गोरखपुरी की ग़ज़लों-नज़्मों में फारसी, अरबी के ही कठिन अल्फ़ाज़ नहीं होते थे, बल्कि कई बार अपने शे’रों में उस हिंदुस्तानी ज़बान को इस्तेमाल करते थे, जो हर एक के लिए सहल है. मिसाल के तौर पर उनके कुछ इस तरह के शे’र हैं,

‘‘मज़हब कोई लौटा ले, और उसकी जगह दे दे

तहज़ीब सलीके की, इंसान करीने के.’’,

....

‘‘तुम मुख़ातिब भी हो, करीब भी

तुमको देखें कि तुमसे बात करें.’’,

....

‘आए थे हंसते खेलते मय-खाने में फ़िराक़

जब पी चुके शराब तो संजीदा हो गए.’’,

....

‘‘एक मुद्दत से तेरी याद भी न आई हमें

और हम भूल गए हों, तुझे ऐसा भी नहीं.’’,

...

‘‘मुहब्बत में मिरी तन्हाइयों के हैं कई उन्वां

तिरा आना, तिरा मिलना, तिरा उठना, तिरा जाना.’’

फ़िराक़ ने श्रंगार रस में डूबी अनगिनत ग़ज़लें भी लिखीं. जब इनसे दिल भर गया, तो रुबाइयात लिखीं, नज़्में लिखीं. हिंदू कल्चर और हिंदुस्तानियत में रचे इस शाइर ने एक से बढ़कर एक नज़्में लिखीं. ‘आधी रात’ उन्वान से लिखी नज़्म में उन्होंने भाषा और विचार के स्तर पर जो प्रयोग किए हैं, वे तो अद्भुत हैं. नज़्म को पढ़कर, यह एहसास ही नहीं होता कि यह उन फ़िराक़ गोरखपुरी की नज़्म है, जो उर्दू के मुकाबिल हिंदी ज़बान के मामले में बेहद पक्षपाती हो जाते थे. यकीन न हो तो इस नज़्म के कुछ मिस्रे देखिए,

‘‘करीब चांद के मंडला रही है इक चिड़िया

भंवर में नूर के, करवट से कैसे नाव चले

कहां से आती है अमद मालती लता की लपट

कि जैसे सैंकड़ों परियां गुलाबियां छलकाएं

कि जैसे सैंकड़ों बन देवियों ने झूलों पर

अदाए-खास से इक साथ बाल खोल दिए

बदल सके तो फिर इस ज़िंदगी का क्या कहना.’’

फ़िराक़ गोरखपुरी सिर्फ आला दर्जे के शायर ही नहीं थे, बल्कि सुलझे हुए दानिश्वर, फिलॉसपर भी थे. मुल्क की गंगा-जमुनी तहज़ीब, भाषा और सियासत के तमाम ज्वंलत सवालों पर वे अपनी खुलकर राय रखते थे. हक़गोई और बेबाकी, ज़िहानत और ज़बानदानी उनकी घुट्टी में थी. सच को सच कहने का हौसला उनमें था. वे साम्प्रदायिकता और मज़हबी कट्टरता के घोर विरोधी रहे. अपने ऐसे ही एक विचारोत्तेजक मज़मून ‘हमारा सबसे बड़ा दुश्मन’ में वे लिखते हैं,‘‘साम्प्रदायिकता का भाव खुद अपने सम्प्रदाय के लिए खु़दकुशी के बराबर होता है. देखने में फिरक़ापरस्त आदमी दूसरे धर्मवालों को छुरा भोंकता है, लेकिन दरअसल वह आदमी अपने ही फिरके़ का खून करता है. चाहे दूसरे फिरके़ वालों से बदला लेने के लिए वह ऐसा काम करे.’’

साम्प्रदायिक लोग समाज के लिए किस क़दर ख़तरनाक हैं, अपने इसी लेख में वे लिखते हैं,‘‘साम्प्रदायिक हिन्दू, हिन्दू जाति के लिए ख़तरनाक है, मुसलमान के लिए उतना ख़तरनाक नहीं है. फिरक़ापरस्त मुसलमान, फिरके़ के लिए ज्यादा नुकसान पहुंचाने वाला है, हिन्दू के लिए उतना नहीं. और यही हाल साम्प्रदायिक सिख, साम्प्रदायिक पारसी, साम्प्रदायिक एंग्लो इंडियन, साम्प्रदायिक इसाई का है. ये सब अपनी जाति के दुश्मन हैं. साम्प्रदायिकता के आधार पर अपने सहधर्मियों की सेवा ही नहीं की जा सकती, पर साम्प्रदायिकता से बच कर ही अपने सम्प्रदाय की, अपने सहधर्मियों की तरक़्क़ी हो सकती है. या यों कहो कि दूसरे सम्प्रदायवालों, दूसरे धर्मवालों की उन्नति, खुशहाली मुमकिन है.’’

फ़िराक़ गोरखपुरी अपने इस लेख में साम्प्रदायिकता की समस्या को चिन्हित भर नहीं करते, बल्कि देशवासियों को आगाह भी करते हैं,‘‘हिन्दू संस्कृति को हिन्दू राज्य मिटाकर रख देगा, मुस्लिम संस्कृति को इस्लामी राज्य मिटाकर रख देगा और साम्प्रदायिक राज्य अपने ही सहधर्मियों को ले डूबेगा.’’

फिर मुल्कवासियों का असली दुश्मन कौन है और उसे किससे लड़ना चाहिए ? इस बात का सुराग भी वे अपने लेख में देते हैं, ‘‘हमारे अनुचित रीति-रिवाज, हमारे समाज का ग़लत ढांचा, ग़लत कानून, कारोबार के गलत तरीके, व्यापार के नाम पर बेदर्दी से नफ़ा कमाने का लालच और खुद हमारे जीवन की ग़लतियां, रिश्वत, चोर बाजारी, निरक्षरता, भूख और बेकारी असली दुश्मन हैं.’’

फ़िराक़ गोरखपुरी का यह लेख साल 1950 में लिखा गया था, लेकिन आज भी यह उतना ही प्रासंगिक है, जितना लिखते वक्त था. इस लेख में उन्होंने जो विचार व्यक्त किए हैं, उनसे शायद ही कोई रौशनख़याल शख़्स नाइत्तेफाक़ी जताए.

उर्दू अदब को फिराक गोरखपुरी ने अपने कलाम से खूब मालामाल किया. गद्य और पद्य दोनों में ही उन्होंने बेशुमार लिखा. उनकी कुछ अहम किताबों के नाम हैं ‘नग़्मा-ए-साज’, ‘ग़ज़लिस्तां’, ‘शेरिस्तां’, ‘शबनमिस्तां’, ‘रूह-ए-कायनात’, ‘गुल-ए-नग़्मा’, ‘धरती की करवट’, ‘गुलबांग’. ग़ज़लों, नज़्मों और रुबाइयों के इन मज़मुओं के अलावा किताब ‘उर्दू भाषा और साहित्य’ फ़िराक़ गोरखपुरी का एक अहम कारनामा है. जिसमें उन्होंने न सिर्फ पूरी तफ़्सील से यह बतलाया है कि मुल्क में उर्दू ज़बान कैसे परवान चढ़ी, बल्कि इस ज़बान के तमाम अदीबों और उनके अदब से भी वाकिफ़ कराया है. साल 1962 में आई यह किताब आज भी नई पीढ़ी के लिए संदर्भ ग्रंथ की तरह काम करती है. अब तक क़िताब के कई संस्करण आ चुके हैं.

उर्दू अदब में फ़िराक़ गोरखपुरी के बेमिसाल योगदान के मद्देनजर, उन्हें कई सम्मान और पुरस्कारों से नवाज़ा गया. जिसमें कुछ खास सम्मान और पुरस्कार हैं साहित्य अकादेमी (साल 1960), सोवियत लैंड नेहरू पुरस्कार (साल 1968), भारतीय ज्ञानपीठ सम्मान (साल 1970). साल 1968 में भारत सरकार ने अपने सर्वोच्च नागरिक सम्मानों में से एक ‘पद्म भूषण’ से उन्हें नवाजा.

पचास साल से ज्यादा वक्त की अपनी अदबी ज़िंदगी में फ़िराक़ गोरखपुरी ने तकरीबन 40 हजार अशआर लिखे. ज़िंदगी के आख़िरी वक्त तक उनका लेखन नहीं छूटा. वे आखिरी समय तक एकेडमिक और अदबी महफ़िलों की रौनक बने रहे. फ़िराक़ जैसी शोहरत बहुत कम शायरों को हासिल हुई है. फ़िराक़ गोरखपुरी की एक अकेली ज़िंदगी के कई अफ़साने हैं. एक अफ़साना छेड़ो, दूसरा खुद ही चला आता है. एक लेख में न तो उनकी पूरी ज़िंदगी आ सकती है और न ही उनके लिखे अदब के साथ इंसाफ़ हो सकता है.

‘‘आने वाली नस्लें तुम पर फ़ख्र करेंगी हम-असरो

जब भी उन को ख़याल आयेगा कि तुम ने ‘फ़िराक़’ को देखा था.’’