संविधान सभा की एकमात्र मुस्लिम महिला सदस्य थी बेगम रसूल, कहा था, देशभक्ति और धर्म को एकसाथ करना अनुचित

Story by  मंजीत ठाकुर | Published by  [email protected] | Date 25-01-2022
बेगम एजाज रसूल थीं संविधान सभा की एकमात्र मुस्लिम महिला सदस्य
बेगम एजाज रसूल थीं संविधान सभा की एकमात्र मुस्लिम महिला सदस्य

 

आवाज विशेष । गणतंत्र दिवस

मंजीत ठाकुर

आजादी के साथ ही भारत को विभाजन का दंश भी झेलना पड़ा था. दो राष्ट्र के सिद्धांत ने मतभिन्नता की खाई इतनी चौड़ी कर दी थी कि मुस्लिम लीग ने संविधान सभा का बहिष्कार ही कर दिया था. नतीजतन, लीग की तरफ से कुछ ही सदस्य भारत की संविधान सभा में शामिल हुए.

बेगम एजाज रसूल संविधान सभा में प्रतिनिधिमंडल की उपनेता और विपक्ष की उपनेता चुनी गई थीं. जब पार्टी के नेता चौधरी ख़लीक़ुज्जमां पाकिस्तान चले गए तो बेगम एजाज को मुस्लिम लीग की नेता के रूप में स्थान दिया गया और वह अल्पसंख्यक अधिकार मसौदा उपसमिति की सदस्य बन गईं.

बेगम एजाज रसूल ने धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षित सीटों की मांग को स्वेच्छा से छोड़ने के लिए मुस्लिम नेतृत्व के बीच आम सहमति बनाने में अहम भूमिका निभाई थी.

मसौदा समिति की एक सभा में अल्पसंख्यकों के अधिकार से संबंधित चर्चा के दौरान, उन्होंने मुसलमानों के लिए 'अलग निर्वाचक मंडल' के विचार का विरोध किया. उन्होंने इस विचार को 'एक आत्मघाती हथियार’ बताया जो हमेशा के लिए अल्पसंख्यकों को बहुसंख्यकों से अलग कर देता. 1949 तक, अलग निर्वाचक मंडल बनाए रखने की इच्छा रखने वाले मुस्लिम सदस्यों ने बेगम की अपील को स्वीकार कर लिया.

22 नवंबर 1949 को भारतीय संविधान के प्रारूप को स्वीकार करने के लिए डॉ. भीमराव आंबेडकर ने प्रस्ताव पेश किया था और उसका समर्थन करते हुए बेगम एजाज रसूल ने कहा, “संविधान की सर्वोत्कृष्ट विशेषता यह है कि भारत विशुद्ध धर्मनिरपेक्ष राज्य है.

संविधान की पवित्रता अनिवार्य रूप से धर्मनिरपेक्षता की पुष्टि में निहित है और हमें इस पर गर्व है. मुझे पूरा विश्वास है कि धर्मनिरपेक्षता संरक्षित और अक्षुण्‍ण रहेगी, भारत के लोगों की पूर्ण एकता इसी पर निर्भर है, इसके बिना प्रगति की सभी आशाएं व्यर्थ हैं.”

बेगम रसूल का जन्म 2 अप्रैल 1909 को महमूदा सुल्ताना और सर जुल्फिकार अली खान के घर हुआ था. बचपन में उनका नाम कुदसिया बेगम था. उनके पिता, सर जुल्फिकार, पंजाब में मलेरकोटला रियासत के शासक खानदान के थे. कुदसिया बेगम की मां, महमूदा सुल्ताना, लोहारू के नवाब, नवाब अलाउद्दीन अहमद खान की बेटी थी.

कुदसिया बेगम की शादी 1929 में नवाब एजाज रसूल से हुई थी जो हरदोई में संडीला के जमींदार थे. शादी के बाद, कुदसिया बेगमस बेगम ऐज़ाज़ रसूल के नाम से जानी जाने लगीं.

संविधान सभा में शामिल होने से पहले, वह उत्तर प्रदेश विधान परिषद की सदस्य थीं. वह संयुक्त प्रांत से 14 जुलाई 1947 को संविधान सभा में शामिल हुईं. बाद में, वह 1952 से 1956 तक राज्यसभा सांसद रहीं. वह मौलिक अधिकारों पर सलाहकार समिति की तीन महिला सदस्यों में से एक थीं.

अल्पसंख्यक अधिकारों पर- भारतीय संविधान सभा ने अपनी प्रारंभिक बैठकों में विधानसभा की अल्पसंख्यक अधिकारों पर उप-समिति की ओर से अनुशंसित कुछ समुदायों के लिए सीटों के आरक्षण के सिद्धांत को स्वीकार किया था. लेकिन विभाजन की घोषणा ने बहस की प्रकृति को बदल दिया. विभाजन के बाद, विधानसभा ने अल्पसंख्यकों के लिए अलग निर्वाचक मंडल और सीटों के आरक्षण के सिद्धांत को खारिज कर दिया.

रसूल ने यह भी आशंका जताई कि अल्पसंख्यक समुदाय के लिए सीटों का आरक्षण 'अलगाववाद और सांप्रदायिकता की भावना को जीवित रख सकता है' और इस तरह के आरक्षण के प्रस्ताव को उन्होंने खारिज कर दिया.

लेकिन ऐसा करते समय, उन्होंने अल्पसंख्यकों के साथ भेदभाव न हो, इसके लिए बहुसंख्यक समुदाय की भूमिका की चर्चा भी की. उनका मानना था कि अल्पसंख्यक समुदायों को 'बहुसंख्यक समुदाय की भलाई पर निर्भर' होना चाहिए,

लेकिन यह भी कि बहुसंख्यकों को अपने कर्तव्य का एहसास रहे कि किसी भी अल्पसंख्यक के साथ भेदभाव न करें. उन्होंने कहा, “हम मुसलमान के रूप में अपने लिए कोई विशेषाधिकार नहीं चाहते हैं लेकिन हम यह भी नहीं चाहते हैं कि हमारे साथ कोई भेदभाव किया जाए. यही कारण है कि मैं कहती हूं कि इस महान देश के नागरिक के रूप में हम आकांक्षाओं और यहां रहने वाले लोगों की आशाओं को साझा करते हैं, और उसी समय उम्मीद करते हैं कि हमारे साथ सम्मान और न्याय के साथ व्यवहार किया जाए.”

कई लोगों को अंदेशा था कि बगैर आरक्षण के मुसलमान जनप्रतिनिधित्व में नहीं आ सकेंगे. इस पर रसूल एजाज ने कहा, “मैं भविष्य में किसी भी राजनीतिक दल की कल्पना नहीं करती, जो मुसलमानों की अनदेखी करके चुनावों में अपने उम्मीदवार खड़ा करे. मुसलमान इस देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा हैं. मुझे नहीं लगता कि कोई भी राजनीतिक दल कभी भी उनकी उपेक्षा कर सकता है.”

धर्म के आधार पर देश के प्रति किसी की निष्ठा को चुनौती देने के प्रश्न उस समय भी उठते थे. इस पर बेगम ने कहा, “मुझे समझ में नहीं आता है कि वफादारी और धर्म एक साथ क्यों चलते हैं. मुझे लगता है कि जो व्यक्ति राज्य के हितों के खिलाफ काम करते हैं और विध्वंसक गतिविधियों में भाग लेते हैं, वे हिंदू या मुसलमान या किसी भी अन्य समुदाय के सदस्य हों, वफादार नहीं हैं. जहां तक मामला है, मुझे लगता है कि मैं कई हिंदुओं की तुलना में अधिक निष्ठावान हूं क्योंकि उनमें से कई विध्वंसक गतिविधियों में लिप्त हैं, जबकि मेरे दिल में मेरे देश का खयाल है.”

बेगम रसूल को उम्मीद थी कि भारत का संविधान महिलाओं के साथ भेदभाव खत्‍म करेगा, बल्कि वास्तव में यह नए गणराज्य में महिलाओं के लिए 'अवसर की समानता' भी सुनिश्चित करेगा. उन्होंने कहा, “भारत की महिलाएं जीवन और गतिविधि के सभी क्षेत्रों में पुरुषों के साथ पूर्ण समानता की अपनी उचित विरासत को आगे बढ़ाकर खुश हैं.

मैं ऐसा इसलिए कहती हूं क्योंकि मुझे विश्वास है कि यह कोई नई अवधारणा नहीं है, जिसे इस संविधान के उद्देश्यों के लिए अपनाया गया है. यह एक ऐसा आदर्श है, जिसे लंबे समय से भारत ने पोषित किया है,

हालांकि कुछ समय के लिए सामाजिक परिस्थितियों ने इसे व्यावहार से बाहर कर दिया था. यह संविधान इस आदर्श की पुष्टि करता है और इस बात का आश्वासन देता है कि भारतीय गणराज्य में कानून में महिलाओं के अधिकारों का पूर्ण सम्मान किया जाएगा.”

बदलते भारत में जब अल्पसंख्यकों की स्थिति और विभिन्न सदनों में मुसलमानों के प्रतिनिधित्व को लेकर सवाल खड़े किए जाते हैं, बेगम रसूल एजाज की बातें संविधान की सर्वोच्चता को प्रतिष्ठित करती है और भारतीय गणतंत्र की व्यापकता का एहसास दिलाती हैं.