अफगानिस्ताननामा : तैमूर शाह की कांटों भरी राह

Story by  हरजिंदर साहनी | Published by  [email protected] • 2 Years ago
अफगानिस्ताननामा :  तैमूर शाह की कांटों भरी राह
अफगानिस्ताननामा : तैमूर शाह की कांटों भरी राह

 

अफगानिस्ताननामा 29

 

हरजिंदर

तैमूर शाह की दिक्कत तख्त पर बैठने से पहले ही शुरू हो गई थीं.तभी से जब उसे युवराज घोषित किया गया था.तैमूर अहमद शाह का दूसरा बेटा था.इसलिए जब उसे युवराज घोषित किया गया तो बड़े बेटे सुलेमान और उसके समर्थकों ने इसका जोरदार विरोध किया.

सुलेमान कंधार का शासक था और बड़ा होने के कारण खुद को गद्दी का असल हकदार मान रहा था.पर अहमद शाह की मर्जी के सामने किसी की नहीं चली.हालांकि अहमद शाह के निधन के बाद तैमूर का बिना किसी परेशानी के सत्ता मिल गई लेकिन परिवार के भीतर और बाहर कईं तरह के विरोधों और उन्हें न निपटा पाने के कारण उसे कमजोर शासक ही माना गया.

युद्ध के मैदान में भी तैमूर शाह का रिकाॅर्ड कोई बहुत अच्छा नहीं था.सिख सेना ने उसे पूरी तरह पराजित कर दिया था और उसे पहले अमृतसर और फिर लाहौर छोड़कर भागना पड़ा था.पेशावर की जंग में भी उसके नाम हार ही रही थी.

तैमूर शाह को एक और वजह से जाना जाता है.उसका एक बहुत बड़ा हरम था.हालांकि ऐसा इसलिए हुआ कि अहमद शाह के भारत पर हुए हमलों में ज्यादातर वह उनके साथ आया.अहमद शाह जिस भी राजा को हराते थे उसकी बेटी से तैमूर का विवाह करवा देते थे.मुगल शासक आलमगीर की बेटी से उन्होंने तैमूर का विवाह उस समय करवा दिया जब वह महज नौ साल का था.

तैमूर को अपने शासनकाल की शुरुआत से ही बगावतों का सामना करना पड़ा.वैसे बगावतों का यह सिलसिला तभी शुरू हो गया था जब उसके पिता अहमद शाह बीमार थे और यह साफ था कि उनके दिन अब गिनती के ही रह गए हैं.

कंधार में जब इन बगावतों ने उसकी नाक में दम कर दिया तो उसने राजधानी को कंधार से बदल कर काबुल कर दिया.अफगानिस्तान के इतिहास में तैमूर शाह की सबसे बड़ी भूमिका यही है कि उसने इस मुल्क को एक नई राजधानी दी जो फिर हमेशा के लिए इसका केंद्र बन गई.

इसके पहले तक काबुल की पहचान सिर्फ इतनी भर थी कि यहां पर आकर मुगल शासन खत्म हो जाता था.इसके अलावा उसने पेशावर को सर्दी के मौसम की अपनी राजधानी बनाया, जहां से भारत की सीमा शुरू हो जाती थी.

तैमूर 1774 में जब इसी पेशावर में सर्दियों बिता रहा था तो उसके एक सिपहसालार ने उसे भारत जाकर सिखों से बदला लेने के लिए राजी कर लिया.कहते हैं कि फय्याज अल्लाह खान नाम के इस सिपहसालार ने भारत पर हमले के नाम पर अपने सैनिकों को संगठित करना शुरू कर दिया.

फिर एक रात जब तैमूर सो रहा था तो इन सैनिकों ने महल पर हमला किया और उसकी सुरक्षा में लगे कईं सैनिकों को मार गिराया.फय्याज की योजना तैमूर को मार कर सत्ता पर काबिज होने की थी.लेकिन तैमूर किसी तरह से महल के पिछले हिस्से से भाग निकलने में कामयाब रहा.

इस हमले में हमलावरों को रोके रखने और तैमूर को बचा कर ले जाने का काम किया उसके उन सैनिकों ने जिन्हें किजिलबाश कहा जाता है.लाल टोपी लगाने वाले किजिलबाश तुर्की मूल के ईरानी कबीलाई सैनिक थे जो नादिर शाह की सेना के साथ अफगानिस्तान आए थे.

इस हमले के बाद तैमूर को खुद अपने ही कबीले के लोगों से डर लगने लग गया.अब उसने अपनी सुरक्षा का सारा दारोमदार किजिलबाश सैनिकों के हवाले कर दिया.इसके सिपहसालारों को तरक्की भी मिली.

लेकिन किजिलबाश क्योंकि विदेशी मूल के थे और उनकी भाषा व तौर तरीके अलग थे इसलिए इस तरक्की के बाद पख्तून उनसे नफरत करने लगे.इस सबने पख्तून कबीलों में तैमूर शाह की अलोकप्रियता को ओर बढ़ा दिया.

बढ़ती बगावतों का सिलसिला देख कर सिख फौजों ने इसका फायदा उठाया और मुल्तान व बहावलपुर पर कब्जा कर लिया.हालांकि 1780में तैमूर मुल्तान और बहावलपुर को फिर से हासिल करने में कामयाब रहा लेकिन इसके लिए उसे सिख फौज से समझौता करना पड़ा.

अपने 20 साल के शासन में तैमूर शाह को कईं बगावतों को सामना करना पड़ा तो कईं तरह के समझौते भी करने पड़े.कश्मीर में आजाद खान ने बगावत की और कईं बार तैमूर की सेना के दांत खट्टे किए.लेकिन अंत में तैमूर कश्मीर केा फिर से हासिल करने में कामयाब रहा.

नोट: यह लेखक केअपने विचार हैं ( लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं )

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