अफगानिस्ताननामा : शाह शुजा का अंत

Story by  हरजिंदर साहनी | Published by  [email protected] | Date 02-02-2022
शाह शुजा का अंत
शाह शुजा का अंत

 

अफगानिस्ताननामा : 42


harहरजिंदर
 
पहला ब्रिटिश अफगान युद्ध तो खत्म हो गया था लेकिन ब्रिटिश सैनिकों की एक टुकड़ी अभी भी जलालबाद में मौजूद थी. वहां भी इस बात को लेकर काफी संशय था कि क्या किया जाना है.

वह संचार का युग नहीं था और ईस्ट इंडिया कंपनी के मुख्यालय कोलकाता से उनके पास कोई संदेश नहीं पहंुच पा रहा था. फौजी अफसरों में आगे की रणनीति को लेकर काफी मतभेद थे.
 
कुछ अफसर तुरंत भारत चले जाने की बात कर रहे थे जबकि कुछ का कहना था कि उन्हें इंतजार करना चाहिए क्योंकि जल्द ही ब्रिटिश फौज उनकी मदद के लिए आती ही होगी.
 
इस बीच कईं भारतीय सैनिक उनका साथ छोड़कर लौट भी आए थे। समस्या यह थी कि खतरा हर रोज बढ़ रहा था. ऐसी सूचनाएं भी मिल रहीं थीं कि अफगान लड़ाके और गाजियों की फौज उन्हें यहां से भी खदेड़ने की तैयारी कर रही है.
 
इस बीच एक और घटना यह हुई कि जलालाबाद में मौजूद सैनिकों को काबुल से शाह शुजा को संदेश मिला कि वे जल्द से जल्द अफगानिस्तान छोड़ दें. आगे चलकर इन सभी को भी लगभग उन्हीं स्थितियों में अफगानिस्तान छोड़ना पड़ा जिन स्थितियों में काबुल छावनी के ब्रिटिश सैनिकों को छोड़ना पड़ा था.
 
हर हार का अंत आलोचना में होता है, इसलिए कोलकाता में उन अफसरों की काफी आलोचना शुरू हो गई जिन्होंने अफगानिस्तान में इतना बड़ा जोखिम लेने की योजना बनाई थी.
 
यह भी कहा गया कि इस पूरे हमले के लिए रूस के जिस खतरे को बहाना बनाया गया उस बात को काफी बढ़ा-चढ़ा कर कहा गया. जबकि वास्तविक खतरा इतना ज्यादा नहीं था.
 
आलोचना सिर्फ कोलकाता में ही नहीं हो रही थी, लंदन में भी यही हाल था. इसके सबसे बड़े आलोचक थे बेंजामिन डिजरायली जो बाद में जो ब्रिटेन के प्रधानमंत्री भी बने.
 
इस जीत से अकबर खान काफी उत्साहित था. वह भले ही अगली लड़ाई के लिए जलालाबाद जाने की तैयारी कर रहा था, लेकिन उसकी आंखों में अब बहुत बड़े सपने थे. वह सिंधु नदी के उस पार की दुनिया को उसी तरह से जीतना चाहता था जैसे कि कभी नादिरशाह या अहमद शाह अब्दाली ने जीता था.
 
दुनिया के हालात किस तरह बदल गए हैं अफगान लड़कों को इसका अहसास भी नहीं था. एक दूसरा सच यह भी था कि इतने बड़े सपनों के बावजूद अभी भी वह इस स्थिति में नहीं आ पाया था कि वह शाह शुजा को काबुल के तख्त से नीचे उतार दे.
 
तमाम इतिहासकार बताते हैं कि ब्रिटिश से समझौता करने और उनकी मदद से सत्ता हासिल करने के कारण पूरे मुल्क में लोग उसके विरोध में थे. यहां तक कि खुद उसके कबीले के लोग भी.
 
उसकी फौज भी कोई मजबूत नहीं थी. सबसे बड़ी बात यह थी कि वह अच्छा शासक या प्रशासक भी नहीं था. उस समय पूरे अफगानिस्तान में जिस तरह से महंगाई और लोगों की परेशानियां बढ़ रहीं थीं उसकी वजह से शाह शुजा खास अलोकप्रिय हो गया था.
 
राजधानी काबुल तक के लोग भी उसे नपसंद करते थे. कईं वजहों से शाह के हाथ भी बंधें हुए थे. आमतौर पर काबुल का खर्च रियासतों में  वसूले गए टैक्स की हिस्सेदारी से चलता था लेकिन जो हालात थे उनमें कहीं से भी धन नहीं आ रहा था.
 
दिलचस्प बात यह है कि इन सबके बावजूद शाह शुजा सत्ता में बना हुआ था. इसका सबसे बड़ा कारण यह था कि वे तमाम अफगान लड़ाके जो अकबर खान को सत्ता में आने से रोकना चाहते थे, उन्हें लग रहा था कि इसका सबसे अच्छा तरीका यह है कि फिलहाल किसी भी तरह से शाह शुजा को सत्ता में बने रहने दिया जाए.
 
उधर शाह शुजा भी अपनी लोकप्रियता बढ़ाने की जुगत तलाश रहा था. उसे लगा कि जलालबाद में बचे-खुचे फिरंगियों को भारत खदेड़ कर वह फिर से लोकप्रियता की राह पर चल सकता है.
 
सैनिक दृष्टि से यह कठिन भी नहीं लग रहा था. शाह शुजा ने हमले के लिए अपनी सेना को तैयार करना शुरू कर दिया. हथियार जमा कर लिए गए, सैनिकों को तैयार कर दिया गया.
 
रास्ते के लिए रसद, घोड़े, उंट, खच्चर वगैरह का इंतजाम कर लिया गया. कूच करने के लिए पांच अप्रैल की तारीख तय की गई. यह भी तय हुआ कि सेना का नेतृत्व खुद शाह शुजा ही करेगा.
 
नियत तारीख को जब पूरी फौज बाला हिसार किले के बाहर सज कर तैयार हो गई तो सैनिक वेशभूषा में तैयार होगा शाह शुजा किले से निकला. ठीक तभी एक नौजवान से उस पर गोली चला दी.
 
और दुर्रानी वंश का 57 वर्षीय शाह वहीं ढेर हो गया. उसके बेटे फतेह जंग को तुरंत ही शाह घोषित किया गया. लेकिन अपने पिता की ही तरह सत्ता पर उसकी कोई पकड़ नहीं थी. 
 
जारी...