अफगानिस्ताननामा : अस्थिरता के हवाले हो गया अफगानिस्तान

Story by  हरजिंदर साहनी | Published by  [email protected] | Date 21-12-2021
अफगानिस्ताननामा
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यह बात साल 1793 की है.तैमूर शाह ने अपनी पूरी सर्दियां चार महीनों की अपनी राजधानी पेशावर में बिताई और जब मौसम बदलने लगा तो वह अपने लाव लशकर के साथ वापस काबुल की ओर बढ़ चला.पेशावर से काबुल जाने वाला रास्ता खैबर दर्रे से होकर निकलता है और रास्ते में जलालाबाद भी पड़ता है.

हालांकि उसकी उम्र कोई बहुत ज्यादा नहीं थी लेकिन कुछ लेखकों ने लिखा है कि वह तब तक भयाक्रांत रहने लगा था.उसे डर था कि कोई उसकी हत्या कर सकता है.बादशाह का काफिला जब खैबर दर्रे को पार कर रहा था तो उसका घोड़ा फिसल गया और तैमूर शाह उस पर से गिर पड़े.हालांकि उन्हें चोट नहीं आई लेकिन इसे एक अपशगुन माना गया.सेनापतियों ने मान लिया कि उन्हें कोई बुरी खबर सुनने के लिए तैयार हो जाना चाहिए.

तैमूर शाह जब जलालबाद पहंुचा तो उसकी तबीयत बिगड़ने लगी। सहयोगियों की सलाह थी कि वे जलालाबाद में थोड़ा रुककर आराम करें और जब सेहत सुधरे तो काबुल की ओर बढ़े.लेकिन तैमूर शाह जल्द से जल्द काबुत पहंुचना चाहता था.जब वह काबुल पहंुचा तो यह धारणा बनने लग गई कि बादशाह की बची-खुची जिंदगी अब कुछ ही दिन की है.

खुद तैमूर शाह को भी शायद यह अनुमान हो गया था.उसने अपने सबसे बड़े बेटे शाह जमान को युवराज घोषित कर दिया और उससे यह वादा भी लिया कि शाह जमान अपने सौतेले भाइयों हुमायूं और महमूद से कंधार और हेरात की रियासत नहीं छीनेगा.

कुछ ही समय में तैमूर शाह का निधन हो गया.उस समय उनकी उम्र थी महज 46साल.वह अपने पीछे कईं रानियां और ढेर सारे ऐेसे बच्चे छोड़ गया जो खुद को अफगान सत्ता का सबसे बड़ा हकदार मानते थे.नतीजा यह हुआ कि अहमद शाह अब्दाली ने जिस सत्ता को बनाने के लिए अपनी पूरी जिंदगी लगा दी, वह उनके बेटे तैमूर शाह के समय कमजोर हो कई और तैमूर शाह के जाते ही बिखरने लग गई.

हालांकि शुरुआत में तैमूर शाह की इच्छा के अनुसार सत्ता शाह जमान के हाथ आई लेकिन इसी के साथ परिवार के झगड़े शुरू हो गए.शाह जमान चार साल ही राज कर पाए और उसके बाद राज महल की लड़ाई में उसकी आंखें फोड़ दी गई.

सत्ता अब उसके सौतेले भाई शाह महमूद के हाथ आ गई.लेकिन इससे लडाइयां खत्म होने के बजाए बढ़ने लगीं.दो साल के अंदर ही एक और सौतेले भाई शाह शुजा ने शाह महमूद को खदेड़ कर सत्ता पर कब्जा कर लिया.लेकिन महमूद चुप नहीं बैठा और उसे लगातार परेशान करता रहा.

शाह शुजा का यह सत्तासुख छह साल ही चला और एक बार फिर शाह महमूद उसे मात देकर तख्त पर फिर एक बार काबिज हो गया.नौ साल बाद जो बगावत हुई तो उसमें शाह महमूद अपनी सत्ता को बचा नहीं सका और एक बार फिर शाह शुजा तख्त पर काबिज हो गया.

हालांकि शाह शुजा इस बार ज्यादा दिन सत्ता पर नहीं रह सका और तैमूर शाह के एक और बेटे अयूब शाह ने तख्त पर कब्जा कर लिया.अगले कईं साल तक इसी तरह एक के बाद एक तैमूर शाह के वारिसों का सत्ता पर आना जाना लगा रहा.

अहमद शाह अब्दाली को अफगानिस्तान के सबसे सफल राजाओं मेें गिना जाता है लेकिन उसके और उसके बाद उसके बेटे तैमूर शाह की सबसे बड़ी नाकामी यह रही कि उन्होंने तलवार के बल पर शासन करने की कोशिश ही की और सत्ता की वैसी संस्थाएं नहीं बनाईं जो किसी देश को स्थिरिता देने के लिए जरूरी होती हैं.

ये लोग उस समय तलवार के भरोसे थे जब दुनिया में बहुत तेजी से कईं बदलाव हो रहे थे.फ्रांस में 1789की वह क्रांति शुरू हो गई थी जिसमें आजादी, बराबरी और भाईचारे जैसे मूल्यों को अपनाया गया.आम लोगों को कईं तरह के अधिकर मिले और लोकतंत्र की नींव भी इसी के साथ रखी जानी शुरू हुई.इस विचार का प्रसार और असर भी बढ़ा कि आम जनता को अपनी सरकार चुनने का अधिकार मिलना चाहिए.

इसी के साथ ब्रिटेन में औद्योगिक क्रांति हो चुकी थी जिसने दुनिया के आर्थिक समीकरण तेजी से बदल दिए थे.आर्थिक, वैचारिक और सैन्य क्षमता के मामले में एशिया का यह हिस्सा यूरोप से तेजी से पिछड़ने लग गया था.

अफगानिस्तान में जिस समय अस्थिरता लगातार बढ़ रही थी उसके आस पास के देशों में मजबूत साम्राज्य अस्तित्व में आने लगे थे.सिंधु नदी के उस पार जहां सिख अब तक एक सैनिक ताकत थे अब उन्होंने अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया था.महाराजा रंजीत सिंह के उदय के साथ ही अफगानिस्तान के समीकरण भी बदलने वाले थे.

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