अफगानिस्ताननामा : खतरों से घिर गई ब्रिटिश फौज

Story by  हरजिंदर साहनी | Published by  [email protected] | Date 19-01-2022
अफगानिस्ताननामा
अफगानिस्ताननामा

 

hatहरजिंदर
 
फगानिस्तान में घुसने और काबुल तक पहंुचने में ब्रिटिश सेना को ज्यादा दिक्कत का सामाना नहीं करना पड़ा था, इसलिए उसे लग रहा था कि यहां पर इतनी बड़ी फौज की जरूरत नहीं है. यह शायद ब्रिटेन की पहली गलती थी. इस आक्रमण में फौज का नेतृत्व जनरल कीनी कर रहे थे जिसे इस जीत के बाद लॉर्ड का खिताब दे दिया गया था.

जब वे अफगानिस्तान छोड़ रहे थे उन्हें इसका अंदेशा दिखने लगा था. उन्होंने तभी कह दिया था कि इस देश से कभी भी कोई बुरी खबर आ सकती है. उन्हें सबसे बड़ा खतरा पर्वतीय इलाकों में रहने वाले लड़ाकों से लग रहा था जहां तक ब्रिटिश फौज अभी पहंुची ही नहीं थी.
 
पहली समस्या यह खड़ी हुई कि अफगानिस्तान में बाकी बचे ब्रिटिश सैनिक रहेंगे कहां ? सेना के अधिकारी चाहते थे कि उन्हें बाला हिसार का किला दे दिया जाए, लेकिन तब तक शाह शुजा ने इस किले में अपने सैनिकों को ठहरा दिया था.
 
इन सैनिकों को रहने के लिए बाला हिसार से दो किलोमीटर आगे एक जगह दी गई, जहां उन्होंने तुरंत ही अपनी छावनी बनानी शुरू कर दी. वहां सुरक्षा का घेरा भी बन गया. तोपों को स्थाई रूप से लगा दिया गया.
 
खेल कूद की व्यवस्था  भी हो गईं. जल्द ही सैनिक अधिकारियों को भारत से अपना परिवार लाने की अनुमति भी मिल गई, जिससे काबुल से बाहर एक नया शहर ही बस गया.
 
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काबुल के लोग भी वहां रेस कोर्स और पोलो के खेल का आनंद लेने जाने लगे. अधिकारियों की पत्नियां वहां पहुंचने के साथ ही अफगान लोगों के बीच एक ऐसी संस्कृति पहुंच गई थी जिसके बारे में उन्होंने सोचा भी नहीं था.
 
खतरा किसी भी समय खड़ा हो सकता है, इसके संकेत जल्द ही मिल गए. गजनी में जब खिलजी कबीले के लोगों ने हमला बोला तो उनका निशाना वहां रखी गई ब्रिटिश फौज ही थी.
 
यह हमला इतना बड़ा था कि ब्रिटिश सेना के पसीने छूट गए। किसी तरह वे हमलावरों को भगाने में तो सफल हो गए. लेकिन जब लड़ाई खत्म हुई तो ब्रिटिश सेना के 200 लोग मारे जा चुके थे. जिस तरह से यह हमला हुआ था उससे साफ था कि ये छापामार जल्द ही फिर लौटेंगे.
 
ब्रिटिश सेना का एक बड़ा हिस्सा वापस चले जाने की खबर जब रूस पहंुची तो वहां जार की सरकार को लगा कि अफगानिस्तान पर कब्जे का यह सबसे अच्छा मौका है, क्योंकि इस समय ब्रिटिश सैनिक संख्या में कम हैं और काबुल में उनकी कठपुतली सरकर है.
 
हमले की जिम्मेदारी जनरल पेट्रोवस्की को दी गई. पेट्रोवस्की ने सारी तैयारियां करने के बाद सर्दी के इंतजार का फैसला किया. उन्हें लगता था कि उनकी फौज के पास सर्दियों में लड़ाई का ज्यादा अच्छा तजुर्बा है, जबकि ब्रिटिश फौज गर्मियों में लड़ाई की अभ्यस्त है. लेकिन उस साल जो सर्दी पड़ी वह अभूतपूर्व थी.
 
इतनी ज्यादा बर्फ गिर गई थी कि सेना के उंटों और घोड़ों के लिए आगेे बढ़ पाना संभव ही नहीं था. इस फौज को बिना एक भी गोली दागे आधे रास्ते से ही लौटना पड़ा.
 
रूस का खतरा तो टल गया लेकिन हिंदुकुश के आस-पास में एक दूसरा खतरा खड़ा हो गया. काबुल से भागने के बाद दोस्त मोहम्मद बुखारा शरण लेने के लिए पहुंच गया था, लेकिन वहां उसे जेल में डाल दिया गया. जल्द ही वह जेल से निकल भागा और हिंदू कुश इलाके में पहुंच कर उसने अपनी सेना तैयार करनी शुरू कर दी.
 
इधर भारत में भी महाराजा रणजीत सिंह का निधन हो गया. भारत के बड़े हिस्से पर काबिज बैठी ईस्ट इंडिया कंपनी और अफगानिस्तान के बीच अब सिर्फ पंजाब ही था जिस पर कब्जे की बात सोची जाने लगी.
 
पहली एंग्लो सिख वार की भूमिका बनने लगी. यह पंजाब ही था जहां से अफगानिस्तान में बैठी ब्रिटिश फौज के लिए हथियार, राशन-पानी और पैसा पहुंचाया जाता था. अफगनिस्तान में रह रही सेना को डर था कि पंजाब लड़ाई में उलझा तो कहीं उनकी यह सप्लाई लाइन ही न कट जाए. 

लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं. यह उनके अपने विचार हैं