गुलाम कादिर
सूरत के दो जिगरी दोस्त – बिपिन देसाई और गुणवंत देसाई – की दोस्ती किसी उपन्यास से कम नहीं. एक ऐसी दोस्ती जो आज़ादी की लड़ाई के मैदान से शुरू हुई और जीवन के अंतिम क्षणों तक साथ चली. यह कहानी केवल दो मित्रों की नहीं, बल्कि एक ऐसी विरासत की है, जो आज चार पीढ़ियों से जीवित है. बिना खून के रिश्ते के भी, खून से बढ़कर.
यह सब शुरू हुआ 1940 में, जब बिपिन और गुणवंत पहली बार सूरत के एक सरकारी स्कूल में मिले. दोनों का घर सागरमपुरा इलाके में था. वे साथ स्कूल जाते, टिफिन साझा करते और अपने सपनों के बारे में बातें करते. उन्होंने कभी नहीं सोचा था कि बचपन की यह दोस्ती एक दिन इतिहास का हिस्सा बन जाएगी.
1942 में महात्मा गांधी द्वारा शुरू किए गए 'भारत छोड़ो आंदोलन' में इन दोनों किशोरों ने सक्रिय भाग लिया. उन्होंने अंग्रेज़ी शासन के खिलाफ पर्चे बांटे, प्रदर्शन किए और जेल भी गए. वे गांधीजी के विचारों से इतने प्रेरित थे कि उनका पहनावा, बोलचाल और जीवनशैली में वही सादगी उतर आई थी.
आज़ादी के बाद दोनों पुणे में कृषि की पढ़ाई करने गए और फिर सूरत लौटकर साथ मिलकर खेती, डेयरी, ठेकेदारी और व्यापार किया. दोनों ने कभी अलग-अलग रहने या काम करने का विचार नहीं किया.
1970 में जब उनके परिवार बड़े होने लगे, तब उन्होंने सूरत के भटार इलाके में एक डुप्लेक्स बंगला बनवाया और उसका नाम रखा ‘मैत्री’. इस घर की बनावट भी उनके रिश्ते की तरह थी. निजी हिस्से अलग, लेकिन साझा जगहें एक, जिससे जीवन का हर सुख-दुख बाँटा जा सके
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उनके बच्चे – गौतम (बिपिन के बेटे) और परिमल (गुणवंत के बेटे) और उनके परिवार आज भी उसी घर में साथ रहते हैं. परिवार के लोग कहते हैं कि बाहर वाले अक्सर समझते हैं कि ये दोनों परिवार आपस में खून के रिश्ते से जुड़े हैं, लेकिन वे जब कहते हैं कि “हम सिर्फ दोस्त हैं, लेकिन एक जैसे हैं”, तो लोग चौंक जाते हैं.
बिपिन और गुणवंत की पत्नियाँ, जानवी और तृप्ति, कहती हैं कि उन्होंने साथ में खाना बनाया, साथ यात्राएं कीं, खरीददारी की और एक-दूसरे के बच्चों को मिलकर पाला. चार पीढ़ियों से यह दोस्ती अब सिर्फ एक रिश्ता नहीं, बल्कि एक जीवनशैली बन चुकी है. जिस बगीचे में बिपिन और गुणवंत कभी बैठकर योजनाएं बनाते थे, आज वहीं उनके परपोते-परपोतियाँ खेलते हैं.
1990 में दोनों दोस्तों ने मिलकर एक सामाजिक संस्था – ‘मैत्री ट्रस्ट’ की स्थापना की और अपनी पूरी संपत्ति दान कर दी. वे मानते थे कि समाज को कुछ लौटाना हर नागरिक का कर्तव्य है. उन्होंने यह भी तय किया था कि मृत्यु के बाद उनका शरीर मेडिकल रिसर्च के लिए दान किया जाएगा.
बिपिन देसाई का निधन अगस्त 2012 में हुआ. केवल नौ महीने बाद गुणवंत देसाई भी चल बसे. जब उनके परिवार वालों ने SMIMER मेडिकल कॉलेज और हॉस्पिटल में गुणवंत का शरीर दान किया, तो वहाँ बिपिन का शरीर भी अब तक मौजूद था. दोनों एक ही कोल्ड स्टोरेज में साथ-साथ रखे गए थे. जीवन की तरह मृत्यु में भी वे साथ थे.
दोनों का जीवन गांधीवादी मूल्यों, सादगी, ईमानदारी और सेवा को समर्पित था. न वे कभी दिखावे में विश्वास करते थे और न ही अलग-अलग होने में. चाहे शादी हो या अंतिम संस्कार, चाहे मंत्री से मिलना हो या एक आम नागरिक से, वे हमेशा सादे खादी के कुर्ते-पायजामे में साथ नज़र आते थे.
आज ‘मैत्री’ केवल एक घर नहीं, बल्कि एक विचार बन चुका है. एक ऐसी साझेदारी का प्रतीक, जो न समय से टूटी, न हालात से डिगी और न ही मृत्यु से रुकी. यह एक जीती-जागती मिसाल है कि दोस्ती अगर सच्चे मन से निभाई जाए, तो वह खून के रिश्तों से भी कहीं ऊपर होती है.
एक ऐसे समय में, जब रिश्ते वॉट्सऐप संदेशों और इंस्टाग्राम स्टोरीज़ में सिमट कर रह गए हैं, बिपिन और गुणवंत की कहानी एक प्रेरणा है. यह हमें याद दिलाती है कि सच्ची दोस्ती वक्त से नहीं बनती, वो साथ जीने और साथ लड़ने से बनती है.
बिपिन देसाई और गुणवंत देसाई का जीवन और उनकी दोस्ती न केवल सूरत शहर के लिए, बल्कि पूरे देश के लिए प्रेरणा है. उनका संबंध हमें बताता है कि आज़ादी सिर्फ राजनीतिक नहीं, व्यक्तिगत भी होती है – और उसका असली अर्थ है साथ रहकर दूसरों की भलाई करना.
श्रद्धांजलि
बिपिन देसाई (1940–2012)
गुणवंत देसाई (1940–2013)
आपकी दोस्ती आज भी जिंदा है, ‘मैत्री’ के हर कोने में, हर पीढ़ी के दिल में.