छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर और उसके आस-पास के क्षेत्रों में जब वायु प्रदूषण की स्थिति चिंताजनक होती जा रही थी, तब एक वैज्ञानिक – डॉ. शम्स परवेज़ – ने न केवल इसके वैज्ञानिक मूल्यांकन की ज़िम्मेदारी उठाई, बल्कि इससे जुड़ी सामाजिक चेतना को भी जाग्रत करने का कार्य किया.डॉ. परवेज़ न केवल एक रसायनशास्त्री हैं, बल्कि एक ऐसे शिक्षाविद और पर्यावरणविद् भी हैं, जो विज्ञान की कठोरता को सामाजिक जिम्मेदारी से जोड़ते हैं.उनका दृष्टिकोण केवल प्रयोगशाला तक सीमित नहीं है. वह समाज को शिक्षित करने, नीतिगत हस्तक्षेपों को आकार देने और वैज्ञानिक जागरूकता को जन-जन तक पहुँचाने में विश्वास करते हैं.आवाज द वाॅयस के ‘द चेंज मेकर्स’ सीरिज के लिए रायपुर से पेश है हमारी सहयोगी मंदाकिनी मिश्रा राय की यह खास रिपोर्ट.
पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय, रायपुर के स्कूल ऑफ स्टडीज़ इन केमिस्ट्री में प्रोफेसर डॉ. परवेज़ बीते तीन दशकों से शिक्षण और अनुसंधान में सक्रिय हैं.उन्होंने बी.एससी., एम.एससी. (भौतिक रसायन विज्ञान) और पीएच.डी. (रासायनिक विज्ञान) इसी विश्वविद्यालय से प्राप्त की और 1992 से शिक्षा और शोध के क्षेत्र में योगदान दे रहे हैं
.इस दौरान उन्होंने न केवल अनगिनत छात्रों का मार्गदर्शन किया है, बल्कि रायपुर और छत्तीसगढ़ के वायुमंडलीय प्रदूषण पर बहुआयामी अध्ययन कर वैज्ञानिक दृष्टिकोण से राज्य की पर्यावरणीय दिशा को प्रभावित किया है.
डॉ. परवेज़ का प्रमुख शोध क्षेत्र वायुमंडलीय रसायन विज्ञान है, जिसमें वे PM2.5 और PM10 जैसे सूक्ष्म कणों, विषैली गैसों और वाष्पशील कार्बनिक यौगिकों के स्रोत, प्रभाव और समाधान पर कार्य करते हैं.उनके शोध से यह स्पष्ट हुआ है कि केवल औद्योगिक गतिविधियाँ ही नहीं, बल्कि धार्मिक और सांस्कृतिक प्रथाएँ भी वायु प्रदूषण में योगदान देती हैं.
उन्होंने दाह संस्कार, त्योहारों के दौरान पटाखों के उपयोग, अगरबत्ती और हवन सामग्री के जलने से उत्पन्न होने वाले प्रदूषकों का सूक्ष्म विश्लेषण किया है, और इनसे होने वाले स्वास्थ्य प्रभावों को उजागर किया है.
डॉ. परवेज़ का मानना है कि अनुसंधान तभी सार्थक है जब उसका प्रत्यक्ष लाभ समाज को मिले.यही कारण है कि वे अपने प्रयोगशाला निष्कर्षों को आम जनता और नीति निर्माताओं के लिए सरल और उपयोगी अंतर्दृष्टि में रूपांतरित करते हैं.
उनके द्वारा किए गए वायु गुणवत्ता अध्ययनों ने छत्तीसगढ़ सरकार को स्थानीय संदर्भों के अनुरूप नीतियाँ तैयार करने में मदद की है.वे पर्यावरण संरक्षण के लिए केवल वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने की वकालत नहीं करते, बल्कि आम लोगों को भी इसमें सहभागी बनाने का प्रयास करते हैं.
वे सार्वजनिक व्याख्यानों, मीडिया लेखों और जन-जागरूकता अभियानों के माध्यम से नागरिकों से अपील करते हैं कि वे धार्मिक एवं सामाजिक जीवन में वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाएँ – जैसे कि विषैली सामग्री को जलाने से बचें, वाहनों की नियमित सर्विसिंग कराएं, और घरों में स्वच्छ हवा बनाए रखें.
उनकी व्यावहारिक सलाहें.जैसे अगरबत्ती के विकल्प के रूप में प्राकृतिक सुगंध का प्रयोग, वर्षा ऋतु में उचित जल निकासी व्यवस्था सुनिश्चित करना, और घरेलू कचरे को खुले में न जलाना – आम नागरिकों को छोटे-छोटे बदलावों के माध्यम से बड़े पर्यावरणीय प्रभावों को नियंत्रित करने की दिशा में प्रेरित करती हैं.
छात्रों के साथ डाॅ शम्स
डॉ. परवेज़ ने अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भी अपनी छवि एक सक्षम वैज्ञानिक के रूप में स्थापित की है.उन्हें 2010 में प्रतिष्ठित यूएस फुलब्राइट रिसर्च फेलोशिप प्राप्त हुई, जिसके तहत उन्होंने अमेरिका के डेजर्ट रिसर्च इंस्टीट्यूट, रेनो, नेवादा में वायु गुणवत्ता पर कार्य किया.इसके अतिरिक्त, वे CSIR रिसर्च एसोसिएटशिप और सीनियर रिसर्च फेलोशिप (1992–1994) प्राप्त कर चुके हैं
.उनका शोध NASA और Chinese Academy of Sciences जैसे वैश्विक संस्थानों के साथ सहयोग में भी प्रकाशित हुआ है, जो उनके कार्य की गुणवत्ता और विश्वसनीयता का प्रमाण है.
डॉ. परवेज़ के कार्यों की एक अन्य विशेषता यह है कि वे ‘स्रोत विभाजन’ (Source Apportionment) पर कार्य करते हैं, जो यह पहचानने में सहायक होता है कि प्रदूषण में किस गतिविधि या स्रोत का कितना योगदान है.चाहे वह औद्योगिक इकाइयाँ हों, घरेलू ईंधन उपयोग, यातायात या धार्मिक अनुष्ठान। यह वैज्ञानिक डेटा नीति निर्माताओं के लिए अत्यंत उपयोगी होता है क्योंकि इससे उन्हें लक्षित हस्तक्षेप विकसित करने में सहायता मिलती है.
उनकी भूमिका एक शिक्षक, शोधकर्ता और जन-जागरूकता अभियानी के रूप में सीमित नहीं है. वह पं. रविशंकर शुक्ल विश्वविद्यालय शिक्षक संघ के अध्यक्ष भी हैं और छत्तीसगढ़ में विश्वविद्यालय संकाय संघों का नेतृत्व भी करते हैं.यह दर्शाता है कि वे न केवल विज्ञान के क्षेत्र में, बल्कि शिक्षा व्यवस्था और शिक्षक हितों की रक्षा में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं.
वह छात्रों से केवल पाठ्यपुस्तकों के ज्ञान को रटने के बजाय प्रयोगशाला में प्रयोग करके सीखने और समस्याओं को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से हल करने की प्रेरणा देते हैं.उनका कहना है कि अनुसंधान निधि जनता के कर से आती है, अतः उसका उपयोग समाज की वास्तविक आवश्यकताओं को समझते हुए किया जाना चाहिए.वह यह मानते हैं कि आज के छात्रों को न केवल वैज्ञानिक कौशल में निपुण होना चाहिए, बल्कि उन्हें सामाजिक रूप से भी उत्तरदायी बनना चाहिए.
प्रयोगशाला में सहकर्मियों को जरूरी बातें समझाते डाॅ शम्स
राज्य योजना आयोग, छत्तीसगढ़ में वे एक सलाहकार सदस्य के रूप में कार्य कर चुके हैं और ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को कम करने से संबंधित पहलों में एक विशेषज्ञ के रूप में शामिल रहे हैं.इसके अलावा, भारत सरकार के विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी मंत्रालय के ANR&F कार्यक्रम के तहत वे तकनीकी कार्यक्रम समिति के सदस्य भी हैं.
डॉ. शम्स परवेज़ का जीवन कार्य इस बात का जीवंत प्रमाण है कि एक वैज्ञानिक कैसे प्रयोगशाला की दीवारों से बाहर निकलकर समाज की भलाई के लिए कार्य कर सकता है.वे दिखाते हैं कि पर्यावरणीय समस्याओं के समाधान केवल तकनीकी नहीं, बल्कि सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टिकोण से भी आवश्यक हैं.छत्तीसगढ़ जैसे राज्य में, जहाँ औद्योगिक और पारंपरिक गतिविधियाँ पर्यावरण पर सीधा प्रभाव डालती हैं, वहाँ डॉ. परवेज़ जैसे वैज्ञानिकों की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो जाती है.
उनका समर्पण, सादगी और दूरदर्शिता उन्हें न केवल छात्रों और सहकर्मियों के बीच आदरणीय बनाती है, बल्कि उन्हें छत्तीसगढ़ में वायु गुणवत्ता और सार्वजनिक स्वास्थ्य के सच्चे प्रहरी के रूप में स्थापित करती है.
डॉ. शम्स परवेज़ हमें यह याद दिलाते हैं कि विज्ञान केवल अनुसंधान पत्रों या प्रयोगों तक सीमित नहीं है. यह एक ज़िम्मेदारी है.एक समर्पण है.जिसे अगर ईमानदारी से निभाया जाए, तो यह समाज को स्वस्थ, जागरूक और टिकाऊ भविष्य की ओर ले जा सकता है.