वाशिंगटन
ईरान के परमाणु ठिकानों पर अमेरिका द्वारा हाल ही में की गई बमबारी के बाद दोनों देशों के बीच लंबे समय से चली आ रही दुश्मनी एक बार फिर नए मोड़ पर पहुंच गई है। यह नया अध्याय शांति का मार्ग खोलेगा या संघर्ष को और भड़काएगा, यह कहना अभी मुश्किल है।
पिछले करीब पचास वर्षों में दुनिया ने अमेरिका और ईरान के रिश्तों में कई उतार-चढ़ाव देखे हैं। जहां ईरान अमेरिका को "सबसे बड़ा शैतान" मानता है, वहीं अमेरिका के लिए ईरान पश्चिम एशिया में अस्थिरता की "मुख्य जड़" है।
हालांकि इस बार अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के बयानों में थोड़ी नरमी देखने को मिली, जब उन्होंने कहा, “ईश्वर ईरान का भला करे।” यह बयान उस समय आया जब ईरान ने कतर स्थित अमेरिकी सैन्य अड्डे पर सीमित जवाबी हमला किया और इजराइल-ईरान युद्ध में अस्थायी युद्धविराम की घोषणा हुई।
हालांकि, अमेरिकी खुफिया रिपोर्टों में यह साफ हुआ है कि जिन तीन ईरानी परमाणु ठिकानों पर हमला हुआ, वे गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त तो हुए हैं, लेकिन पूरी तरह नष्ट नहीं हुए। यह राष्ट्रपति ट्रंप के दावे के विपरीत है कि इन हमलों ने ईरान के परमाणु कार्यक्रम को पूरी तरह तबाह कर दिया है।
राष्ट्रपति ट्रंप ने जब अस्थायी युद्धविराम की घोषणा की, तो इसे एक बड़ी उपलब्धि बताया और ट्विटर पर लिखा, “ईश्वर इजराइल का भला करे। ईश्वर ईरान का भला करे।” साथ ही उन्होंने अमेरिका, पश्चिम एशिया और पूरी दुनिया के लिए शुभकामनाएं दीं।
हालांकि जब यह स्पष्ट हो गया कि संघर्ष पूरी तरह थमा नहीं है, तो उनके बयानों में फिर कठोरता आ गई। ट्रंप ने मीडिया के सामने कहा, “दो देश इतने लंबे समय से और इतनी भीषण लड़ाई लड़ रहे हैं, उन्हें अब तक समझ नहीं आया कि वे क्या कर रहे हैं।”
इस दौरान उन्होंने इजराइल की ओर इशारा करते हुए अप्रत्याशित रूप से आलोचना भी की – यह संकेत देता है कि शायद ट्रंप को लगता है कि ईरान, इजराइल की तुलना में शांति के लिए अधिक इच्छुक है।
इसकी शुरुआत 1953 में ऑपरेशन एजैक्स से होती है। अमेरिका की खुफिया एजेंसी सीआईए और ब्रिटेन की एमआई6 ने मिलकर ईरान की लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकार को गिराया और शाह मोहम्मद रज़ा पहलवी को सत्ता दिलाई। ऐसा इसलिए किया गया क्योंकि पश्चिमी देशों को आशंका थी कि ईरान में सोवियत प्रभाव बढ़ रहा है और उनका तेल उद्योग राष्ट्रीयकृत हो सकता है।
शाह अमेरिका के करीबी सहयोगी बन गए, लेकिन उनका तानाशाही रवैया और पश्चिमी शक्तियों के प्रति झुकाव धीरे-धीरे ईरानी जनता के आक्रोश का कारण बन गया। इसका नतीजा 1979 की इस्लामी क्रांति के रूप में सामने आया, जिसमें शाह को देश छोड़ना पड़ा और धार्मिक नेताओं ने सत्ता संभाल ली।
1979 की क्रांति के बाद अमेरिका विरोधी भावना चरम पर थी। उसी साल नवंबर में ईरानी छात्रों ने तेहरान स्थित अमेरिकी दूतावास पर हमला कर 66 अमेरिकी नागरिकों को बंधक बना लिया, जिनमें से 50 से अधिक को 444 दिनों तक बंदी बनाकर रखा गया।
इस घटना ने अमेरिका को अपमानित किया और तत्कालीन राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने बंधकों को छुड़ाने के लिए ऑपरेशन ईगल क्लॉ नामक सैन्य मिशन शुरू किया, जो तकनीकी विफलताओं और रेतीले तूफान की वजह से असफल रहा। इस हादसे में आठ अमेरिकी सैनिक मारे गए।
1980 में अमेरिका ने ईरान से अपने सभी राजनयिक संबंध तोड़ दिए, जो आज तक पूरी तरह बहाल नहीं हो सके हैं। अंततः, रोनाल्ड रीगन के राष्ट्रपति बनने के कुछ ही समय बाद बंधकों को रिहा किया गया।
नहीं। इससे पहले सबसे बड़ा अमेरिकी हमला 18 अप्रैल 1988 को फारस की खाड़ी में हुआ था। इसे ऑपरेशन प्रेइंग मैन्टिस कहा गया। इसमें अमेरिकी नौसेना ने ईरान के दो युद्धपोत डुबो दिए, एक को क्षतिग्रस्त किया और दो तेल प्लेटफार्म नष्ट किए।
यह जवाबी हमला उस घटना के बाद हुआ, जब ईरान द्वारा बिछाई गई माइन से अमेरिकी युद्धपोत यूएसएस सैमुअल बी रॉबर्ट्स क्षतिग्रस्त हुआ था, जिसमें दस नौसैनिक घायल हुए थे।