काठमांडू
नेपाल में राजनीतिक अनिश्चितता और अफ़वाहों का दौर उस समय और गहरा गया जब राजधानी काठमांडू में आगजनी और हिंसा की ख़बरों ने हालात को और तनावपूर्ण बना दिया। सोशल मीडिया से लेकर भारतीय मीडिया तक में यह कयास लगाए जाने लगे कि राष्ट्रपति रामचंद्र पौडेल ने इस्तीफ़ा दे दिया है और नेपाल फिर से राजशाही या सैन्य शासन की ओर लौट सकता है।
वरिष्ठ पत्रकार किशोर नेपाल का दावा है कि सेना प्रमुख ने राष्ट्रपति पौडेल पर इस्तीफ़े का दबाव बनाया था। यहाँ तक कि पूर्व राजा ज्ञानेंद्र के नारायणहिती शाही महल में लौटने की अटकलें भी जोरों पर थीं। हालांकि राष्ट्रपति ने इस्तीफ़ा देने से इनकार कर दिया और कथित तौर पर कहा, “बेहतर होगा कि आप मुझे मार डालें और इस हत्या का ठीकरा प्रदर्शनकारियों पर फोड़ दें।”
दूसरी ओर, सेना के पूर्व मेजर जनरल बिनोज बसनेत का मानना है कि राष्ट्रपति और सेना प्रमुख ने मिलकर स्थिति को संभाला।
नेपाल के वरिष्ठ पत्रकार कनक मणि दीक्षित का कहना है कि लोकतंत्र की लगभग सभी संस्थाओं पर हमला हुआ, लेकिन शाही महल सुरक्षित रहा। इससे राजशाही की वापसी को लेकर शंकाएँ और गहरी हो गईं।
राजनीतिक विश्लेषक सीके लाल का मानना है कि राष्ट्रपति ने संसद भंग करने का ठीकरा अपने सिर पर लेने के बजाय अंतरिम प्रधानमंत्री की सिफ़ारिश पर ऐसा किया, ताकि सीधे तौर पर उन पर आरोप न लगे।
इस पूरे घटनाक्रम में जेनरेशन-ज़ेड आंदोलन की भूमिका अहम रही। आंदोलनकारियों का कहना है कि वे नागरिक सरकार चाहते थे और सेना से सीधे संवाद करने से उन्होंने इनकार कर दिया। सेना प्रमुख ने कई राजशाही समर्थकों से भी मुलाक़ात की, जिससे आशंकाएँ और बढ़ीं।
राजनीतिक कार्यकर्ता रक्षा बाम और शोधकर्ता इंदिरा अधिकारी का कहना है कि अगर राष्ट्रपति ने साहस नहीं दिखाया होता तो नेपाल या तो सैन्य शासन की ओर चला जाता या फिर राजशाही बहाल हो सकती थी।
काठमांडू के मेयर बालेन शाह की भूमिका भी निर्णायक रही। उन्होंने पूर्व मुख्य न्यायाधीश सुशीला कार्की का नाम अंतरिम प्रधानमंत्री के लिए आगे बढ़ाया, जिसे अंततः स्वीकार कर लिया गया। कार्की की नियुक्ति को राजशाही समर्थकों के लिए बड़ा झटका माना जा रहा है।
हालाँकि, संविधान विशेषज्ञों के मुताबिक यह पूरी प्रक्रिया असंवैधानिक है। नेपाल के संविधान के अनुसार, प्रधानमंत्री बनने के लिए प्रतिनिधि सभा का सदस्य होना अनिवार्य है, जबकि कार्की सांसद नहीं हैं। इसके अलावा, संसद भंग करने का फैसला भी संवैधानिक प्रक्रिया से मेल नहीं खाता।
सुशीला कार्की ने अगले साल 5 मार्च को चुनाव कराने की घोषणा की है, लेकिन राजनीतिक दलों और विशेषज्ञों का कहना है कि मौजूदा हालात में चुनाव समय पर कराना संभव नहीं है। संविधान विशेषज्ञ बिपिन अधिकारी का मानना है कि संविधान को दरकिनार कर लिए गए फ़ैसले खतरनाक मिसाल बन सकते हैं।
नेपाल इस समय लोकतंत्र, सैन्य दबाव और राजशाही की वापसी जैसे तीन विकल्पों के बीच झूल रहा है। आने वाले महीने तय करेंगे कि देश किस दिशा में आगे बढ़ेगा—क्या लोकतंत्र मजबूत होगा, या फिर इतिहास की उलटी दिशा में कदम बढ़ेंगे।