सारा पायलट और लौरा प्रभु फुटबाल से बना रहीं मेवात और अलवर में महिलाओं को सशक्त

Story by  रावी द्विवेदी | Published by  [email protected] | Date 15-02-2022
फुटबॉल से खेल-खेल में बदल डाली रुढ़िवादी सोच, लड़कियों को सिखाया आत्मनिर्भरता का पाठ
फुटबॉल से खेल-खेल में बदल डाली रुढ़िवादी सोच, लड़कियों को सिखाया आत्मनिर्भरता का पाठ

 

रावी द्विवेदी / नई दिल्ली

समाज में कोई भी बदलाव लाना हो तो सबसे पहले लोगों की मानसिकता बदलनी पड़ती है. सवाल रुढ़िवादी सोच बदलने का हो तो इसे बच्चों का खेल नहीं कहा जा सकता. लेकिन यकीन मानिए जामिया, मेवात और अलवर जैसे मुस्लिम बहुल इलाकों में फुटबॉल का खेल इस मानसिकता को बदलने में काफी कारगर साबित हो रहा है. और इस बदलाव में सामाजिक कार्यकर्ता लौरा प्रभु की एक अहम भूमिका है, जो गैर-सरकारी संगठन सीक्विन की सह-संस्थापक भी हैं.

सीक्विन यानी सेंटर फॉर इक्विटी एंड इन्क्लूजन की शुरुआत 2009 में लौरा प्रभु और सारा पायलट ने साथ मिलकर की थी. इससे पहले दोनों ही संयुक्त राष्ट्र से जुड़ी संस्था यूनिफेम के लिए काम करती थीं.

वहां रहते हुए ही उन्हें अहसास हुआ कि समाज सेवा का लाभ सही मायने में लोगों तक पहुंचे, इसके लिए कुछ अलग करना होगा. इसी सोच ने सीक्विन को जन्म दिया, जिसे लौरा अपना तीसरा बच्चा कहती हैं.

लौरा बताती हैं उनका संगठन खासकर मुस्लिम बहुल इलाकों में महिलाओं और लड़कियों को अपने हक की आवाज उठाने और आत्मनिर्भर बनने के लिए प्रेरित कर रहा है ताकि वे एक ऐसे समाज का हिस्सा बन सकें जिसमें वह अपने फैसले खुद कर सकें.

सिर्फ मदद करना ही काफी नहीं

लौरा बताती है कि उन्हें हमेशा से लगता था कि समाज सेवा के नाम पर सिर्फ मदद करना ही काफी नहीं होता, जरूरी यह है कि जो प्रयास किए जा रहे हैं, उनका समाज पर दूरगामी असर पड़े. वह कहती हैं, ‘हम सिर्फ समानता (इक्वैलिटी) की बात नहीं करते बल्कि समान रूप से हिस्सेदारी (इक्विटी) की बात करतें हैं.

यह तभी संभव है जब हम लोगों को समान अवसर मुहैया कराकर सही मायने में आत्मनिर्भर बनाएं.’ इसी सोच के साथ उनके संगठन की तरफ से 2011 में किकस्टार्ट इक्वैलिटी कार्यक्रम शुरू किया गया था.

इसमें जामिया क्षेत्र में गरीब और रुढ़िवादी मुस्लिम परिवारों से आने वाली लड़कियों को फुटबॉल खेलने के लिए प्रेरित किया गया. जब लड़कियों ने फुटबॉल खेलना शुरू किया तो उनमें बहुत ज्यादा झिझक की भावना नजर आती थी. यही नहीं, उनके परिवारवालों को भी यह सब ज्यादा पसंद नहीं आता था.

देखते-देखते एकदम बदल गई सोच

लौरा कहती हैं कि उन्होंने शायद सोचा भी नहीं था कि उनकी पहल इतना गहरा असर डालेगी. इस खेल ने न केवल लड़कियों को गली-मुहल्ले में स्थित पार्कों पर अपना हक जताने को प्रेरित किया बल्कि उनमें आत्मविश्वास भी भर दिया.

उनके रहन-सहन के तरीके, पहनावे के साथ-साथ सोच में आए बदलाव को भी साफ देखा जा सकता है. लौरा के मुताबिक, हमने लड़कियों से कभी ये नहीं कहा कि उन्हें कैसे कपड़े पहनकर फुटबॉल खेलना चाहिए.

पहले तो वे अपना हिजाब या दुपट्टा संभालने को लेकर बहुत चिंतित रहती थीं. धीरे-धीरे झिझक खत्म हुई और उन्होंने खुद कहा कि उन्हें खेल के लिए निर्धारित पोशाक ही पहननी है.

आज स्थिति यह है कि जब क्षेत्र की लड़कियां मुहल्ले के पार्कों में टी-शर्ट और शॉर्ट्स पहनकर खेल रही होती हैं तो उनके परिजन और आस-पड़ोस के लोग भी उन पर गर्व करते हैं. किकस्टार्ट इक्वैलिटी का असर यह हुआ है कि ये लड़कियां आज अपना अच्छा-बुरा समझकर खुद अपने फैसले ले रही हैं.

फुटबॉल से लड़कियों के सपनों को मिली उड़ान

फुटबॉल का यह खेल लड़कियों में आत्मविश्वास बढ़ाने, उन्हें अपने हक की आवाज उठाने का मौका देने के साथ-साथ इस खेल के क्षेत्र में अपना कैरियर बनाने का मौका भी दे रहा है.

इस संदर्भ में वह 2014 में सीक्विन से जुड़ी साईबा का जिक्र करती हैं जिसके पिता के लिए अपनी छोटी-सी दुकान के सहारे छह बच्चों वाला परिवार चलाना काफी मुश्किल था.

साईबा उस समय एक बेहद शर्मीली लड़की हुआ करती थी और फुटबॉल के बारे में कुछ नहीं जानती थी. जब वह किकस्टार्ट इक्वैलिटी प्रोग्राम का हिस्सा बनी तो उसके पिता को यह पसंद नहीं आया.

हालांकि, मां ने पूरा साथ दिया. फुटबॉल के खेल ने न केवल साईबा को आत्मविश्वास से भर दिया, बल्कि उसके घरवालों की सोच को भी बदल दिया. उसे लड़की मानकर अनदेखा कर देने वाले पिता भी घर के मामलों में उसकी राय को अहमियत देने लगे.

साईबा अब डी-लाइसेंस वाली फुटबॉल कोच बन चुकी हैं और सीक्विन के अलावा हिन्दुस्तान एकेडमी, बाईचुंग भूटिया फुटबॉल एकेडमी जैसे संगठनों के साथ जुड़कर फुटबॉल खिलाड़ियों को सिखा रही हैं.

सीक्विन की तरफ से अमेरिका, ब्रिटेन जैसे देशों के विभिन्न फुटबॉल क्लब के साथ मिलकर समय-समय पर लड़कियों के लिए लीडरशिप ट्रेनिंग प्रोग्राम भी चलाए जाते हैं.

इसी का नतीजा है कि साईबा की तरह और भी कई लड़कियां अधिकृत तौर पर फुटबॉल कोच बन चुकी हैं. कुछ सीख रहीं तो कुछ राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय स्तर पर खेल भी रही हैं. इन्हीं में एक नाम दिल्ली की अविका सिंह का भी है जो अंडर-17 इंडियन वुमन टीम की वाइस-कैप्टन रह चुकी हैं.

पहल को अंतरराष्ट्रीय स्तर तक मिल रही पहचान

लौरा बताती हैं कि उनके संगठन ने लड़कियों के लिए फुटबॉल कार्यक्रम की शुरुआत 2011 में जामिया में 25 लड़कियों के साथ की थी. करीब एक दशक के दौरान इस प्रोगाम से जुड़ी लड़कियों की संख्या 24 हजार से ज्यादा हो चुकी हैं.

2014 में दिल्ली में इंटरस्कूल फुटबॉल टूर्नामेंट का आयोजन इस संगठन की पहल का एक अहम पड़ाव रहा. 2018 में नेशनल एलायंस फॉर वुमेन्स फुटबॉल इन इंडिया के गठन में भी सीक्विन की अहम भूमिका रही और यही इसका संयोजक है.

इसकी कोशिशों का ही नतीजा था कि भारत को अंडर-17 फीफा वुमेंस वर्ल्ड कप 2020 की मेजबानी का मौका मिला. हालांकि, यह बात अलग है कि कोविड महामारी के कारण आयोजन नहीं हो पाया.

अब भारत की मेजबानी में अंडर-17 फीफा वुमेंस वर्ल्ड कप का आयोजन इसी साल अक्टूबर में होना है. दिल्ली में पहली बार अंडर-13 स्कूल गर्ल्स फुटबॉल लीग के आयोजन का श्रेय भी इसी संगठन को जाता है.

2019 में इसका आयोजन फुटबॉल दिल्ली स्टेट एसोसिएशन और दिल्ली डायनमोस फुटबॉल क्लब के सहयोग से किया गया था. इसमें 32 टीमों ने हिस्सा लिया जिसमें 10 दिल्ली के सरकारी स्कूलों की थीं, जिनकी ट्रेनिंग की जिम्मेदारी सीक्विन ने संभाली थी.

2019 में संगठन को फिक्की की तरफ से ‘प्रोमोटिंग जेंडर डायवर्सिटी थ्रू फुटबॉल’ अवार्ड और फुटबॉल दिल्ली के फुटबॉल डेवलपमेंट अवार्ड के तहत बेस्ट एनजीओ का दर्जा दिया गया.

आसान नहीं था शुरुआती सफर

लौरा एक तमिल ब्राह्मण पिता और पंजाबी मां की संतान हैं, जिनका बचपन बंगाल में बीता है, जहां उनके पिता की पोस्टिंग थी. उनके पति क्रिश्चियन समुदाय से ताल्लुक रखते हैं.

उन्होंने आगे की पढ़ाई दिल्ली में की और यूनिफेम में काम करने से पहले पत्रकारिता के क्षेत्र में भी काम किया और 2009 में उन्होंने अपने संगठन सीक्विन की बुनियाद रखी.

लौरा बताती हैं कि जब उन्होंने अपना संगठन बनाया तो रोजमर्रा के काम करने के लिए उन लोगों के पास कोई जगह तक नहीं थी. किसी तरह जामिया यूनिवर्सिटी की कैंटीन में थोड़ी जगह मिली. कभी-कभी तो वह और सारा पायलट फील्ड पर जातीं और जहां-तहां फुटपाथ पर बैठकर अपना काम करती रहतीं.

कई बार लोग कहते कि दुनिया की एक नामी संस्था की नौकरी छोड़कर यह सब करने की क्या सूझी थी. लेकिन उनके उत्साह में कोई कमी नहीं आई. वह बताती हैं कि जब जामिया क्षेत्र में काम करना शुरू किया तो लोग उन्हें नजरअंदाज करते थे.

उन्हें लगता था कि उनका संगठन यहां टिकेगा नहीं. उन्होंने घरेलू हिंसा, महिला उत्पीड़न जैसे मुद्दों पर काम करने के साथ समाज में हाशिये पर पड़े तबके के लोगों को पढ़ने-लिखने और उन्हें अपने हक की आवाज उठाने के लिए भी तैयार किया.

रंग लाई मेहनत तो दायरा भी बढ़ाया

फुटबॉल से जुड़ा कार्यक्रम किकस्टार्ट शुरू करने से पहले उनके संगठन ने जामिया क्षेत्र में खुद का थोड़ा स्थापित कर लिया था. वह जिस तबके के बीच काम करती हैं, उनमें भरोसा भी बढ़ा था. जिन लोगों के कल्याण के लिए उन्होंने कार्यक्रम चलाए, वही अब उनके संगठन में काम कर रहे थे.

इसके बाद उन्होंने 2013 में मेवात (हरियाणा) और 2018-19 में अलवर (राजस्थान) के मुस्लिम बहुल इलाकों पर अपना ध्यान केंद्रित किया. लौरा के मुताबिक, वह मेवात में भी लड़कियों के बीच फुटबॉल के खेल को लोकप्रिय बनाने में जुटी हैं.

हालांकि, जामिया की तुलना में यह इलाका थोड़ा ज्यादा रुढ़िवादी है. इसलिए यहां पर लड़कियों को लेकर ज्यादा खुली सोच विकसित करने में अभी थोड़ा वक्त लगेगा. हां, लड़कियों की शिक्षा को लेकर सोच जरूर बदली है और वह इसे एक बेहद सकारात्मक संकेत मानती हैं.