Contribution of eminent educationists and social reformers of the Muslim community in India: An inspiring journey
आवाज द वॉयस/नई दिल्ली
भारत की विविधतापूर्ण सांस्कृतिक और शैक्षिक परंपरा में मुस्लिम समुदाय के कई ऐसे व्यक्तित्व हुए हैं जिन्होंने शिक्षा, समाज सेवा और बौद्धिक नेतृत्व के माध्यम से राष्ट्र की उन्नति में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया है. इन व्यक्तियों की प्रेरक जीवन यात्राएं न केवल मुस्लिम समाज के लिए बल्कि पूरे देश के लिए आदर्श बन गई हैं. नीचे भारत के कुछ ऐसे ही शिक्षाविदों, समाज सुधारकों और इतिहासकारों का परिचय प्रस्तुत है, जिन्होंने अपनी दूरदर्शिता, निष्ठा और समर्पण से शिक्षा और समाज को नई दिशा दी.
खलीक अहमद निज़ामी
खलीक अहमद निज़ामी (5 दिसंबर 1925 – 4 दिसंबर 1997) भारतीय इतिहासकार, धार्मिक विद्वान और राजनयिक थे. उनका जन्म उत्तर प्रदेश के अमरोहा में हुआ था. उन्होंने आगरा विश्वविद्यालय से 1945 में इतिहास में एम.ए. और 1946 में एल.एल.बी. की डिग्री प्राप्त की. 1947 में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) के इतिहास विभाग में प्रोफ़ेसर के रूप में कार्यभार संभाला. वह 1974 में विश्वविद्यालय के कुलपति (अध्यक्ष) भी रहे. 1975 से 1977 तक भारत के सीरिया में राजदूत के रूप में भी कार्य किया. निज़ामी साहब ने मध्यकालीन भारतीय इतिहास, विशेषकर दिल्ली सलतनत और सूफीवाद पर महत्वपूर्ण कार्य किए.
उनकी शोध कार्यों में शाह वलीउल्लाह की राजनीतिक पत्राचार का प्रकाशन भी शामिल है, जिसने भारतीय मुस्लिम इतिहास में उनके योगदान को विस्तारित रूप से प्रस्तुत किया. उनकी स्मृति में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में 'के. ए. निज़ामी केन्द्र क़ुरआनी अध्ययन' की स्थापना की गई है, जो क़ुरआन और इस्लामी अध्ययन के क्षेत्र में शिक्षा और शोध को बढ़ावा देता है.
प्रोफेसर सैयद ऐनुल हसन
प्रो. सैयद ऐनुल हसन एक बहुभाषाविद, साहित्यकार और कुशल प्रशासक हैं। वे मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी (MANUU) के कुलपति के रूप में कार्यरत हैं, जहाँ उनके नेतृत्व में डिजिटल शिक्षा, अकादमिक नवाचार और समावेशी शिक्षण को नई ऊंचाइयां मिलीं. उन्होंने जेएनयू में फारसी और मध्य एशियाई अध्ययन विभाग में प्रोफेसर के रूप में फारसी साहित्य, भारत-ईरान सांस्कृतिक संबंधों और ऐतिहासिक अध्ययनों पर उल्लेखनीय शोध किया है.
उनकी पुस्तकों और अनुवाद कार्यों ने उर्दू, हिंदी और फारसी साहित्य को समृद्ध किया. जनवरी 2025 में भारत सरकार ने उन्हें पद्म श्री से सम्मानित किया, जो उनकी दशकों की शैक्षणिक साधना और भाषाई समर्पण का राष्ट्रीय सम्मान है.
डॉ. ज़हीर आई. काज़ी
डॉ. ज़हीर आई. काज़ी, अंजुमन-ए-इस्लाम के अध्यक्ष हैं – एक ऐसा शैक्षणिक संगठन जो देश भर में 90 से अधिक संस्थानों का संचालन करता है. डॉ. काज़ी ने शिक्षा को सामाजिक न्याय और समुदाय के सशक्तिकरण का माध्यम बनाया. उन्होंने छात्रवृत्तियाँ, व्यावसायिक प्रशिक्षण और गुणवत्तापूर्ण शिक्षा को वंचित समुदायों के लिए सुलभ बनाया.
उनकी दूरदर्शिता के तहत अंजुमन-ए-इस्लाम ने लड़कियों की शिक्षा को विशेष प्रोत्साहन दिया और रोजगारोन्मुखी पाठ्यक्रमों की शुरुआत की. अप्रैल 2024 में उन्हें पद्म श्री से सम्मानित किया गया – यह सम्मान उनके नेतृत्व में हुए शिक्षा-संबंधी क्रांतिकारी परिवर्तनों का प्रमाण है.
मौलाना डॉ. कल्बे सादिक
मौलाना डॉ. कल्बे सादिक एक ऐसे इस्लामी विद्वान थे जिन्होंने धर्म को समाज सुधार और शिक्षा के साथ जोड़ा. तौहीदुल मुस्लिमीन ट्रस्ट के माध्यम से उन्होंने शिक्षा संस्थानों और सहायता केंद्रों की स्थापना की, जहाँ गरीब और वंचित छात्रों को सहायता दी जाती थी.
उन्होंने विशेष रूप से मुस्लिम समुदाय में लड़कियों की शिक्षा को प्राथमिकता दी और धार्मिक कट्टरता के विरुद्ध उदार, वैज्ञानिक सोच को बढ़ावा दिया. उनके विचारों में परंपरा और आधुनिकता का अनूठा संतुलन था। उनके योगदान के लिए भारत सरकार ने उन्हें जनवरी 2021 में मरणोपरांत पद्म भूषण से सम्मानित किया.
सैयद हामिद
सैयद हामिद (28 मार्च 1920 – 29 दिसंबर 2014) भारतीय मुस्लिम समुदाय के एक प्रसिद्ध शिक्षा सुधारक, प्रशासक और समाजसेवी थे. वे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (AMU) के पूर्व उपकुलपति, सिविल सेवक और सच्चर समिति के सदस्य के रूप में अपनी भूमिका के लिए जाने जाते हैं. सैयद हामिद का जन्म उत्तर प्रदेश के फैजाबाद में हुआ था. उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से अंग्रेजी और फारसी में एमए की डिग्री प्राप्त की. 1943 में वे उत्तर प्रदेश सिविल सेवा में चयनित हुए और 1949 में भारतीय प्रशासनिक सेवा (IAS) में शामिल हुए. इसके बाद उन्होंने प्रशासनिक क्षेत्र में कई महत्वपूर्ण पदों पर कार्य किया.
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1980 में वे AMU के उपकुलपति बने और विश्वविद्यालय में अनुशासन तथा अकादमिक सुधारों को लागू किया. उन्होंने विभागाध्यक्षों के लिए कार्यकाल प्रणाली शुरू की और विश्वविद्यालय के प्रशासन को सुदृढ़ किया. 1992 में उन्होंने ‘ऑल इंडिया तालीमी कारवां’ की शुरुआत की, जिसका उद्देश्य भारतीय मुसलमानों में शिक्षा के प्रति जागरूकता फैलाना था. 1993 में उन्होंने दिल्ली में हमदर्द पब्लिक स्कूल की स्थापना की और 1999 में दिल्ली की हमदर्द यूनिवर्सिटी के चांसलर बने। उन्होंने इस विश्वविद्यालय को ‘डीम्ड यूनिवर्सिटी’ का दर्जा दिलवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई.
सैयद हामिद को उनकी शिक्षा और समाज सेवा के लिए कई पुरस्कार प्राप्त हुए, जिनमें संस्कृतिवार्ड, उर्दू अकादमी पुरस्कार, हिंदी अकादमी पुरस्कार और संस्कृति मंत्रालय की राष्ट्रीय फैलोशिप शामिल हैं. उनकी याद में AMU के सीनियर सेकेंडरी स्कूल का नाम ‘सैयद हमीद सीनियर सेकेंडरी स्कूल’ रखा गया और हैदराबाद की मौलाना आज़ाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी की केंद्रीय पुस्तकालय का नाम ‘सैयद हमीद सेंट्रल लाइब्रेरी’ रखा गया. सैयद हामिद का जीवन शिक्षा और सामाजिक उत्थान के प्रति उनकी गहरी प्रतिबद्धता का प्रतीक है, जो आज भी प्रेरणा देता है.
प्रो. मुशीरुल हसन
पद्मश्री प्रोफेसर मुशीरुल हसन न केवल एक प्रसिद्ध इतिहासकार थे, बल्कि उन्होंने एक प्रभावशाली शिक्षाविद, लेखक और समाजचिंतक के रूप में भी अपनी अमिट छाप छोड़ी. बतौर वाइस-चांसलर उन्होंने जामिया मिलिया इस्लामिया को एक साधारण संस्थान से देश के प्रमुख विश्वविद्यालयों की श्रेणी में ला खड़ा किया. उनके कार्यकाल में जामिया का भव्य कायाकल्प हुआ खूबसूरत परिसर, सुसज्जित भवन और प्रेरक शैक्षणिक वातावरण उनके विज़न का परिणाम था. प्रो. हसन का जुड़ाव न केवल अकादमिक दुनिया से था, बल्कि वे सामाजिक और राजनीतिक विमर्शों में भी सक्रिय रहते थे. कई निजी चैनल के मंचों पर उनकी बेबाक उपस्थिति आम थी.
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अंग्रेज़ी और उर्दू दोनों भाषाओं में धाराप्रवाह लेखन और वक्तृत्व उनकी विलक्षणता को दर्शाता था. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से इतिहास में स्नातकोत्तर करने के बाद उन्होंने यूरोप से उच्च शिक्षा प्राप्त की और फिर जामिया से जुड़े. उनके पिता भी जामिया में इतिहास के प्रोफेसर थे, जिससे उनका संबंध इस संस्थान से गहरा था. 2014 में एक गंभीर सड़क हादसे के बाद उनका स्वास्थ्य बिगड़ा, लेकिन उन्होंने संघर्ष करते हुए जीवन जिया। उनकी मृत्यु भारतीय शिक्षा जगत के लिए एक अपूरणीय क्षति है. वे वास्तव में एक चलते-फिरते संस्थान थे.
डॉ. नईमा खातून
अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) के 123 वर्षों के गौरवशाली इतिहास में पहली बार महिला कुलपति के रूप में प्रोफेसर नायमा खातून का चयन एक मिसाल है। शिक्षा मंत्रालय ने राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू की मंजूरी के बाद उनकी नियुक्ति की घोषणा की, जिससे एएमयू देश के उन चुनिंदा केंद्रीय विश्वविद्यालयों में शामिल हो गया है जहाँ महिलाओं ने इस उच्चतम पद पर अपना दबदबा स्थापित किया है.
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प्रो. नायमा खातून ने अगस्त 1988 में एएमयू के मनोविज्ञान विभाग में व्याख्याता के रूप में अपने शैक्षणिक सफर की शुरुआत की। अपनी कड़ी मेहनत और समर्पण से वे एसोसिएट प्रोफेसर, प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष तक पहुंचीं. जुलाई 2014 में उन्हें महिला कॉलेज की प्राचार्य भी नियुक्त किया गया. उनका प्रशासनिक अनुभव भी व्यापक है, जिसमें उन्होंने रेजिडेंशियल कोचिंग अकादमी की उप-निदेशक, उप-प्रॉक्टर और प्रोवोस्ट के पदों पर कार्य किया. उन्होंने रुवांडा के नेशनल यूनिवर्सिटी में भी एक वर्ष तक अध्यापन किया. प्रो. खातून ने राजनीतिक मनोविज्ञान में पीएचडी की है और अपने शोध को विश्व के कई देशों के प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में प्रस्तुत किया है. वे छह पुस्तकों की लेखिका तथा कई राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय शोध पत्रों की लेखिका हैं. उनकी इस उपलब्धि से न केवल एएमयू बल्कि समूचे शैक्षणिक जगत में महिलाओं को नई प्रेरणा मिली है.
प्रोफेसर नजमा अख्तर
नजमा अख्तर (जन्म 1953) एक प्रतिष्ठित भारतीय शिक्षाविद् एवं अकादमिक प्रशासक हैं, जिन्होंने 12 अप्रैल 2019 से 12 नवंबर 2023 तक जामिया मिलिया इस्लामिया (JMI) की पहली महिला कुलपति के रूप में कार्य किया. उन्होंने शिक्षा के क्षेत्र में अपार योगदान दिया और विश्वविद्यालय के इतिहास में अपनी एक महत्वपूर्ण छाप छोड़ी. नजमा अख्तर ने जामिया में मेडिकल कॉलेज स्थापित करने के लिए अथक प्रयास किए, जिसकी प्रक्रिया आज भी उनके द्वारा शुरू की गई है. उन्होंने अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से स्वर्ण पदक प्राप्त किया और राष्ट्रीय विज्ञान प्रतिभा छात्रवृत्ति से सम्मानित रहीं. इसके बाद कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय से शिक्षा में पीएचडी की. उन्होंने यूके के वारविक विश्वविद्यालय में कॉमनवेल्थ फैलोशिप के तहत विश्वविद्यालय प्रशासन का अध्ययन किया और पेरिस के अंतर्राष्ट्रीय शैक्षिक संस्थान में प्रशिक्षण प्राप्त किया.

अख्तर ने राष्ट्रीय शैक्षिक योजना और प्रशासन संस्थान (NUEPA) में 15 वर्षों तक कार्य किया, जहां उन्होंने 130 देशों के वरिष्ठ अधिकारियों के लिए पाठ्यक्रम संचालित किए. वे यूनेस्को, यूनिसेफ और दानिडा की सलाहकार भी रही हैं. उनकी नेतृत्व क्षमता, लैंगिक समानता की प्रबल समर्थक और विविध सांस्कृतिक पृष्ठभूमि की टीमों का सफल नेतृत्व करने वाली नजमा अख्तर को 2022 में पद्मश्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया. 2023 में उन्हें जामिया का मानद "कर्नल कमांडेंट" भी नियुक्त किया गया। उनका जीवन शिक्षा और समर्पण की मिसाल है.
इरफ़ान हबीब: इतिहास लेखन में बौद्धिक क्रांति के जनक
इरफ़ान हबीब (जन्म 1931) एक प्रख्यात इतिहासकार हैं, जिन्होंने भारत के मध्यकालीन इतिहास और कृषि प्रणाली पर गहन शोध किया. उनका प्रसिद्ध ग्रंथ “The Agrarian System of Mughal India” ऐतिहासिक अध्ययन की एक मौलिक कृति है.
वे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में लंबे समय तक प्रोफेसर रहे और भारत में धर्मनिरपेक्ष इतिहास लेखन के प्रमुख स्तंभ बने. उन्होंने “भारत का जनवादी इतिहास” जैसी महत्त्वपूर्ण श्रृंखलाओं का संपादन किया और भारतीय इतिहास को मार्क्सवादी दृष्टिकोण से व्याख्यायित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई.
उबैद सिद्दीकी
उबैद सिद्दीकी (1932–2013) भारतीय जैविक विज्ञान के एक अग्रणी वैज्ञानिक, संस्थान निर्माता और प्रेरणास्त्रोत थे. उन्होंने अपनी शैक्षिक यात्रा की शुरुआत अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय से की और फिर यूनिवर्सिटी ऑफ ग्लासगो से पीएचडी की. पोस्ट-डॉक्टरल शोध के दौरान, उन्होंने ई. कोलाई के एलकलाइन फॉस्फेटेज जीन में उत्परिवर्तन की खोज की, जो बाद में "स्टॉप" कोडोन के सिद्धांत की नींव बनी.
1962 में, होमी भाभा के निमंत्रण पर, सिद्दीकी ने मुंबई स्थित टाटा इंस्टीट्यूट ऑफ फंडामेंटल रिसर्च (TIFR) में आणविक जीवविज्ञान इकाई की स्थापना की। 1970 के दशक में, कैलटेक में सिएमोर बेन्जर के साथ मिलकर, उन्होंने फल मक्खी (Drosophila melanogaster) के तापमान-संवेदनशील पैरालिटिक उत्परिवर्तकों की खोज की, जिससे तंत्रिका संचरण और सिनैप्टिक ट्रांसमिशन की समझ में महत्वपूर्ण योगदान मिला.
1990 के दशक में, उन्होंने बंगलुरु में नेशनल सेंटर फॉर बायोलॉजिकल साइंसेज (NCBS) की सह-स्थापना की और इसके पहले निदेशक बने। यह संस्थान आज भारत में जैविक विज्ञान के उत्कृष्टता केंद्र के रूप में स्थापित है. उबैद सिद्दीकी को उनके योगदान के लिए पद्मभूषण (1984) और पद्मविभूषण (2006) जैसे प्रतिष्ठित नागरिक पुरस्कार प्राप्त हुए. वे रॉयल सोसाइटी, लंदन के सदस्य भी थे. उनकी वैज्ञानिक दृष्टि और संस्थान निर्माण में योगदान ने भारतीय जैविक विज्ञान के परिदृश्य को नया आकार दिया.