संत ज्ञानेश्वर की वाणी 'पसायदान' गाने वाली गायिका शमीमा अख्तर,जिनका है महाराष्ट्र के हिन्दू समाज में बड़ा महत्व

Story by  एटीवी | Published by  [email protected] | Date 04-02-2023
संत ज्ञानेश्वर की वाणी पसायदान गाने वाली गायिका शमीमा अख्तर
संत ज्ञानेश्वर की वाणी पसायदान गाने वाली गायिका शमीमा अख्तर

 

पूजा नायक/ पुणे

भीमा नदी के किनारे, मेरा मायका है पंढरी (पंढरपुर),

मेरे वालिद और वालिदा, है विट्ठल और रखुमाई

महाराष्ट्र के हिन्दू समाज में संतो की वाणी का बड़ा महत्त्व है. इसे गानेवालों को भी समाज में बड़े सम्मान की नज़र से देखा जाता है.मराठी की प्रसिद्ध संतवाणी की इन चन्द पंक्तियों को किसी गानेवाले के मुंह से सुनें तो तत्क्षण सामने नज़र आता है पंढरपुर स्थित विट्ठल मन्दिर की ओर चल पड़ा कोई हिन्दू वारकरी... लेकिन यह घटना तब ऐतिहासिक बन जाती है जब इसे कोई मुस्लिम लड़की गाती है.

धर्म, जाति और प्रांत की सीमाओं को लांघकर यह इतिहास रच रही है कश्मीर की शमीमा अख़्तर. उनके द्वारा गाया गया 'पसायदान' यानी प्रसाद का दान काफी लोकप्रिय रहा और उसे काफी सराहा भी गया. (अंत में पढ़िए पसायदान दुआ और उसका हिंदी अनुवाद)

कौन हैं शमीमा अख्तर

शमीमा मूलतः कश्मीर के बांदीपुरा जिले में स्थित अरागम गांव की रहने वाली हैं. मां-बाप के साथ ही उनके परिवार में पांच बहनें और एक भाई है. शमीमा ने अपनी स्कूली पढ़ाई कश्मीर से ही पूरी की. अगली पढ़ाई के लिए वे उत्तर प्रदेश के लखनऊ आ गईं.

सरहद के माध्यम से आयी पुणे

बीते तीस साल से सीमावर्ती इलाकों में शांति स्थापित करने के लिए काम करनेवाली पुणे स्थित सरहद संस्था की मदद से शमीमा पुणे आईऔर यहीं की होकर रह गई. वह 2017में एक प्रोग्राम के लिए पुणे आयी हुई थी. यहां उनकी मुलाकात सरहद के संस्थापक संजय नहार से हुई. पर अपनी पढ़ाई पूरी करने वह फिर से लखनऊ लौट गई. संगीत विशारद की डिग्री प्राप्त कर 2018में वह फिर से पुणे आई. यहीं 2022में उनकी शादी हुई. और इस शहर को वह अपना दूसरा मायका समझने लगी हैं.

शमीमा अख्तर

संगीत की तरफ रुझान

शमीमा को साहित्य और संगीत विरासत में ही मिला. उनके नाना कवि और वादक थे. वो कश्मीरी वाद्य रबाब बजाते थे. शमीमा के दादा कश्मीर के बड़े सूफी कवि थे. नाना और दादा दोनों कश्मीरी सूफी लाला अरागमी के मुरीद थे. उनकी खाला दूरदर्शन में बतौर गायिका कार्यरत थीं. इस सांगीतिक पृष्ठभूमि की वजह से बचपन से ही संत काव्य और संगीत शमीमा के कानों पर पड़ता रहा. इसलिए संगीत की तरफ उनका रुझान बड़ा ही स्वाभाविक था.

उनके इस रुझान को देखते हुए उनके वालिद ने उन्हें हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत सीखने के लिए श्रीनगर भेजने का फैसला किया. उसके बाद शमीमा ने लखनऊ स्थित भातखण्डे संगीत विद्यापीठ से संगीत विशारद की डिग्री हासिल की.

महाराष्ट्र के संतों की वाणी - अभंगवाणी- गाने का मक़सद

शमीमा द्वारा गायी गई पहली संतवाणी थी पसायदान जिसे संत ज्ञानेश्वर ने लिखा है. धर्म, जाति, प्रांत से ऊपर उठकर उन्होंने यहां सम्पूर्ण मानव जाति के कल्याण की दुआ मांगी थी.

इस कविता को गाने की वजह बताते हुए शमीमा कहती हैं, “यह दुआ किसी व्यक्ति या समाज विशेष के लिए न होकर सम्पूर्ण मानवता के लिए की गई प्रार्थना है. मुझे बचपन से ही हिन्दू-मुस्लिम के परे जाकर खालिस इंसानियत के नाते दुनिया को देखने की सीख मिली थी. वही सीख मुझे संत ज्ञानेश्वर के लिखे इस कलाम में प्रतिबिम्बित होती दिखी. इसलिए मैंने सोचा कि इस वैश्विक प्रार्थना को मराठी तक महदूद न रखते हुए इसे कश्मीर तक पहुंचाया जाए.”

समाज की प्रतिक्रिया

हिन्दू संतों की मानवतावादी रचनाओं को गाने पीछे शमीमा की नेकनीयती थी, वसुधैव कुटुम्बकम को बढ़ावा देनेवाली इस सोच को अपने समाज तक लेके जाने की. लेकिन धर्म, प्रान्त की सीमाओं में अटके हुए लोगों को शमीमा की यह जद्दोजहद पसन्द नहीं आई.

शुरुआत में उन्होंने शमीमा की पुरजोर मुखालफत की. लेकिन शमीमा का परिवार शमीमा के साथ न सिर्फ खड़ा रहा, बल्कि उन्हें प्रोत्साहित भी करता रहा. इस वजह से रिश्तेदारों और समाज के रवैए में नरमी आयी.

अपनी पांच बेटियों को पढ़ाने के लिए शमीमा के वालिद ने पहले ही समाज के विरोध का डटकर मुकाबला किया था. इस बार उन्होंने उसी जज़्बे को दोहराया. लेकिन दूसरी ओर लखनऊ और पुणे में मिले सुखद अनुभवों के बारे में वे बेहद उत्साहित थी.

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कश्मीरियत के बारे में

कश्मीर में हिन्दू-मुस्लिम समन्वय और सद्भावना की एक संस्कृति रही है जो कश्मीरियत के नाम से मशहूर है. शमीमा कहती हैं कि वह कश्मीरी पंडितों के साथ ही पली बढ़ी. वह कहती हैं, “वहां हिन्दू-मुसलमान जैसा कोई भेद कभी नहीं रहा. हिंदुओ से हमारे अच्छि दोस्ती रही. मेरे अब्बू के दोस्त रतनलाल कश्मीरी पंडित थे. हम उन्हें डैडां और उनकी पत्नी को मम्मी कह कर बुलाते थे. उन्होंने ही मेरी पढ़ाई और उच्च शिक्षा के लिए बाहर भेजने को लेकर मेरे अम्मी और अब्बू को मनाया. उन्ही की वजह से मैं आज उच्च शिक्षित हो पाई.”

संगीत और मजहब

शमीम कहती है कि वह विभिन्न धर्मों में मौजूद संतो की वाणी को गाती है. संतो की यह वाणी धर्म और जाति से परे होती है इसलिए इन्हें गाने में उन्हें कोई भी हिचकिचाहट महसूस नहीं होती. उन्होंने मराठी के साथ ही कन्नड़ जैसी भिन्न भाषाओं में भी अभंग गाए हैं.

भविष्य की योजनाएं

अपने भविष्य और सपनों को लेकर शमीमा बड़ी सकारात्मक और उत्साहित हैं. उनमें एक तरह की वैचारिक स्पष्टता नजर आती हैं. आनेवाली पीढ़ी से उन्हें काफी उम्मीदें है. वह नई पीढ़ी को संगीत सिखाना चाहती हैं, नए चीज़ों से ज्ञान से उन्हें वाकिफ कराना चाहती हैं. वह बच्चों को रुबाब भी सिखाना चाहती है जो सातवीं सदी से बजाया जाता है.

शमीमा रुबाब सिखानेवाली एक अकादमी की स्थापना करना चाहती हैं. साथ ही समाज में मौजूद नकारात्मक भावनाओं को खत्म करके उनमे शांति और सौहार्द फैलाने का नेक काम भी करना चाहती हैं.

समाज के लिए संदेश

शमीमा कहती हैं कि समाज में फैले द्वेष और नकारात्मकता को खत्म करने की शुरुआत घर से करनी चाहिए. और मां बाप को बच्चों को बढ़ती उम्र में ही सर्वधर्म समभाव और मानवता की सीख देनी चाहिए.

शमीमा महिलाओं की शिक्षा पर भी जोर देती हैं. औरत चाहे हिजाब में हो या न हो, वह अपने बलबूते पर बहुत कुछ हासिल करने का माद्दा रखती है, और उसके लिए महिलाओं में जागरूकता लाने की जरूरत पर वह जोर देती हैं.

पसायदान

आता विश्वात्मकें देवें. येणे वाग्यज्ञें तोषावें.

तोषोनिं मज ज्ञावे. पसायदान हें॥

जें खळांची व्यंकटी सांडो. तया सत्कर्मी- रती वाढो.

भूतां परस्परे पडो. मैत्र जीवाचें॥

दुरितांचे तिमिर जावो. विश्व स्वधर्म सूर्यें पाहो.

जो जे वांच्छिल तो तें लाहो. प्राणिजात॥

वर्षत सकळ मंगळी. ईश्वरनिष्ठांची मांदियाळी.

अनवरत भूमंडळी. भेटतु भूतां॥

चलां कल्पतरूंचे आरव. चेतना चिंतामणींचें गाव.

बोलते जे अर्णव. पीयूषाचे॥

चंद्र्मे जे अलांछ्न. मार्तंड जे तापहीन.

ते सर्वांही सदा सज्जन. सोयरे होतु॥

किंबहुना सर्व सुखी. पूर्ण होऊनि तिन्हीं लोकी.

भजिजो आदिपुरुखी. अखंडित॥

आणि ग्रंथोपजीविये. विशेषीं लोकीं इयें.

दृष्टादृष्ट विजयें. होआवे जी.

येथ म्हणे श्री विश्वेशराओ. हा होईल दान पसावो.

येणें वरें ज्ञानदेवो. सुखिया जाला॥

shameema akhter

हिंदी अनुवाद

अब विश्वात्म देव (श्री निवृत्तिनाथ) मेरे इस वाक्-यज्ञ से संतोष करें और संतुष्टि से मुझे प्रसाद दान दें. जो खल हैं उनकी वक्रता (कुटिलता) नष्ट हो, सत्कर्म में उनकी रुचि बढ़ जाय, भूत मात्र में पारस्परिक मित्र भाव उत्पन्न हो.

संकटों का अंधेरा नष्ट हो, विश्व स्वधर्म रूपी सूर्य की दृष्टि से देखे. जो प्राणिजात (जीव) जो कुछ भी इच्छा करेगा (स्वधर्म सूर्य की दृष्टि पैदा होने पर किसी की भी इच्छा स्वादिच्छा ही होगी.) वह उसे प्राप्त हो. सब प्रकार के मंगल की वर्षा करने वाले ईश्वर निष्ठों का समूह भूमंडल में सभी भूतों (जीवों) को अनवरत मिलता रहे.

चलने वाले कल्पतरुओं के उद्यान, चेतना रूपी चिंतामणि के गांव, अमृत के बोलने वाले समुद्र, लांछन रहित चंद्र, तापहीन सूर्य ऐसे सज्जन सबके सगे हों अथवा तीनों लोक सर्वप्रकार से पूर्णतः सुखी होकर आदि पुरुष का भजन करते रहें. और वह ग्रंथ जिनके जीवन का प्राण है, वे इहलोक और परलोक के भोगों पर विजय प्राप्त करें. इस पर श्रीनिवृत्तिनाथ (विश्वेरावो) ने कहा, “तुम्हें यह दान प्रसाद / पसायदान प्राप्त होगा." इस वर से ज्ञानदेव सुखी हो गये.