पंजाब में मस्जिदों-मजारों की पूरी श्रद्धा से देखभाल करते हैं सिख और हिंदू

Story by  एटीवी | Published by  onikamaheshwari • 1 Years ago
 गांव बेट की मस्जिद जिसकी देखरेख हिंदू- सिख करते हैं/ बेट के निकटवर्ती गांव चलाना बेट और गांव वेधशाला की मस्जिद परिसर में बना गुरुद्वारा साहिब
गांव बेट की मस्जिद जिसकी देखरेख हिंदू- सिख करते हैं/ बेट के निकटवर्ती गांव चलाना बेट और गांव वेधशाला की मस्जिद परिसर में बना गुरुद्वारा साहिब

 

अमरीक                                                     
 
पंजाब वक्फ बोर्ड का यह आंकड़ा किसी को भी एकबरगी सूबे में (वह कब की जमीन पर) एक हजार से ज्यादा मस्जिदें और करीब 65 हजार दरगाहे हैं। इनमें से अधिकांश गांवों अथवा नीम कस्बों में हैं जिनकी बाकायदा देखरख स्थानीय सिख या हिंदू करते हैं। राज्य में ऐसे लाखों लोग हैं जो वीरवार के दिन इन मस्जिदों और दरगाहों पर मत्था टेकते हैं तथा लंगर, जल और चाय की सेवा करते हैं.

'मलेरकोटला वाले पीर' के नाम पर दरगाहें पंजाब के कोने-कोने में देखी जा सकती हैं. इनकी देखने के लिए बाकायदा संस्थाएं बनी हुईं हैं. इनमें से ज्यादातर के पदाधिकारी गैर मुस्लिम समुदाय के हैं. कई बड़ी दरगाह पर तो सालाना उर्स लगते हैं और बड़ी तादाद में सिख और हिंदू उन में शिरकत करते हैं तथा मन्नतें मांगते हैं.
 
पंजाब वक्फ बोर्ड के पदाधिकारी ने बताया कि बेशुमार मस्जिदों और दरगाहों में हिंदू- सिखों की गहरी आस्था है. 1947 में देश का बंटवारा हुआ तो पंजाब भी दो हिस्सों में बंट गया. हिंदुस्तानी पंजाब को 'चंढ़दा पंजाब' कहा जाता है और पाकिस्तानी पंजाब को 'लहंदा पंजाब'। आज भी दोनों पंजाब की मुख्य भाषा पंजाबी है और जिसे दोनों तरफ एक समान नफासत से बोला जाता है.
 
बंटवारे के वक्त बहुततेरे मुस्लिम परिवार पाकिस्तान चले गए. हिंदू और सिख इधर आ गए. बंटवारे के बाद यहां से गए मुसलमानों की जमीनें और घर या हवेलियां हिजरत करके आए सिखों और हिंदुओं को आवंटित कर दी गईं. तब गठित पंजाब वक्फ बोर्ड को लगता था कि पाकिस्तान से आए हिंदू- सिख विरान मस्जिदों और पीर पैगंबरों की दरगाह को ढहा देंगे.
 
 
लेकिन ऐतिहासिक तथ्य है कि इक्का-दक्का अपवादों को छोड़कर कहीं ऐसा कुछ नहीं हुआ बल्कि गांवों में बनीं मस्जिदों और दरगाहों मैं अचानक आन पसरी विरानी को सिखो और हिंदुओं ने मिलकर दूर किया. रोजमर्रा की सफाई और वीरवार के दिन दीया जलाने की रस्में कायम रहीं. पूरी कहानी बताने के लिए कुछ गांव काफी हैं क्योंकि प्रत्येक गांव और कस्बे की मस्जिदों एवं दरगाहों को एक ही अंदाज, एक ही तरह से और एक जैसे रिवाजों के साथ गुलजार तथा महफूज रखा जाता है.
 
पंजाब के जिला लुधियाना के पास एक गांव है 'बेट'. यहां की मस्जिद 104 साल पुरानी है. 1947 के बंटवारे के वक्त तमाम मुसलमान परिवार हिंदू- सिखों के समझाने के बावजूद गांव छोड़कर पाकिस्तान चले गए थे. गांव के एक बुजुर्ग दौलतरम लगभग 90 साल के हो चले हैं. 47 की यादें उनके दिलो-दिमाग में ताजा हैं.
 
वह बताते हैं कि जब बहुत समझाने पर भी मुसलमान यहां रुकने को राजी नहीं हुए तो उन्हें लुधियाना रेलवे स्टेशन तक छोड़ने पूरा गांव गया था और एक- एक मुसलमान बेट गांव के हर बाशिंदे के गले लग कर रोया था.  उन्होंने बस इतना वादा ग्रामीणों से लिया था कि उनकी मस्जिद को बाहरी लोग आकर तोड़ न दें और वह कभी भी विरान न रहे. दौलतराम के मुताबिक स्थानीय ग्रामीणों ने अपने मुसलमान भाइयों की इस ख्वाहिश पर सदा फूल चढ़ाए.
 
नतीजतन 104 साल से उस मस्जिद की बाकायदा देखभाल की जाती है और आए वीरवार को वहां चिराग जलते हैं. हर उस परंपरा का निर्वाह किया जाता है, जो मुसलमान जाते-जाते बता गए थे. पहले-पहल पड़ोस के ही गांव से एक सज्जन आए और मस्जिद की पूरी देखभाल करने लगे. वह बुजुर्ग थे और मुसलमान थे लेकिन परिवार के साथ पाकिस्तान नहीं गए. बेट गांव की मस्जिद के एक हिस्से को उन्होंने अपना ठिकाना बना लिया.
 
गांव वाले उनसे खूब सहयोग करते थे और खाना वगैरह भी देते थे. जिक्रेखास है कि इसी मस्जिद की दीवार से सटा मंदिर है. उक्त सज्जन जिन्हें सब बाबा कहकर संबोधित करते थे, एक दिन मर गए और मरने से पहले उन्होंने गांव के ही एक बुजुर्ग सिख प्रेम सिंह को बुलाया और मस्जिद संभालने की जिम्मेदारी सौंपी. प्रेम सिंह बताते हैं कि, उन्हें उर्दू नहीं आती। उन सज्जन ने मरने से पहले मुझे कुछ वाक्य याद करवाए जो कुरान शरीफ के हैं.
 
प्रेम सिंह कहते हैं कि है उनकी दिनचर्या का हिस्सा है कि रोज सुबह और शाम तेज आवाज में वह मस्जिद में जाकर उन वाक्यों को पढ़ते हैं. वह खुद को खुशकिस्मत मानते हैं कि उस बाबा ने उन्हें इस पूजा स्थल की सेवा का काम सौंपा। हर वीरवार को मस्जिद में लंगर आयोजित किया जाता है. यही नहीं, प्रतिवर्ष, ग्रामीण वहां एक बड़े मेले का आयोजन करते हैं.
 
 
एक अन्य ग्रामीण मेवा सिंह के अनुसार यह तो एक सेवा है--चाहे किसी गुरुद्वारे में निभाई जाए या मंदिर में या इस मस्जिद में। रब (ईश्वर) एक ही है, बस नाम अलग-अलग हैं. तो गांव बेट अपने आप में एक नजीर है। प्रतिनिधि नजीर। ऐसे न जाने कितने गांव, कितनी मस्जिद है और मजारें हैं. इसी बेट के आसपास दसियों गांव ऐसे हैं जहां एक जैसी वास्तु कला में ढली मस्जिदे और मजारें हैं.
 
चलाना बेट गांव भी इनमें से एक है. यहां भी मस्जिद की देखभाल हिंदू- सिख मिलकर करते हैं. मस्जिद से सटी किसान प्रीतम सिंह की खेतिहर जमीन है. वह कहते हैं कि गांव के किसी बाशिंदे ने कभी भी मस्जिद की जमीन हड़पने की कोशिश नहीं की और जो ऐसा करेगा उसके खिलाफ हम कानूनी कार्रवाई करवाएंगे।  यहां एक और उदाहरण मौंजू है. गांव वेधशाला का। वहां मस्जिद के परिसर में ही गुरुद्वारा बना हुआ है.
 
वहां के अध्यापक निरंजन सिंह कहते हैं, "एक ही जगह पर गुरुद्वारा और मस्जिद होना सांझी संस्कृति का जीता जागता प्रतीक है. अब गांव में एक अन्य जगह गुरुद्वारा बनने जा रहा है लेकिन हम इस मस्जिद की देखभाल जारी रखेंगे." पंजाब के माझा, दोआबा, मालवा इत्यादि किसी भी हिस्से में चले जाइए आपको तमाम जिलों के किसी ना किसी गांव में ऐसे उदाहरण जरूर मिलेंगे.