अनीता
भारत विविधताओं का देश है और इन विविधताओं में सबसे सुंदर अभिव्यक्ति त्योहारों के रूप में दिखाई देती है. बंगाल की धरती पर दुर्गापूजा का त्योहार न केवल धार्मिक आस्था का प्रतीक है, बल्कि यह सामाजिक समरसता, कला-संस्कृति और सांप्रदायिक सौहार्द्र की भी मिसाल है. खासकर ’’कोलकाता की दुर्गापूजा’’ आज वैश्विक स्तर पर अपनी भव्यता और परंपराओं के कारण पहचानी जाती है. यूनेस्को ने 2021 में इसे ‘मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक विरासत’ का दर्जा दिया है. हिंदू त्योहार होने के बावजूद मुस्लिम समाज की भागेदार भी बढ़-चढ़कर देखने को मिलती है.
दुर्गापूजा का इतिहास सैकड़ों वर्षों पुराना है. बंगाल में इसकी शुरुआत 16वीं शताब्दी से मानी जाती है, लेकिन संगठित रूप में यह 18वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में सामने आई. शुरुआत में यह पूजा बड़े जमींदार घरानों (जमींदारी बारोवारी पूजा) तक सीमित थी. धनी घराने अपनी शक्ति और प्रतिष्ठा दिखाने के लिए भव्य पूजा करवाते थे.
1790 के दशक में ‘बारोवारी परंपरा’ यानी सामुदायिक दुर्गापूजा की शुरुआत हुई. इसमें 12 दोस्तों ने मिलकर आम जनता की भागीदारी के साथ पूजा आयोजित की. यह परंपरा आज भी जारी है. 20वीं सदी में जब कोलकाता एक व्यापारिक और सांस्कृतिक केंद्र बना, तब यहां दुर्गापूजा का रूप भव्य और कलात्मक हो गया. बाद में यह पूरे देश और दुनिया में मनाई जाने लगी. इतिहासकार ’’डॉ. पार्थ चटर्जी’’ कहते हैं, “कोलकाता की दुर्गापूजा केवल देवी की आराधना नहीं है, यह बंगाली समाज की सामूहिक चेतना, कला और आधुनिकता का संगम है.”
’महालया’ से ‘सिंदूर खेला तक’
दुर्गापूजा को ’महालया’ से शुरुआत मिलती है, जब भोर में ’महिषासुर मर्दिनी’ का पाठ किया जाता है. इसके बाद सप्तमी, अष्टमी, नवमी और विजयादशमी तक देवी की पूजा होती है. मंत्रोच्चार, ढाक की थाप, धुनुची नृत्य और देवी की प्रतिमा के सामने संधि पूजाकृये सभी परंपराएं बंगाल की आत्मा को दर्शाती हैं. भोग प्रसाद में खिचड़ी, लाबड़ा, पेड़ा और मिठाइयां इस पर्व का खास हिस्सा होती हैं. विजयादशमी के दिन देवी की प्रतिमा का विसर्जन हावड़ा ब्रिज से गुजरते हुए हुगली नदी में होता है, जो भावनात्मक रूप से लोगों को जोड़ता है. इसमें श्रद्धालु विदाई के समय ‘सिंदूर खेला’ करते हैं. इसमें स्त्री-पुरुष आपस में चेहरे और शरीर पर सिंदूर लगाते हैं. सिंदूर से रंगे-पुते लोगों का चेहरा देखते ही बनता है.
पंडाल की थीम क्यों खास होती है?
कोलकाता की दुर्गापूजा का सबसे आकर्षक पहलू पंडाल (अस्थायी मंदिर) की थीमें होती हैं, जो कला और सृजनशीलता का संगम होता है. हर साल सैकड़ों पंडाल किसी न किसी खास थीम पर आधारित होते हैं. कभी यह ऐतिहासिक स्मारक की झलक पेश करते हैं, तो कभी सामाजिक मुद्दों पर आधारित होते हैं. लोकप्रिय थीम्स में स्वच्छता, महिला सशक्तिकरण, पर्यावरण संरक्षण, ग्रामीण जीवन, रामायण-महाभारत की कथाएं इत्यादि शामिल हैं. इसे वैश्विक पहचान मिलने के बाद, इन पंडालों को देखने के लिए दुनिया भर से लोग आते हैं. यही कारण है कि दुर्गापूजा बंगाल की अर्थव्यवस्था को भी मजबूत करती है. कोलकाता के एक पंडाल आयोजक ’’सुब्रत दास’’ बताते हैं, “पंडाल केवल पूजा का स्थल नहीं है, यह एक जीवंत आर्ट गैलरी है. कलाकार महीनों तक मेहनत करके इसे तैयार करते हैं. यही वजह है कि लोग रात-रात भर कतारों में खड़े होकर इसे देखने आते हैं.”
मुस्लिम समाज की भागीदारी
कोलकाता की दुर्गापूजा की सबसे खास बात यह है कि इसमें केवल हिंदू ही नहीं, बल्कि मुस्लिम समाज की भी अहम भागीदारी है. 18वीं सदी से ही कई मुस्लिम कारीगर मूर्तियां बनाने, पंडाल सजाने और ढाक बजाने के काम में सक्रिय हो गए थे. दुर्गापूजा के आयोजन में मुस्लिम जमींदारों और नवाबों ने भी आर्थिक सहयोग दिया. जैसे, कोलकाता की कुम्हारटोली में दुर्गा प्रतिमा बनाने का काम मुस्लिम कलाकार भी करते हैं.पंडाल बनाने वाले बढ़ई और सजावट करने वाले शिल्पकारों में मुस्लिम बड़ी संख्या में शामिल हैं. बंगाल के कई मुस्लिम परिवार पीढ़ियों से ढाक बजाने की परंपरा निभाते आ रहे हैं.
एएनआई से बात करते हुए, इलाके में दुर्गा पूजा के आयोजक और सामाजिक कार्यकर्ता मोहम्मद तौसीफ रहमान ने कहा कि देवी दुर्गा की मूर्ति स्थापित की गई है और हिंदू समुदाय के लोग उचित अनुष्ठान के साथ पूजा करते हैं.
कुम्हारटोली के मुस्लिम मूर्तिकार ’’नूर आलम शेख’’ कहते हैं, “हम बचपन से मिट्टी और देवी मां की प्रतिमा से जुड़े हुए हैं. हमारे लिए यह केवल काम नहीं, बल्कि एक परंपरा है. जब लोग हमारी बनाई प्रतिमा की पूजा करते हैं, तो हमें भी गर्व होता है.” इसी तरह पंडाल निर्माण में जुटे एक मुस्लिम शिल्पकार ’’रहमान मोल्ला’’ बताते हैं, “त्योहार की चहल-पहल, लोगों की खुशी और भाईचारे का माहौल ही हमें साल भर काम करने की प्रेरणा देता है. दुर्गा मां सबकी हैं, सिर्फ हिंदुओं की नहीं.”
कोलकाता विश्वविद्यालय के प्रोफेसर ’’अब्दुल करीम’’ कहते हैं, “दुर्गापूजा यह दिखाती है कि भारतीय संस्कृति कितनी बहुरंगी और समावेशी है. जब मुस्लिम कारीगर देवी की प्रतिमा गढ़ते हैं और हिंदू श्रद्धालु उसकी पूजा करते हैं, तो यह धार्मिक भेदभाव को मिटा देता है.”
आधुनिक प्रभाव
अनुमान है कि पश्चिम बंगाल की अर्थव्यवस्था में दुर्गापूजा से करीब 50,000 करोड़ रुपये का योगदान होता है. देश-विदेश से लाखों लोग कोलकाता आते हैं और पर्यटन का बढ़ावा मिलता है. दुर्गापूजा बंगाली साहित्य, संगीत और सिनेमा के लिए भी प्रेरणा स्रोत है. कोलकाता की दुर्गापूजा केवल एक धार्मिक त्योहार नहीं है, बल्कि यह समाज, संस्कृति और अर्थव्यवस्था का एक विशाल पर्व है. यहां की पंडाल थीमें कला की ऊँचाइयों को छूती हैं और मुस्लिम समाज की भागीदारी इसे गंगा-जमुनी तहजीब की मिसाल बनाती है. यही वजह है कि कोलकाता की दुर्गापूजा न सिर्फ बंगाल या भारत, बल्कि पूरी दुनिया के लिए खास है.