Bihar Assembly Elections: The 1937 Bihar elections, when the seeds of democracy were sown
मंजीत ठाकुर
1937 का वर्ष भारतीय राजनीति में मिल का पत्थर साबित हुआ यह वह दौर था जब पहली बार भले ही सीमित संख्या में सही पर भारतीय मतदाता अपने जनप्रतिनिधियों को चुने निकले थे.
भारत सरकार अधिनियम, 1935 के तहत हुए इन प्रांतीय चुनावों ने ब्रिटिश साम्राज्य के भीतर स्वशासन की कल्पना को जन्म दिया था. बिहार इस प्रयोग की प्रमुख भूमि बना, जहाँ सत्ता, विचारधारा और जनता, तीनों का पहली बार सीधा संवाद हुआ.
प्रांतीय स्वायत्तता का नया अध्याय
भारत सरकार अधिनियम, 1935 के तहत प्रांतों को सीमित स्वायत्तता दी गई थी. केंद्र में तो गवर्नर-जनरल और ब्रिटिश संसद का नियंत्रण बरकरार था, परंतु प्रांतीय स्तर पर भारतीय मंत्रिमंडल बनाने की अनुमति दी गई. बिहार में द्विसदनीय विधानमंडल बना यानी विधानसभा और विधान परिषद. विधानसभा में 152 सदस्य थे.
प्रत्यक्ष रूप से तो ब्रिटिश शासकों का उद्देश्य था, भारतीयों को ‘उत्तरदायी शासन’ का अनुभव देना, किंतु भारतीयों ने इसे राजनीतिक आत्मसम्मान की परीक्षा बना दिया.
चुनाव परिणाम: कांग्रेस की प्रचंड जीत
चुनाव फरवरी, 1937 में हुए थे, जिसमें बिहार की जनता ने स्पष्ट जनादेश दिया था. कांग्रेस ने 152 में से 108 सीटें जीतीं. इनमें से 91 सीटें आम निर्वाचन की थीं. मुस्लिम सीटों पर कांग्रेस की पकड़ अपेक्षाकृत कमजोर रही, परंतु जनता ने उसे एकमात्र जनपक्षीय विकल्प के रूप में स्वीकार किया.
यह सफलता वर्षों से चल रहे स्वतंत्रता आंदोलन और सामाजिक जागरण की परिणति थी. गाँवों और कस्बों तक पहुँची कांग्रेस सेवा समितियों ने पहली बार मतदाताओं को लोकतंत्र की भाषा सिखाई.
श्रीकृष्ण सिंह और डॉ. राजेंद्र प्रसाद: सत्ता का जनपथ
कांग्रेस की इस जीत के केंद्र में दो दिग्गज व्यक्तित्व थेः बाबू श्रीकृष्ण सिंह और डॉ. राजेंद्र प्रसाद.
डॉ. प्रसाद ने संगठन को ग्रामीण भारत में गहराई तक पहुँचाया, जबकि श्रीकृष्ण सिंह ने राजनीतिक रणनीति और प्रशासनिक दृष्टि से कांग्रेस को मजबूत किया. जब ब्रिटिश गवर्नर ने कांग्रेस को सरकार बनाने का आमंत्रण दिया, तो कांग्रेस ने शर्त रखी कि, “राज्यपाल की विवेकाधीन शक्तियाँ सीमित होंगी और मंत्रिमंडल को नीति निर्माण की स्वतंत्रता दी जाएगी.”
कांग्रेस ने शुरू में सत्ता लेने से इनकार किया, लेकिन अंततः जुलाई 1937 में श्रीकृष्ण सिंह के नेतृत्व में मंत्रिमंडल का गठन हुआ.
मोहम्मद युनूस: वैकल्पिक राजनीति की पहली आवाज़
बिहार की राजनीति में इस दौर का एक उल्लेखनीय नाम था, मोहम्मद युनूस. वे एक सफल उद्यमी, समाजसेवी और शिक्षित मुस्लिम समुदाय के प्रतिनिधि थे.
कांग्रेस से अलग रास्ता अपनाते हुए उन्होंने यूनाइटेड पार्टी बनाई और प्रांतीय राजनीति में मुस्लिम हितों के स्वतंत्र प्रतिनिधित्व की माँग उठाई. जब कांग्रेस ने प्रारंभ में सरकार बनाने से इनकार किया, तब गवर्नर ने मोहम्मद युनूस को सरकार बनाने का अवसर दिया.
उन्होंने 1 अप्रैल, 1937 को बिहार के पहले प्रीमियर (प्रधानमंत्री) के रूप में शपथ ली, हालांकि उनकी यह सरकार सिर्फ तीन महीने ही टिक सकी.
कांग्रेस के सत्ता स्वीकार करने के बाद मोहम्मद युनूस ने त्यागपत्र दे दिया, लेकिन उनका यह छोटा कार्यकाल ऐतिहासिक था क्योंकि यह बिहार में पहली प्रांतीय सरकार थी, और वह भी एक मुस्लिम नेता के नेतृत्व में गठित हुई सरकार थी.
उनका यह प्रयास उस दौर में सांप्रदायिक विभाजन से ऊपर उठकर संवैधानिक प्रक्रिया में आस्था का प्रतीक माना गया.
कांग्रेस सरकार की नीतियाँ
श्रीकृष्ण सिंह के नेतृत्व में बनी कांग्रेस सरकार ने अपने सीमित अधिकारों के बावजूद अनेक जनोन्मुखी कदम उठाए. सरकार ने किसानों के लिए लगान में राहत और जमींदारों की मनमानी पर अंकुश लगाया, प्राथमिक व माध्यमिक शिक्षा का विस्तार किया और मजदूरों के लिए न्यूनतम वेतन कानून और श्रम अधिकारों की पहल की.
इन नीतियों से जनता को यह अहसास हुआ कि राज्य अब केवल शासन नहीं, सेवा का माध्यम भी हो सकता है.
राजनीतिक सीमाएँ और विरोध
कांग्रेस सरकार को ब्रिटिश गवर्नर की शक्तियों ने सीमित कर दिया था. इसलिए अगर इस सरकार को पहली शक्तिसंपन्न सरकार भी नहीं कहा जा सकता है. दूसरी तरफ, मुस्लिम लोगों ने प्रतिनिधित्व की कमी पर आपत्ति जाहिर की थी. साथ ही, राजनैतिक परिदृश्य पर अपनी उपस्थिति दर्ज कराने लग गए समाजवादी और कम्युनिस्ट धड़े इसे ‘बुर्जुआ सुधार’ कहकर इन चुनावों की आलोचना की थी.
1939 में जब ब्रिटिशों ने भारत को द्वितीय विश्वयुद्ध में बिना भारतीयों की राय लिए ही 0झोंक दिया, तो कांग्रेस ने विरोध में सभी प्रांतीय मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया. बिहार में भी श्रीकृष्ण सिंह ने पद छोड़ा, लेकिन उनके शासन का अनुभव आगे चलकर आज़ाद भारत की नीति-निर्माण प्रक्रिया की नींव बना.
इन चुनावों को सार्वभौमिक मताधिकार का चुनाव नहीं कहा जा सकता. इस चुनाव में मतदाता सीमित थे, केवल लगभग 10 फीसद आबादी को ही मतदान का अधिकार था, वह भी संपत्ति या शिक्षा के आधार पर. पहली बार महिला उम्मीदवार भी बिहार में 1937 में चुनाव मैदान में उतरीं थीं.
दिलचस्प यह था कि कांग्रेस स्वयंसेवक साइकिल और बैलगाड़ी से गाँव-गाँव जाकर प्रचार करते थे. और बिहार को राजनैतिक रूप से जागरूक राज्य यूं ही नहीं कहा जाता. इन चुनाव अभियान के दौरान ब्रिटिश अफसरों ने रिपोर्ट दी कि ‘गाँवों में राजनीतिक जागरूकता उम्मीद से कहीं अधिक है.’
1937: लोकतंत्र की प्रयोगशाला
1937 का बिहार चुनाव केवल एक राजनीतिक घटना नहीं था, यह भारतीय लोकतंत्र का प्रारंभिक प्रशिक्षण शिविर था. यहाँ पहली बार जनता ने महसूस किया कि शासन उनकी भागीदारी से बन सकता है.
कांग्रेस के लिए यह शासन और आंदोलन के बीच का सेतु था. आजादी के आंदोलन की अगुआ कर रही कांग्रेस ने सीखा कि केवल स्वतंत्रता की माँग काफी नहीं, शासन की जिम्मेदारी भी निभानी होती है.
सल में 1937 का चुनाव वह क्षण था जब जनता ने पहली बार राज्य की बागडोर थामने की कल्पना की, नेताओं ने जवाबदेही का अर्थ समझा और औपनिवेशिक सत्ता ने यह महसूस किया कि भारत शासन योग्य राष्ट्र बन चुका है. मोहम्मद युनूस की अल्पकालिक सरकार और श्रीकृष्ण सिंह की जनोन्मुखी नीतियाँ, दोनों ने भारत के भविष्य की दिशा तय की.
आज जब बिहार और भारत अपने लोकतांत्रिक इतिहास पर गर्व करता है, तो यह याद रखना आवश्यक है कि लोकतंत्र की पहली साँस 1937 के उन्हीं चुनावों में ली गई थी, अंग्रेज़ी हुकूमत के भीतर, लेकिन भारतीय आत्मा की पूरी स्वतंत्रता के साथ.
(लेखक आवाज-द वॉयस के एवी एडिटर हैं)