धर्म नहीं, मानवता: किश्तवाड़ की आपदा में एकजुट हुआ पूरा समाज

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 20-08-2025
Beyond religion, an example of humanity: The story of tragedy and compassion of Kishtwar
Beyond religion, an example of humanity: The story of tragedy and compassion of Kishtwar

 

दानिश अली / श्रीनगर

14 अगस्त की सुबह चिसोती गाँव की हवा में भक्तिभाव, सामुदायिक उल्लास और धार्मिक ऊर्जा गूंज रही थी. किश्तवाड़ के पड्डर इलाके में स्थित यह सौ साल पुराना गाँव मचैल माता यात्रा का अंतिम मोटरेबल पड़ाव है, जहाँ हर साल हज़ारों श्रद्धालु दर्शन के लिए रुकते हैं. सुबह जयकारों और लंगरों की हलचल से गुलज़ार यह गाँव दोपहर तक  चीखों और तबाही के मंजर में तब्दील हो चुका था.

एक विनाशकारी बादल फटने की घटना ने कुछ ही पलों में चिसोती को मलबे का ढेर बना दिया. पानी और पत्थरों की दीवार टूट पड़ी, जिसने रास्ते में आने वाली हर चीज़ को निगल लिया. मंदिर, अस्थायी आश्रय, दुकानें और सैकड़ों ज़िंदगियाँ,सब कुछ चिनाब के उफनते पानी में समा गया. इस भयावह त्रासदी में अब तक 65 से अधिक लोगों की मौत हो चुकी है, जिनमें दो पुजारी भी शामिल हैं, 100 से अधिक घायल हैं और लगभग 70 श्रद्धालु अब भी लापता हैं.

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"हमने भागने की कोशिश की, लेकिन पानी तेज़ था..."

यह शब्द हैं उन हज़ारों तीर्थयात्रियों में से एक के, जो उस दिन वहाँ मौजूद थे. लगभग 2,500 लोगों ने जान बचाने के लिए इधर-उधर दौड़ लगाई. 22 वर्षीय सावंत सिंह ने अपने टूटे हुए घर के मलबे की ओर इशारा करते हुए कहा, “जब बाढ़ आई, माँ और बहन रोटियाँ बेच रही थीं.दोनों बह गईं.”

उनके जैसे सैकड़ों परिवारों के लिए, जो हर साल तीर्थयात्रियों से अपनी रोज़ी-रोटी चलाते थे, यह हादसा सिर्फ़ जीवन यापन का साधन खोने का नहीं, बल्कि अपनों को खोने का दर्द है, जिसे शब्दों में नहीं बांधा जा सकता.

“ऐसा विनाश पहले कभी नहीं देखा”

डोडा ज़िले के 37 वर्षीय उमर इकबाल बचाव अभियान में शामिल थे. उन्होंने बताया, “हमने 63 शव निकाले. गाँव, जो 100 साल से भी ज़्यादा समय से मौजूद था, कुछ ही मिनटों में पूरी तरह तबाह हो गया.”

जम्मू के सरकारी मेडिकल कॉलेज (GMC) अस्पताल के गलियारे घायलों, उनके परिजनों और स्वयंसेवकों से भरे हुए हैं. डॉक्टरों ने बताया कि 75 से अधिक घायलों को भर्ती किया गया, जिनमें से चार की हालत गंभीर बनी हुई है. शवगृह में 11 शव और एक अंग रखा गया, जिन्हें बाद में औपचारिकताओं के बाद परिवारों को सौंपा गया.

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"यह ऐसा दृश्य था, जो किसी को कभी नहीं देखना चाहिए"

43 वर्षीय डॉक्टर मुज्तबा अहमद, जो पहले बचाव दल के साथ गाँव पहुँचे थे, ने गहरी भावुकता के साथ आपदा की भयावहता साझा की. “जब मैं पहुँचा, तो मलबे में दबे शव, टूटी हुई झोपड़ियाँ, रोते-बिलखते परिजन,यह सब देख पाना असहनीय था. मैंने एक भाई को अपनी बहन की लाश ढूंढते देखा. एक पिता को मलबे में अपने बेटे की तलाश करते.”

वे भावुक होकर कहते हैं, “मुझे वहाँ से जाना पड़ा. मैं और नहीं देख सकता था. उन परिवारों की चीखें दिल को चीर रही थीं.” उन्होंने बताया कि मौसम की खराबी से बचाव कार्य में रुकावट आ रही है. यह एक-दो दिन का काम नहीं, बल्कि लंबी प्रक्रिया है.

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मानवता की मिसाल: जब धर्म दीवार नहीं बना

इस त्रासदी में सबसे बड़ी रौशनी बनकर उभरे मुस्लिम स्वयंसेवी समूह जैसे अबाबील और फुरकान वेलफेयर ट्रस्ट, जिन्होंने न सिर्फ़ घायलों की मदद की, पीड़ितों और उनके परिवारों के लिए जीवनरेखा बन गए.

अबाबील के स्वयंसेवक बशीर अहमद ने बताया, “हमने घायलों के लिए रक्तदान किया. भोजन का इंतज़ाम किया. शवों को गाँव तक पहुँचाया.अंतिम संस्कार में भी मदद की. यह धर्म नहीं, मानवता की सेवा का समय है.”

इन समूहों ने अस्पतालों में सामुदायिक रसोई स्थापित कीं. शवों के लिए कफ़न की व्यवस्था की. दूर-दराज़ के गाँवों में रह रहे पीड़ित परिवारों तक पहुँचे. जिस समय ज़रूरत सबसे बड़ी थी, इन हाथों ने मज़हब से परे सेवा की मिसाल कायम की.

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राज्य और सेना की तत्परता

इस आपदा के बाद स्थानीय प्रशासन, सेना, पुलिस, NDRF, SDRF और अन्य बलों ने मिलकर अद्वितीय बहादुरी और तत्परता दिखाई. सेना की 17 राष्ट्रीय राइफल्स ने पहाड़ी इलाके में पुल बनाकर राहत कार्य तेज़ किया. स्थानीय अधिकारी, विशेषकर एआरटीओ तस्लीम, चौबीसों घंटे डटे रहे. उमर इकबाल ने कहा, “प्रशासन और एनजीओ मिलकर ज़बरदस्त काम कर रहे हैं. यह एकजुटता अद्भुत है.”

एक तीर्थयात्रा जो हमेशा याद रहेगी

मचैल माता यात्रा, जो हर साल धार्मिक उत्सव का प्रतीक होती थी, अब शोक और श्रद्धांजलि का केंद्र बन चुकी है. यह तीर्थयात्रा दशकों से जम्मू-कश्मीर के विभिन्न समुदायों को जोड़ती रही है, लेकिन इस बार यह एक अलग अर्थ लेकर आई है—करुणा, एकता और इंसानियत का.

जब मंदिर बह गए, दुकानें मलबे में दब गईं और घाटी में मातम पसरा, तब मज़हबों की दीवारें टूट गईं और केवल एक ही धर्म बचा—मानवता का धर्म.

किश्तवाड़ की यह त्रासदी हमें एक अमिट सबक देती है: आपदा चाहे जितनी भी बड़ी क्यों न हो, अगर मानवता ज़िंदा है, तो उम्मीद की किरण कभी नहीं बुझती.