नफरत के शोर में उम्मीद की आवाज : 2025 में साझा विरासत और भाईचारे का सफर

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  onikamaheshwari | Date 22-12-2025
A voice of hope amidst the noise of hatred: A journey of shared heritage and brotherhood in 2025.
A voice of hope amidst the noise of hatred: A journey of shared heritage and brotherhood in 2025.

 

समीर दि. शेख

साल 2025 अब इतिहास के पन्नों में सीमटने को है। जब आने वाली नस्ल इस साल का लेखा-जोखा देखेंगे तो उन्हें शायद हैडलाइंस में सियासी शोर और दुनिया भर में चल रहे संघर्षों की गूंज सुनाई देगी लेकिन टीवी डिबेट के शोर और सोशल मीडिया के कोलाहल से दूर भारत की जमीन पर एक अलग ही कहानी लिखी जा रही थी यह कहानी उन आम हिंदुस्तानियों की है जिन्होंने नफरत को खारिज कर मोहब्बत को चुना।

आवाज द वॉयस ने साल 2025 में एक मिशन की तरह देश के कोने-कोने से ऐसी कहानियाँ जमा कीं, जो साबित करती हैं कि भारत की गंगा-जमुनी तहज़ीब सिर्फ़ किताबी बातें नहीं, बल्कि आज भी करोड़ों दिलों की धड़कन है। आइये, साल 2025 की डायरी के पन्नों को पलटते हैं और देखते हैं कि कैसे इस मुल्क ने अपनी 'अनेकता में एकता' की कसम को निभाया।
 
आस्था के आंगन में सब एक साथ
 
भारत की रूह को समझना हो तो अजमेर की गलियों और कटक की दरगाहों का रुख करना चाहिए। इस साल दिसंबर की सर्द हवाओं के बीच अजमेर शरीफ दरगाह की विशाल देगों ने दुनिया को एक बड़ा पैगाम दिया। यहाँ पकने वाला लंगर सिर्फ पेट भरने का ज़रिया नहीं, बल्कि बराबरी का एक जीता-जागता सबूत बनकर उभरा। इस लंगर में सहयोग देने वाले, पकाने वाले और कतार में बैठकर खाने वाले—हिन्दू, मुस्लिम, सिख—सब एक थे। वहां किसी का मज़हब नहीं, सिर्फ इंसानियत देखी गई।
 
 
कुछ ऐसी ही बानगी ओडिशा के कटक में देखने को मिली। वहां 400 साल पुरानी बुखारी बाबा की दरगाह पर जब उर्स का मौका आया, तो हिन्दू सेवादारों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। यह भारत की वो रूहानी ताकत है जहाँ एक हिन्दू परिवार दरगाह की चादर संभालता है और एक मुस्लिम फकीर मंदिर की सीढ़ियों पर सुकून पाता है।
 
कर्नाटक के कलाकार सैयद निज़ाम की पेंटिंग्स ने भी इस साल खूब सुर्खियां बटोरीं, जिनके कैनवास पर ओंकार की गूंज और सूफी संतों का फक्कड़पन एक साथ रंगों में ढला नज़र आया। यह बताता है कि हमारा संगीत, हमारी कला और हमारी इबादत के तरीके भले ही अलग हों, लेकिन उनका मक़सद एक ही है।
 
त्यौहारों पर जब टूटी धर्म की दीवारें
 
अक्सर कहा जाता है कि त्यौहार अपने-अपने होते हैं, लेकिन 2025 ने इस भ्रम को भी तोड़ दिया। 30 मार्च का वो दिन शायद ही कोई भूल पाएगा जब ईद के मौके पर एक अद्भुत नज़ारा देखने को मिला। नमाज़ पढ़कर मस्जिद से बाहर निकलते मुस्लिम भाईयों का स्वागत स्थानीय हिन्दुओं ने गुलाब की पंखुड़ियाँ बरसाकर किया। यह फूलों की बारिश इस बात का ऐलान था कि खुशियाँ बांटने से बढ़ती हैं।
 
 
इसी तरह, प्रयागराज के महाकुंभ में, जहाँ आस्था का जनसैलाब उमड़ा था, वहां भी भाईचारे की मिसालें कायम हुईं। स्थानीय मुस्लिम युवाओं ने हिन्दू श्रद्धालुओं के लिए टेंट लगाने से लेकर, उन्हें रास्ता दिखाने और जलपान कराने तक, 'अतिथि देवो भव:' का हर फर्ज निभाया।
 
महाराष्ट्र ने इस साल भाईचारे की एक नई इबारत लिखी। गणेश विसर्जन और ईद-ए-मिलाद-उन-नबी की तारीखें आपस में टकरा रही थीं।
 
आशंका थी कि कहीं कोई तनाव न हो जाए। लेकिन मुस्लिम समाज के ज़िम्मेदार लोगों और उलेमा ने एक ऐतिहासिक फैसला लिया। उन्होंने कहा, "पहले हमारे हिन्दू भाई बप्पा का विसर्जन धूमधाम से कर लें, हम अपना जुलूस बाद में निकालेंगे।" धुले से लेकर मुंबई तक, इस समझदारी ने फिज़ा में मिठास घोल दी। उधर, कश्मीर की वादियों में कुम्हार मोहम्मद उमर चाक पर दीवाली के दीये गढ़ते रहे, यह संदेश देते हुए कि रौशनी का कोई मज़हब नहीं होता।
 
 
मुश्किल घड़ी में परखा गया पड़ोसी धर्म
 
असली रिश्ते खून के नहीं, एहसास के होते हैं और इसकी परख संकट के समय होती है। साल 2025 में जब कुदरत ने कहर बरपाया, तो इंसानियत धर्म की दीवारें लांघकर मदद को दौड़ पड़ी।
 
महाराष्ट्र के कराड में जब बाढ़ का पानी सब कुछ डुबोने पर आमादा था, तब एक दिल छू लेने वाली तस्वीर सामने आई। बाढ़ के तेज़ बहाव में कुछ मुस्लिम युवक अपनी जान की परवाह किए बिना पानी में उतरे और गणपति बप्पा की मूर्ति को सुरक्षित निकालकर लाए। यह एक मूर्ति को बचाना नहीं था, यह एक-दूसरे की भावनाओं और आस्था को बचाने की कोशिश थी। इसी महाराष्ट्र के एक गाँव में मुस्लिम नौजवानोंने अपनी जान जोखिम में डाल हिन्दू पुजारी और उसके पुरे परिवार को मौत के मुंह से बाहर निकाला। 
 
ऐसी ही इंसानियत जम्मू में देखने को मिली। वहां प्रशासन की कार्रवाई में एक मुस्लिम पत्रकार का घर ढहा दिया गया। वह सड़क पर आ गए थे। ऐसे वक्त में जब सब खामोश थे, उनके हिन्दू पड़ोसी ने बड़ा दिल दिखाया। उस हिन्दू परिवार ने अपनी ज़मीन का एक टुकड़ा उस पत्रकार को तोहफे में दे दिया और कहा—"हम तुम्हें बेघर नहीं होने देंगे।" यह घटना किसी भी सियासी भाषण से ज्यादा ताकतवर थी।
 
 
रिश्तों की नई परिभाषाएँ
 
इस साल बिहार के बक्सर से एक ऐसी खबर आई जिसने सबकी आँखें नम कर दीं। जनार्दन सिंह नाम के एक हिन्दू पिता ने अपने जवान बेटे शिवम को खो दिया था। अपने बेटे की याद को अमर करने के लिए उन्होंने किसी मंदिर में नहीं, बल्कि मुस्लिम समाज को कब्रिस्तान के लिए अपनी ज़मीन दान कर दी। उनका मानना था कि मिट्टी में मिलने के बाद सब एक हो जाते हैं।
 
राजस्थान के भीलवाड़ा में भी कुछ ऐसा ही हुआ, जिसने खून के रिश्तों की परिभाषा बदल दी। वहां एक मुस्लिम युवक ने अपनी उस हिन्दू 'माँ' का अंतिम संस्कार पूरे विधि-विधान से किया, जिसने उसे पाला-पोसा था। ये कहानियाँ बताती हैं कि भारत के गांवों और कस्बों में आज भी प्यार, नफरत पर भारी है।
 
 
संवाद और बदलाव की आहट
 
जमीनी स्तर पर ही नहीं, साल 2025 वैचारिक स्तर पर भी बड़े बदलावों का गवाह बना। लखनऊ में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (RSS) के सरसंघचालक मोहन भागवत और देश के शीर्ष मुस्लिम उलेमा व बुद्धिजीवियों के बीच एक ऐतिहासिक संवाद हुआ। 
 
बंद कमरे में हुई इस बातचीत से जो संदेश बाहर आया, वो उम्मीद जगाने वाला था। दोनों पक्षों ने माना कि "अविश्वास की खाई को भरने में वक्त लगेगा, लेकिन बातचीत का सिलसिला टूटना नहीं चाहिए।"
दूसरी तरफ, मस्जिदों और धार्मिक जलसों से भी इस साल अमन की सदाएं बुलंद हुईं। 
 
महाराष्ट्र के अंबाजोगाई में तबलीगी जमात का एक विशाल इज्तेमा हुआ, जिसमें लाखों मुसलमान शरीक हुए। वहां उलेमा ने मंच से लोगों को कसम दिलाई कि "सामाजिक सौहार्द बनाए रखना और दूसरे धर्म के लोगों का सम्मान करना ही सच्चा दीन है।" जमीअत उलेमा-ए-हिन्द के मौलाना अरशद मदनी हों या मौलाना साद, सबने एक सुर में कहा कि हिन्दू-मुस्लिम एकता के बिना भारत की तरक्की मुमकिन नहीं है।
 
हमने अपने ओपिनियन कॉलम में 'मक्का चार्टर' की भी विस्तार से चर्चा की, जिसमें सह-अस्तित्व और बहुलवाद की बात कही गई है। साथ ही हमने ये बताने कि कोशिश की के भारतीय संविधान का 'बंधुत्व' और इस्लाम की शिक्षाएं एक-दूसरे की विरोधी नहीं, बल्कि पूरक हैं।
 
कलम के सिपाही और विरासत के रखवाले
 
साल के आखिर में उन चेहरों को याद करना भी ज़रूरी है जो खामोशी से इस साझा विरासत को सहेज रहे हैं। हमने सैयद सबाहुद्दीन जैसे विद्वानों की कहानी दुनिया को बताई, जो भारत की मिली-जुली संस्कृति के दस्तावेज़ जमा कर रहे हैं ताकि आने वाली नस्लें यह न भूलें कि हम कैसे साथ रहे थे। 
 
कर्नाटक के विद्वान रहमत तारेकेरे का काम सामने आया, जो सूफी और लोक परंपराओं के धागों से कर्नाटक की साझा पहचान बुन रहे हैं। युवा ओवैज़ असलम जैसे लोग इंटरफेथ डायलॉग के ज़रिए नई पीढ़ी के दिलों से शक और सुबहा को मिटाने का काम कर रहे हैं।
 
 
हिंदू-मुस्लिम सद्भाव की कहानियों ने दी सिख- हम अलग हैं, पर जुदा नहीं
 
साल 2025 विदा ले रहा है, लेकिन जाते-जाते यह हमें एक बड़ा सबक देकर जा रहा है। सियासी शोर चाहे कितना भी हो, भारत की रूह आज भी ‘अनेकता में एकता’ के साथ हि 'संवाद और संवेदना' में बसती है। जब एक हिन्दू पड़ोसी मुस्लिम को बचाता है, जब लालबाग के राजा का पर्दा एक मुस्लिम कारीगर सिलता है, और जब ईद की नमाज़ पर हिन्दू भाई फूल बरसाते हैं—तो 'एक भारत, श्रेष्ठ भारत' का सपना हकीकत में बदलता है।
 
आवाज द वॉयस का यह दस्तावेज़ गवाह है कि भारत के डीएनए में नफरत के लिए कोई जगह नहीं है। 2026 की दहलीज पर खड़े होकर हम पूरे यकीन से कह सकते हैं—हम अलग हो सकते हैं, पर हम जुदा नहीं हैं।