जब 1962 में एएमयू ने कांग्रेस को हराया और भावी बसपा की नींव रखी

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 24-04-2024
When AMU defeated Congress in 1962 and laid the foundation of the future BSP
When AMU defeated Congress in 1962 and laid the foundation of the future BSP

 

साकिब सलीम

अगर मैं आपसे कहूं कि 1962 के चुनावों में अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय (एएमयू) के शिक्षकों ने जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व वाली एक मजबूत भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस को हराया था, तो क्या आप मुझ पर विश्वास करेंगे? मैं आपको यह बताकर और भी चौंका दूंगा कि एएमयू के इसी राजनीतिक आंदोलन में बहुजन समाज पार्टी (बसपा) की नींव का पता लगाया जा सकता है.

शिक्षा जगत में छात्र राजनीति अक्सर चर्चा का विषय है,लेकिन शिक्षकों की भूमिका को नजरअंदाज कर दिया जाता है.एक कारण यह हो सकता है कि कॉलेजों और विश्वविद्यालयों के शिक्षकों की भागीदारी शायद ही कभी प्रकट होती है.जब भारत में किसी विश्वविद्यालय के शिक्षक एक राजनीतिक इकाई के रूप में चुनाव लड़ते हैं तो कुछ रुख होते हैं.1962 में AMU के शिक्षकों ने भारत की सत्ताधारी पार्टी को चुनौती दी.

अक्टूबर 1961 में, अलीगढ़ ने अपने इतिहास का अब तक का सबसे घातक हिंदू-मुस्लिम दंगा देखा.आधिकारिक रिपोर्टों के अनुसार,दंगों के दौरान 15 लोग मारे गए, सभी मुसलमान.अनौपचारिक सूत्रों ने मरने वालों की संख्या 40 बताई है.भीड़ एएमयू कैंपस में घुस गई और कैंपस के आसपास की दुकानें भी जला दी गईं. पश्चिम यूपी के मोरादाबाद और मेरठ जैसे अन्य शहरों में भी हिंदू मुस्लिम हिंसा का असर देखा गया.

कांग्रेस उत्तर प्रदेश (यूपी) पर शासन करने के साथ-साथ केंद्र में भी सरकार का नेतृत्व कर रही थी.बेशक उंगलियां प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और मुख्यमंत्री सी.बी.गुप्ता पर उठीं.एएमयू के कानून संकाय के दो शिक्षकों, बी. पी. मौर्य और अब्दुल बशीर खान ने नेतृत्व किया.

बी. पी. मौर्य एएमयू में शिक्षक होने के अलावा एक दलित नेता भी थे.क्रिस्टोफ़ जैफ़रलोट लिखते हैं, "गांधी और अन्य नेताओं के खैर दौरे के बाद वह 1941 में कांग्रेस में शामिल हो गए, लेकिन इसके तुरंत बाद दिल्ली में उनकी मुलाकात अंबेडकर से हुई.

उन्हें एहसास हुआ कि वह 'असली नेता' थे,क्योंकि 'वह हमारी समस्याओं को जानते थे'... उन्होंने कांग्रेस से इस्तीफा दे दिया.1948 में एससीएफ में शामिल हो गए.इसके तुरंत बाद वह अलीगढ़ लौट आए.अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में एल.एससी, एलएलबी और एलएलएम की पढ़ाई पूरी की, जहां वे 1960 में संवैधानिक कानून के सहायक प्रोफेसर बन गए.इस बीच वह सबसे अधिकलोकप्रिय नेता बन गए थे.

उन्होंने 1957 में अलीगढ़ लोकसभा सीट से चुनाव लड़ा और हार गए, लेकिन 1962 में जीते.1960 के दशक की शुरुआत में, मौर्य अलीगढ़ जिले के जाटवों के आदर्श बन गए थे. उनकी प्रसिद्धि और प्रतिष्ठा आसपास के क्षेत्रों में फैल गई थी.वह राष्ट्रीय स्तर के अनुसूचित जाति के राजनीतिक नेता बनने की राह पर थे.''

दंगे के वक्त डॉ. अब्दुल बशीर खान एएमयू के प्रॉक्टर थे.पॉल ब्रास उनके बारे में लिखते हैं, “डॉ. अब्दुल बशीर खान, अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में कानून के प्रोफेसर और विश्वविद्यालय की राजनीति में एक समूह के नेता, जिसे आमतौर पर तथाकथित कम्युनिस्ट समूह के विपरीत "सांप्रदायिक" समूह कहा जाता है.

यह कहना कम अपमानजनक होगा कि डॉ. अब्दुल बशीर एक रूढ़िवादी थे, जो एक मुस्लिम के रूप में अपनी पहचान से जुड़े थे, जो मुस्लिम हितों की रक्षा के लिए खड़े थे, जिसे उन्होंने अक्टूबर के दंगों से खतरे में देखा था, जिसके दौरान वह विश्वविद्यालय के प्रॉक्टर थे.

 ”एक समिति का गठन किया गया और एएमयू शिक्षकों ने पूरे पश्चिमी यूपी में समान विचारधारा वाले राजनेताओं से मुलाकात की.उन्होंने छात्रों की मदद से कांग्रेस विरोधी अभियान शुरू किया.बी. पी. मौर्य पहले से ही रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया (आरपीआई) के सदस्य थे.यह निर्णय लिया गया कि आरपीआई उम्मीदवारों का समर्थन किया जाएगा.कुछ निर्वाचन क्षेत्रों में अन्य उम्मीदवारों, ज्यादातर निर्दलीय, को आरपीआई के माध्यम से समर्थन दिया गया था.

1962 में हुए विधानसभा और लोकसभा चुनाव में आरपीआई ने सबको चौंका दिया. पार्टी ने 3लोकसभा और 8विधानसभा सीटें जीतीं और कई सीटें उसके सहयोगियों ने जीतीं.राजनीतिक स्तर पर अपनी तरह के पहले दलित मुस्लिम गठबंधन में बी. पी. मौर्य ने नारा दिया-"मुस्लिम जाटव भाई भाई, बीच में हिंदू कहां से आई."

बी. पी. मौर्य ने स्वयं अलीगढ़ लोकसभा सीट से सफलतापूर्वक चुनाव लड़ा.उन्होंने सीट जीतने के लिए 73,571 वोट डाले.कांग्रेस उम्मीदवार जर्रार हैदर को तीसरे स्थान पर धकेल दिया.अब्दुल बशीर खान ने आरपीआई उम्मीदवार के रूप में अलीगढ़ विधानसभा सीट से सफलतापूर्वक चुनाव लड़ा.उन्होंने कांग्रेस प्रत्याशी अनंत राम वर्मा को भारी अंतर से हराया. बशीर को कुल वोटों में से 42.70%वोट मिले जबकि वर्मा को 31.50% वोट मिले.

मुस्लिम बहुल और दंगा प्रभावित मोरादाबाद लोकसभा सीट से आरपीआई के मुजफ्फर ने करीब 12 हजार वोटों के अंतर से जीत हासिल की. हाथरस लोकसभा सीट, जो उस समय अलीगढ़ जिले का एक हिस्सा थी, भी आरपीआई के ज्योति सरूप ने जीती थी.

आरपीआई ने पश्चिम यूपी में अमरोहा, बरेली, आगरा, फिरोजाबाद और अन्य मुस्लिम बहुल लोकसभा सीटों पर अच्छा प्रदर्शन किया.1962 के लोकसभा चुनावों के दौरान यूपी में आरपीआई को 4.26% वोट मिले और उसने जिन 22 सीटों पर चुनाव लड़ा था उनमें से 3 पर जीत हासिल की.अन्य निर्वाचन क्षेत्रों में उसके सहयोगियों ने कांग्रेस के वर्चस्व को चुनौती दी.

विधानसभा चुनाव में आरपीआई ने 123 सीटों पर चुनाव लड़ा और 12.32% वोट शेयर के साथ 8 सीटें जीतीं.इसकी सफलता मुस्लिम बहुल वेस्ट यूपी में मिली. महमूद हसन खान ने संभल जीता, हलीमुद्दीन ने मोरादाबाद शहर जीता, पुरूषोत्तम लाल बधवार ने उझानी (बदायूं) जीता, भगवान दास ने फिरोजाबाद जीता, बनवारी लाल ने फतेहाबाद जीता, खेम चंद ने आगरा शहर जीता, अब्दुल बशीर खान ने अलीगढ़ जीता और भूप सिंह ने कोइल जीता.क्षेत्र की लगभग हर विधानसभा सीट पर आरपीआई उम्मीदवार या तो विजेता या उपविजेता रहे.

कई सीटें सहयोगी दलों ने जीतीं. उदाहरण के लिए, अलीगढ़ जिले की इगलास विधानसभा सीट पर ठाकुर शिवधन सिंह ने निर्दलीय उम्मीदवार के रूप में जीत हासिल की थी, जिन्हें एएमयू-आरपीआई समूह का पूरा समर्थन प्राप्त था.बी. पी. मौर्य और अब्दुल बशीर खान ने चुनाव चिन्ह हाथी के साथ आरपीआई की नींव रखी, जिसे बाद में कांशीराम की बसपा ने अपनाया.

मुस्लिम जाटव गठबंधन ने बाद में पश्चिम यूपी में बसपा की राजनीति में उछाल का मार्ग प्रशस्त किया.इस चुनाव ने पश्चिमी यूपी में एक राजनीतिक ताकत के रूप में कांग्रेस का वर्चस्व भी खत्म कर दिया और इसके बाद वह इस झटके से कभी उबर नहीं सकी.