भारतीय संविधान और दलित मुसलमान

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 30-11-2024
Indian Constitution and Dalit Muslims
Indian Constitution and Dalit Muslims

 

अब्दुल्लाह मंसूर

भारतीय संविधान को अक्सर 'अंबेडकर का संविधान' कहा जाता है क्योंकि डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने इसके निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. संविधान सभा की प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में उन्होंने सामाजिक न्याय, समानता और जाति उन्मूलन पर विशेष जोर दिया। उनके प्रयासों से संविधान में मौलिक अधिकार, अस्पृश्यता का उन्मूलन, और आरक्षण जैसी प्रगतिशील नीतियां शामिल की गईं. अंबेडकर की दृष्टि ने संविधान को सामाजिक सुधार के दस्तावेज के रूप में स्थापित किया, जो दलितों और अन्य वंचित समुदायों को सशक्त बनाने का माध्यम बना.

उनके विचारों ने समाज में समान अवसर सुनिश्चित करने की दिशा में ठोस नींव रखी. संविधान बनने के बाद दलितों ने इसे अपने अधिकारों और गरिमा को पुनः स्थापित करने के लिए एक सामाजिक न्याय के एजेंडे के रूप में अपनाया.

हाल ही में केंद्र सरकार ने एक पैनल बनाने की घोषणा की है, जो यह तय करेगा कि मुस्लिम दलित जातियों को अनुसूचित जाति का दर्जा दिया जाए या नहीं. 10 अगस्त 1950 को नेहरू सरकार ने एक अध्यादेश के माध्यम से अनुसूचित जाति की परिभाषा में धार्मिक प्रतिबंध लगा दिया था.

इसके तहत केवल हिंदू दलितों को अनुसूचित जाति के तहत रखा गया, जबकि सिखों और बौद्धों को बाद में इस श्रेणी में शामिल किया गया. लेकिन मुस्लिम और ईसाई दलित अब तक इस आरक्षण से वंचित हैं. समय-समय पर विभिन्न राजनीतिक दलों ने संविधान बचाने का नारा दिया, लेकिन अनुच्छेद 341 के तहत धार्मिक प्रतिबंध के खिलाफ कोई कदम नहीं उठाया.

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इससे यह स्पष्ट होता है कि संविधान की मूल भावना को इन पार्टियों ने नजरअंदाज किया.आरक्षण के अधिकारों को लेकर बहस के दौरान पूना पैक्ट का उल्लेख अक्सर होता है. जब पृथक निर्वाचन मंडल को रद्द करने की मांग उठी, तो गांधी जी आमरण अनशन पर बैठ गए थे. इस मुद्दे पर गांधी और बाबा साहब के बीच एक समझौता हुआ, जिसे पूना पैक्ट कहा गया.

कुछ दलित समूह मानते हैं कि मुस्लिमों ने पृथक निर्वाचन मंडल का लाभ उठाया और बाद में पाकिस्तान के रूप में अपना हिस्सा लेकर चले गए. इसलिए मुस्लिम दलितों को पूना पैक्ट के तहत आरक्षण देना उचित नहीं है. यह तर्क कई बार मुस्लिम लीग के समर्थन के नाम पर खड़ा किया जाता है, लेकिन पसमांदा समुदाय ने कभी भी मुस्लिम लीग या पाकिस्तान का समर्थन नहीं किया.

पसमांदा आंदोलन का इतिहास यह दिखाता है कि विभाजन के समय भी पसमांदा मुसलमान भारत में रहे और उनके दर्द को किसी ने नहीं सुना. विभाजन के समय और आजादी के बाद भी पसमांदा मुसलमानों की मांगें और विरोध अक्सर मुख्यधारा के अशराफ नेतृत्व के प्रभाव में दब गए.

डा. बी.आर. अंबेडकर ने अपनी किताब "पाकिस्तान ऑर द पार्टिशन ऑफ इंडिया" में अरजल मुसलमानों की स्थिति का जिक्र किया और यह स्पष्ट किया कि छुआछूत मुस्लिम समाज में भी मौजूद है. उन्होंने बताया कि नीची जातियों के अधिकांश मुसलमान वही लोग हैं, जो हिंदुओं के निचले सामाजिक तबके से जुड़े थे.

धर्म परिवर्तन ने उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति में कोई बड़ा बदलाव नहीं किया. अंबेडकर मानते थे कि भारत में अछूत का वर्ग, जिसमें हिंदू और मुस्लिम दोनों दलित शामिल हैं, हजारों साल की अमानवीय वर्ण व्यवस्था का परिणाम है.

इस वर्ण व्यवस्था ने समाज को श्रेणीक्रम में बांटा, जिसमें उच्च पदों पर ब्राह्मण और अशराफ वर्ग थे, और निचले पदों पर दलित व शूद्र। इस व्यवस्था ने दलितों को शिक्षा, रोजगार और संपत्ति अर्जन से बाहर रखा. उनके काम पहले से तय थे, और उनकी स्थिति वस्तु की तरह कर दी गई थी. इस वस्तुकरण से निकलने के लिए अंबेडकर ने महसूस किया कि दलितों को समाज के चुनिंदा उच्च पदों पर बैठाना होगा.

अंबेडकर ने शिक्षा, रोजगार और राजनीति में आरक्षण की वकालत की. उनका मानना था कि शिक्षा तर्क का विकास करती है और सही-गलत के बीच भेद करना सिखाती है. शिक्षा से दलितों में जागरूकता और प्रतिरोध की भावना पैदा होगी.

उन्होंने शिक्षा को नौकरी पाने का साधन मात्र नहीं माना, बल्कि इसे सामाजिक अन्याय के खिलाफ प्रतिरोध का माध्यम बताया. अंबेडकर का मानना था कि "शिक्षा वह शेरनी का दूध है, जो इसे पिएगा, वह दहाड़ेगा."

रोजगार में आरक्षण की वकालत करते हुए अंबेडकर ने बताया कि भारत में नौकरियां सिर्फ जीवनयापन का साधन नहीं हैं, बल्कि सामाजिक और आर्थिक पद का भी सूचक हैं. दलितों को अमानवीय कार्यों में लगाए जाने के खिलाफ उन्होंने आरक्षण को एक साधन के रूप में देखा, जिससे वे अधिकारों का उपयोग कर सकें. जब एक दलित उच्च पद पर पहुंचता है, तो उससे आत्मसम्मान और स्वाभिमान बढ़ता है.

राजनीति में आरक्षण को लेकर अंबेडकर का मानना था कि इससे दलितों में राजनीतिक चेतना और निर्णय प्रक्रिया में भागीदारी का विकास होगा. इससे उनके मनोविज्ञान में गुलामी की मानसिकता खत्म होगी और वे निर्णय लेने की शक्ति प्राप्त करेंगे.

अंबेडकर ने आरक्षण को दलितों के सर्वांगीण विकास की प्रक्रिया के रूप में देखा. उनके अनुसार, "एक सफल क्रांति के लिए असंतोष का होना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि न्याय और अधिकारों में गहरी आस्था भी आवश्यक है."
जस्टिस रंगनाथ मिश्रा आयोग की रिपोर्ट ने स्पष्ट किया कि धर्म के आधार पर मुस्लिम और ईसाई दलितों को आरक्षण से वंचित रखना संविधान में समानता के अधिकार के खिलाफ है.

1950 के राष्ट्रपति अध्यादेश ने धर्म के आधार पर भेदभाव को वैध बना दिया, जिससे मुस्लिम और ईसाई दलित आरक्षण के लाभ से बाहर हो गए. संविधान के अनुच्छेद 341 के अनुसार अनुसूचित जातियों और जनजातियों को सूचीबद्ध करने का अधिकार राष्ट्रपति को दिया गया था.

लेकिन इस सूची में मुस्लिम और ईसाई दलितों को शामिल नहीं किया गया. कुछ दलित समूह सवाल करते हैं कि इस्लाम में जाति नहीं है फिर उन्हें कैसे आरक्षण का लाभ मिलना चाहिए तो बौद्ध धर्म और  सिख धर्म भी जाति व्यवस्था को धार्मिक मान्यता नहीं देता तो इन धर्म के दलितों को कैसे आरक्षण मिला हुआ है ?

खालिद अनीस अंसारी लिखते हैं 'धर्म की आध्यात्मिक मान्यताएँ अक्सर कानूनी नियमों और सांस्कृतिक प्रथाओं से भिन्न होती हैं, जो सामाजिक विभाजन को दर्शाती हैं. बीआर अंबेडकर के अनुसार, हिंदू धर्म में समानता का मूल विचार था, लेकिन समय के साथ धर्मों में परिवर्तन आया है.

धर्मों की मान्यताएँ सरकार और अर्थव्यवस्था से प्रभावित होती हैं. यह विचार कि कोई धर्म स्वाभाविक रूप से असमान है, ऐतिहासिक साक्ष्यों के विपरीत है. कई हिंदू सुधारकों ने जाति व्यवस्था का विरोध किया और इसे हिंदू धर्म का हिस्सा नहीं माना. 

मुस्लिम समाज की जाति व्यवस्था भी सामाजिक बहिष्करण का माध्यम रही है. इस्लाम में जाति व्यवस्था के खिलाफ सैद्धांतिक दावा किया जाता है, लेकिन व्यवहार में यह मौजूद है. मौलाना अशराफ अली थानवी जैसे विद्वानों ने जातीय भेदभाव को धार्मिक सिद्धांतों के रूप में स्थापित किया. उच्च जातियों ने सदैव महत्वपूर्ण पदों पर अपना प्रभुत्व बनाए रखा. मुस्लिम समाज भी तीन प्रमुख वर्गों और सैकड़ों बिरादरियों में बंटा है.

उच्च वर्गीय मुसलमान, जिन्हें अशराफ कहा जाता है, सत्ता और समाज के महत्वपूर्ण पदों पर काबिज रहे हैं. वहीं पसमांदा मुसलमान, जो शूद्र और दलित मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करते हैं, समाज के निचले पायदान पर रहे हैं.

पसमांदा मुसलमानों को सामाजिक और आर्थिक भेदभाव का सामना करना पड़ा है. हिंदू धोबियों की तरह मुस्लिम धोबियों के साथ भी भेदभाव होता है. उन्हें अपने मस्जिद अलग बनानी पड़ी. अशराफ वर्ग 341 के मुद्दे को धर्म परिवर्तन से जोड़कर साम्प्रदायिक बनाने की कोशिश करता है, लेकिन छुआछूत के सवाल पर चुप रहता है.

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मुस्लिम समाज में मौजूद छुआछूत के ऊपर प्रशांत के त्रिवेदी, श्रीनिवास गोली, फ़ाहिमुद्दीन और सुरेंद्र कुमार ने अक्टूबर 2014 से अप्रैल 2015 के बीच उत्तर प्रदेश के 14 ज़िलों के 7,000 से ज़्यादा घरों का सर्वेक्षण किया था. जिसे EPW में और साथ ही 'बी.बी.सी हिन्दी' ने 10 मई 2016 को प्रकाशित किया था. उस रिपोर्ट को हूबहू यहां प्रस्तुत किया जा रहा है:---

.दलित मुसलमानों' के एक बड़े हिस्से का कहना है कि उन्हें गैर-दलितों की ओर से शादियों की दावत में निमंत्रण नहीं मिलता. यह संभवतः उनके सामाजिक रूप से अलग-थलग रखे जाने के इतिहास की वजह से है.
• 'दलित मुसलमानों' के एक समूह ने कहा कि उन्हें गैर-दलितों की दावतो में अलग बैठाया जाता है. इसी संख्या के एक और समूह ने कहा कि वह लोग उच्च-जाति के लोगों के खा लेने के बाद ही खाते हैं. बहुत से लोगों ने यह भी कहा कि उन्हें अलग थाली में खाना दिया जाता है.
• करीब 8 फ़ीसदी 'दलित मुसलमानों' ने कहा कि उनके बच्चों को कक्षा में और खाने के दौरान अलग पंक्तियों में बैठाया जाता है.
• कम से कम एक तिहाई ने कहा कि उन्हें उच्च जाति के कब्रिस्तानों में अपने मुर्दे नहीं दफ़नाने दिए जाते. वह या तो उन्हें अलग जगह दफ़नाते हैं या फिर मुख्य कब्रिस्तान के एक कोने में.
• ज़्यादातर मुसलमान एक ही मस्जिद में नमाज़ पढ़ते हैं लेकिन कुछ जगहों पर 'दलित मुसलमानों' को महसूस होता है कि मुख्य मस्जिद में उनसे भेदभाव होता है.
• 'दलित मुसलमानों' के एक उल्लेखनीय तबके ने कहा कि उन्हें ऐसा महसूस होता है कि उनके समुदाय को छोटे काम करने वाला समझा जाता है.
• 'दलित मुसलमानों' से जब उच्च जाति के हिंदू और मुसलमानों के घरों के अंदर अपने अनुभव साझा करने को कहा गया तो करीब 13 फ़ीसदी ने कहा कि उन्हें उच्च जाति के मुसलमानों के घरों में अलग बर्तनों में खाना/पानी दिया गया. उच्च जाति के हिंदू घरों की तुलना में यह अनुपात करीब 46 फ़ीसदी है.
• इसी तरह करीब 20 फ़ीसदी प्रतिभागियों को लगा कि उच्च जाति के मुसलमान उनसे दूरी बनाकर रखते हैं और 25 फ़ीसदी 'दलित मुसलमानों' के साथ को उच्च जाति के हिंदुओं ने ऐसा बर्ताव किया.
• जिन गैर-दलित मुसलमानों से बात की गई उनमें से करीब 27 फ़ीसदी की आबादी में कोई 'दलित मुसलमान' परिवार नहीं रहता था.
• 20 फ़ीसदी ने दलित मुसलमानों के साथ किसी तरह की सामाजिक संबंध होने से इनकार किया. और जो लोग 'दलित मुसलमानों' के घर जाते भी हैं उनमें से 20 फ़ीसदी उनके घरों में बैठते नहीं और 27 फ़ीसदी उनकी दी खाने की कोई चीज़ ग्रहण नहीं करते.
• गैर-दलित मुसलमानों से पूछा गया था कि वह जब कोई दलित मुसलमान उनके घर आता है तो क्या होता है. इस पर 20 फ़ीसदी ने कहा कि कोई 'दलित मुसलमान' उनके घर नहीं आता. और जिनके घऱ 'दलित मुसलमान' आते भी हैं उनमें से कम से कम एक तिहाई ने कहा कि 'दलित मुसलमानों' को उन बर्तनों में खाना नहीं दिया जाता जिन्हें वह आमतौर पर इस्तेमाल करते हैं.

आरक्षण की बहस को केवल एक विशेषाधिकार के रूप में देखना सही नहीं है. यह दलितों और वंचित वर्गों को सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक सशक्तिकरण का एक माध्यम है. इसके जरिए उन अवसरों और संसाधनों तक पहुंच सुनिश्चित होती है, जिनसे सदियों से उन्हें वंचित रखा गया.

पसमांदा मुसलमानों के संदर्भ में, यह सवाल उठता है कि क्यों उन्हें अभी भी आरक्षण का लाभ नहीं मिला, जबकि उनकी सामाजिक-आर्थिक स्थिति किसी भी अन्य वंचित वर्ग से अलग नहीं है.डॉ. अंबेडकर के विचार और पसमांदा आंदोलन इस बात को रेखांकित करते हैं कि भारत में जाति व्यवस्था का प्रभाव केवल हिंदू समाज तक सीमित नहीं है.

धर्म परिवर्तन से सामाजिक-आर्थिक स्थिति नहीं बदलती. सामाजिक समानता और न्याय की दिशा में आगे बढ़ने के लिए पसमांदा मुसलमानों को आरक्षण का लाभ मिलना चाहिए. अंबेडकर की दृष्टि में आरक्षण दलितों के सर्वांगीण विकास और समाज में समानता की स्थापना का महत्वपूर्ण साधन है.

आज पसमांदा मुसलमानों के लिए आरक्षण की मांग केवल सामाजिक समानता का सवाल नहीं है, बल्कि यह उनके लिए एक नई पहचान और सम्मान की लड़ाई भी है. आरक्षण केवल एक नीति नहीं है, यह सामाजिक पुनर्निर्माण का उपकरण है. इसके जरिए न केवल वंचित वर्गों को सशक्त बनाया जा सकता है, बल्कि समाज में समावेशिता और भाईचारे को भी बढ़ावा दिया जा सकता है.

लेखक Pasmanda Democracy YouTube चैनल के संचालक हैं.यह लेखक के विचार हैं.