राजेश / नई दिल्ली
वुड कार्विंग की भारतीय कला काफी समृद्ध है और इस कला को समर्पित हैं पूरा एक खानदान. इस खानदान के मोहम्मद मतलूब विरासत में पूर्वजों से मिली प्राचीन धरोहर वुड क्राफ्ट आर्ट को बचाए रखने की अहम भूमिका निभा रहे हैं. मतलूब के पूर्वज करीब एक हजार साल से इस कलां को संजाते और संवर्द्धन करते आ रहे हैं. इसलिए पीढ़ी दर पीढ़ी उनके परिवार को पुरस्कार मिलते रहे हैं.
मोहम्मद मतलूब का परिवार मूलरूप से उत्तरप्रदेश के नगीना का है, लेकिन वे फिलहाल दिल्ली के जामा मस्जिद इलाके में रहते हैं. मोहम्मद मतलूब बताते है कि वुड क्राफ्ट आर्ट भारत की संस्कृति का अहम हिस्सा है. यूं तो उनके पूर्वजों को राजा महाराजा और नवाबों के जमाने से पुरस्कार मिलते रहे हैं, लेकिन वर्ष 1911 में अंग्रेज शासकों ने उनके पूर्वज अब्दुल खान को इंगलैंड में आमंत्रित कर अवार्ड दिया था.
1965 में प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने उनके दादा अब्दुल रशीद को नेशनल अवार्ड, 1984 में परिवार के वशीर अहमद और 1985 में शब्बीर अहमद को राष्ट्रपति ज्ञानी जैलसिंह ने नेशनल आवार्ड दिया था. उनके ताऊ अब्दुल रहमान को 1975 में राष्ट्रपति फखरुद्दीन अली अहमद ने राष्ट्रीय पुरस्कार दिया था.
मतलूब ने भी अपने पूर्वजों की इस प्राचीन विरासत करने का फैसला किया और उन्होंने जामा मस्जिद निवासी अपने ताऊ अब्दुल रहमान से इस कला का प्रशिक्षण लेना शुरू किया. उसके बाद मतलूब ने पीछे मुड़कर नहीं देखा.
उनके नाम ढेरों इनाम और अवार्ड दर्ज है. इस कला की बदौलत उन्हें 2002 में दिल्ली राज्य पुरस्कार, 2005 में राष्ट्रपति प्रतिभा पाटिल द्वारा नेशनल अवार्ड, 2006 में यूनेस्को एक्सीलेंसी अवार्ड, वर्ष 2014 में सूरजकुंड हस्तशिल्प मेले में राज्यपाल जगन्नाथ पहाडिया द्वारा कलामणी पुरस्कार, सूरजकुंड मेला-2015 में कलारत्न अवार्ड, 2016 में शिल्पगुरू पुरस्कार और 2017 में राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत किया गया था.
वर्ष 2018 में वर्ल्ड क्राफ्ट काउंसिल द्वारा कुवैत में पुरस्कृत किया गया है. इससे पहले वर्ष 2012 में दिल्ली में टैक्सटाइल झांकी निकाली गई थी. झांकी में उन्होंने अपनी कलां का प्रदर्शन करने का मौका मिला और उन्हें दिल्ली सरकार द्वारा सम्मानित किया गया था.
मोहम्मद मतलूब ने बताया कि वुड क्राफ्ट आर्ट में प्राचीनकाल से हाथी दांत और एवनीवुड का इस्तेमाल करके नक्काशी के काम किये जाते थे. इन दोनों चीजों का इस्तेमाल करके फर्नीचर, बॉक्स और विभिन्न तरह के सजावटी आयटम बनाए जाते थे.
1988 में सरकार ने हाथी दांत के इस्तेमाल पर पूरी तरह से प्रतिबंध लगा दिया. इसके बाद वे इन वस्तुओं का निर्माण करने के लिए चंदन वुड, शीशम वुड, टीकवुड और एवनीवुड का इस्तेमाल करने लगे. उसके बाद में महंगी होने के कारण उन्होंने चंदनवुड का इस्तेमाल करना भी बंद कर दिया.
उन्होंने वर्तमान में अन्य लकड़ियों का इस्तेमल कर विभिन्न तरह की वस्तुएं तैयार कर रहे हैं. ये लकड़ियां काफी सख्त होती है, जिससे इन पर आसानी से नक्काशी की जा सकती है.
उन्होंने बताया कि फिलहाल वे फर्नीचर के अलावा पार्टीशन, घरों के मॉडल, शीशा फ्रेम, फोटो फ्रेम, बॉक्स, सजावटी, चीजें और अन्य कई तरह की वस्तुएं तैयार करते हैं.
देश की अनेक प्राचीन कलांएं लुप्त होती जा रही है. देश की प्राचीन धरोहर को बचाए रखना बेहद जरूरी है. इन कलाओं के प्रति सभी को जागरूक करने के लिए कई तरह के प्रयासों की जरूरत है. मोहम्मद मतलूब का कहना है कि उन्होंने वुड क्राफ्ट कलां को सदा जिंदा रखने के लिए कलाकृतियां बनाने के साथ-साथ दिल्ली के विभिन्न स्कूल और कालेजों में जाकर आर्ट एडं क्राफ्ट के विद्यार्थियों को नियमित रूप से प्रशिक्षण देने का काम भी कर रहे हैं.
मोहम्मद मतलूब का मानना है कि विभिन्न तरह की प्राचीन कलाओं को जिंदा रखने के लिए इन्हें स्कूलों के पाठ्क्रम में शामिल करना चाहिए, जिससे इन कलाओं को प्रचार-प्रसार तो होगा ही, साथ ही यह हमेशा जीवित रहेंगी. इसके अलावा इसका सबसे बड़ा फायदा यह होगा कि इससे नए नए शिल्पी तैयार होंगे और कला के कद्रदान भी बढ़ेंगे, जिससे बच्चों को स्कूल से ही कला की अहमियत का पता चल जाएगा. आगे चलकर वे कला के अच्छे खरीदार बन सकेंगे.