अटल-आडवाणी की जोड़ी के रिश्तों में पेचो-खम के किस्से हैं 'जुगलबंदी' में

Story by  मुकुंद मिश्रा | Published by  [email protected] | Date 16-03-2021
विनय सीतापति की किताब 'जुगलबंदीः भाजपा मोदी युग से पहले' का कवर
विनय सीतापति की किताब 'जुगलबंदीः भाजपा मोदी युग से पहले' का कवर

 

मंजीत ठाकुर

कुछ किताबें ऐसी होती हैं जिनको आप एक ही बैठक में भी खत्म कर देना चाहते हैं और कुछ ऐसी, जिसे आपका मन चबा-चबाकर रस ले-लेकर पढ़ने का होता है. विनय सीतापति की किताब दूसरे वर्ग की किताब है. 'जुगलबंदीः भाजपा मोदी युग से पहले' किताब जाहिर तौर पर, मोदी युग से पहले की भाजपा पर आधारित है. किताब के भगवा रंग के कवर पर अटल बिहारी वाजपेयी और लालकृष्ण आडवाणी की जोड़ी की तस्वीर दिखाती है कि दोनों किसी हल्की-फुल्की बातचीत में लगे हैं. पर जैसे ही आप किताब के पिछले कवर को देखते हैं, किताब के सज्जाकार ने तस्वीर कुछ ऐसे संपादित की है कि दोनों एक-दूसरे से रूठे दिखाई देते हैं. और यहीं पर किताब की विषयवस्तु समझ में आ जाती है.

अंग्रेज़ी में यह किताब पहले ही आ गई थी लेकिन नीलम भट्ट और सुबोध मिश्र के अनुवाद में पेंगुइन-हिंद पॉकेट बुक्स से यह किताब हिंदी में हाल में ही आई है.

विनय सीतापति ने इसके पहले 'हाफ लायन' नामक किताब भी लिखी थी और वह पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव की जीवनी थी. वह किताब भी कायल कर देने वाली है पर 'जुगलबंदी' में सीतापति शबाब पर हैं. हालांकि, किताब अनूदित है फिर भी कहीं से भी यह भाषा खटकती नहीं है. ऐसा प्रतीत होता है कि किताब सीधे हिंदी में ही लिखी गई है. इसके लिए अनुवादक-द्वय, नीलम भट्ट और सुबोध मिश्र को साधुवाद. पढ़ते समय आपको कहीं भी, आधी पंक्ति भी गैर-जरूरी नहीं लगेगी और पूरी किताब सिनेमा के रील की तरह चलती चली जाएगी, इसके लिए किताब के अनसंग हीरो और संपादक सुशांत झा का जिक्र जरूर करना चाहिए. उन्होंने अपनी पैनी निगाह आद्योपांत बरकरार रखी है.

बहरहाल, सीतापति के उनके लेखन में सियासी रस भी है और लुटियन जोन के गपोड़बाजी का मसाला भी. उससे भी बड़ी बात कि सीतापति ने दोनों को मिलाने में अनुपात का गजब ख्याल रखा है.

'जुगलबंदी' एक फिल्म की तरह इसलिए भी चलती है कि इसमें तीन धाराओं का आख्यान समांतर बह रहा होता है. एक, अटल बिहारी वाजपेयी का सियासी करियर, दूसरे लालकृष्ण आडवाणी का जीवन और तीसरे उस वक्त की राजनैतिक परिस्थितियां, जिसका तथ्यपरक विश्लेषण भी है.

इन परिस्थितियों के बीच हिंदुस्तान की राजनीति और खासकर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सरपरस्ती में दोनों के लम्बे राजनैतिक रिश्तों के फलने-फूलने की कहानी तो है ही, दोनों के निजी जीवन की भी झलकियां है. यह किताब अटल और आडवाणी की जोड़ी के बहाने भारतीय दक्षिणपंथी राजनीति के उतार-चढ़ाव को दर्ज करने वाला एकतरह का इतिहास ही है.

राजनैतिक किताबों के साथ एक दिक्कत यह भी होती है कि उनमें तथ्यों के नीरस और बोझिल ब्योरे होते हैं. जुगलबंदी इस मामले में अलग है. इसमें हिंदुस्तानी राजनीति की खिचड़ी के साथ अटल-आडवाणी की जोड़ी में कमला आडवाणी और राजकुमारी कौल की भूमिका को भी रेखांकित किया गया है. वैसे, कम ही किताबें है जिनमें वाजपेयी के जीवन पर कौल के असर को इतने बारीक ब्योरों के साथ लिखा गया होगा.

सीतापति कुछ चीजें ऐसी लिखते हैं, जिसका जिक्र कुछ लोगों के लिए नई बात होगी. मसलन, सीतापति ने किताब में दावा किया है कि कांग्रेस ऐसी पहली राजनैतिक पार्टी थी, जिसने 1983 में उत्तर प्रदेश के मुजफ्फरनगर शहर में विश्व हिंदू परिषद (विहिप) द्वारा आयोजित हिंदू सम्मेलन में अयोध्या आंदोलन को ‘प्रोत्साहित’ किया था. वह लिखते हैं, यह महज संयोग नहीं था कि कांग्रेस के दो पूर्व मंत्री दाऊ दयाल खन्ना और गुलजारीलाल नंदा इस सम्मेलन में उपस्थित थे.'

असल में इस किताब को इस कोण से देखना भी उचित होगा कि यह बताती है कि भारत की आज की राजनैतिक व्यवस्था में नरेंद्र मोदी का वर्चस्व आखिर कायम कैसे हुआ. किताब के तीसरे खंड ‘सत्ता’ में ही अपने अध्यायों में सीतापति मोदी के आविर्भाव की पृष्ठभूमि रखना शुरू कर देते हैं.

पर इस किताब के कुछ और भी टेक अवे हैं, जिन पर अटल-आडवाणी और मोदी-शाह की जोड़ियों और जुगलबंदियों से परे देखा जाना चाहिए. मसलन, यह किताब भाजपा को इसके संगठन और विचारधारा के साथ इसके नेताओं, घटनाओं और प्रासंगिकताओं के जरिए भी व्याख्यायित करने की कोशिश की गई है. साथ ही, हिंदू राष्ट्रवाद की भी नए कोण से व्याख्या की गई है. यह किताब हिंदू राष्ट्रवाद को धार्मिक राष्ट्रवाद की बजाए नस्लीय राष्ट्रवाद के रूप में स्थापित करने की कोशिश करती है.

पहले ही अध्याय में किताब यह कहती है कि राष्ट्रवाद को 'जन' और 'क्षेत्र' के सिद्धांत के साथ 'राजनीति' की अवधारणा की भी जरूरत होती है, यानी एक राज्य या मातृभूमि. सीतापति लिखते हैं कि हिंदू राष्ट्रवाद की रचना औपनिवेशिक शासन ने नहीं बल्कि आधुनिक प्रतिनिधिक लोकतंत्र ने की है.

शायद यह किताब एक और अकादमिक बहस में मदद कर सके कि आखिर भाजपा चुनाव क्यों जीतती है? यह किताब इस विमर्श में मदद कर सकती है कि आखिर 1980 के दशक के पूर्वार्ध में भाजपा ने हिंदू व्यग्रताओं को वाजपेयी के नेतृत्व में कोई स्वर नहीं दिया था. यह किताब कहती है कि हिंदू वोटों के लिए कांग्रेस के राजनैतिक दांव-पेचो के बाद भाजपा ने राम मंदिर का मुद्दा पकड़ा और फिर उसे वोटों में तब्दील करने में कामयाब रही.

इस किताब में सीतापति ने शशि थरूर को भाजपा के बारे में उद्धृत किया है जो कहते हैं कि “संघ एक फेविकोल है, जो भाजपा को जोड़े रखता है.”

इस किताब जुगलबंदी में अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी के आपसी रिश्तों से लेकर कई सारी दिलचस्प कहानियां हैं, जो एक उपन्यास की तरह पाठक को बांधे रखती हैं. यह किताब भाजपा के समर्थक चाहे पढ़े न पढ़ें, पर उसके राजनैतिक विरोधियों को यह जरूर पढ़नी चाहिए.

किताबः जुगलबंदी (भाजपा मोदी युग से पहले)

लेखकः विनय सीतापति

प्रकाशकः पेंगुइन-हिंद पॉकेट बुक्स

कीमतः 350 रुपए