होली विशेषः लखनऊ एक शहर जहां होली भी मोहब्बत की मिसाल है

Story by  एटीवी | Published by  [email protected] | Date 17-03-2022
तहजीब के शहर लखनऊ में होली खेलती हिंदू और मुस्लिम महिलाएं
तहजीब के शहर लखनऊ में होली खेलती हिंदू और मुस्लिम महिलाएं

 

काविश अजीज/ लखनऊ

लखनऊ सिर्फ नवाबों का शहर नहीं, तहजीब का शहर है, गंगा-जमुनी संस्कृति का शहर है, कई विरासतों को अपने आगोश में समेटे हुए बड़ी-बड़ी कहानियां कहता हुआ शहर है, तू को हम, हम को आप कहता हुआ शहर है, पहले आप, पर जा निसार करने वाला शहर है. हम ऐसे ही किस्से आपको बताएंगे, जब होली में यह शहर मजहब की दीवरों को तोड़कर मोहब्बत की दास्तां कहते हुए दुनिया मे सैकड़ों साल से मिसाल कायम करता आया है.

दरअसल पुराने लखनऊ में चौक का होली मेला शहर की पुरानी परंपराओं में से एक है. कोनेश्वर मंदिर के पास लगने वाले इस मेले के बारे में यहां के बुजुर्ग राहत बख्श बताते हैं कि इस मेले की शुरुआत नवाब गाजीउद्दीन हैदर ने की थी, जिसके पीछे सिर्फ एक मकसद था इत्तेहाद और मोहब्बत. खास बात यह है कि इस मेले को लगाने में न तो कोई आयोजन समिति सक्रिय है और न पदाधिकारी.

बस होली के दिन लोग आते हैं, मेले-ठेलों का बाजार लगता है और होली मिलन समारोह शुरू हो जाता है. यह रवायत सैकड़ों साल से चली आ रही है.

जब अजादारी और होली एक साथ

लखनऊ की तवारीख में होली के सबसे दीवाने इंसान का नाम है नवाब वाजिद अली शाह (अख्तर). उनके बारे में एक किस्सा बड़ा पुराना और आम है कि एक बार होली और मोहर्रम एक साथ पड़ गए, तो हिंदुओं ने फैसला किया कि मोहर्रम के महीने में होली नहीं मनाएंगे. वही मुसलमानों ने सोचा की होली अपना त्यौहार है, लिहाजा कोई बीच का रास्ता निकाला जाए.

बात वाजिद अली शाह तक पहुंची और फैसला लिया गया कि एक ही दिन में होली खेलने और मातम मनाने का अलग-अलग वक्त तय किया जाए और मुसलमानों ने हिंदुओं के साथ होली खेली. हिंदू फिर मुसलमानों के साथ अजादारी में शरीक हुए.

लखनऊ के शायरों की होली

अजीम शायर हसरत मोहानी की मजार रकाबगंज में मौजूद है. उन्होंने होली पर शायरी लिखते हुए कहा है:

मोसे छेड़ करत नन्दलाल.

लिए ठाड़े अबीर गुलाल..

ढीठ भई जिनकी बरजोरी.

औरन पर रंग डाल-डाल..

मीर तकी मीर जब दिल्ली से लखनऊ आये, तो उन्होंने नवाब, आसफ-उद-दौला को होली खेलते देखा, वो इतने मुतास्सिर हुए कि उन्होंने उनके होली पर पूरी एक मसनवी लिख डाली.

होली खेला आसफुद्दौला वजीर.

रंग सौबत से अलग हैं खुर्दोपीर..

कुमकुमे जो मारते भरकर गुलाल.

जिसके लगता आन पर फिर महेंदी लाल..


सागर खय्यामी भी होली के दीवाने थे वो लिखते हैंः

छाई हैं हर इक सिम्त जो होली की बहारें.

पिचकारियां ताने वो हसीनों की कतारें.

हैं हाथ हिना रंग तो रंगीन फुवारें.

इक दिल से भला आरती किस-किस की उतारें..

चंदन से बदन आबे-गुले-शोख से नम हैं.

सौ दिल हों अगर पास तो इस बज्म से कम हैं..

आज भी शहर के लोग कहते हैं कि हिंदू-मुस्लिम के तमाम लड़ाई-झगड़े हुए बहुत, कुछ बदला भी, नहीं बदला, तो पुराने लखनऊ का होली मेला, जहां लोग सारी नफरत और सफर पर मिलाकर अबीर-गुलाल रंग गुजिया लेकर होली खेलते हैं.