सूफीवाद और योगः आध्यात्मिक तपस्या के दो पहलू

Story by  मुकुंद मिश्रा | Published by  [email protected] | Date 02-02-2021
सूफीवाद और योग
सूफीवाद और योग

 

 

- मुसलमानों के बीच योग को लोकप्रिय करने का श्रेय शेख मुहम्मद गौस ग्वालियर को दिया जाता है.


गौस सिवानी / नई दिल्ली

नशे का आनंद लेने के साथ साथ अवसाद (डिप्रेशन) के निदान के लिए भी नशीली दवाओं का इस्तेमाल अब आम सी बात हो गई है. मीडिया में रोजाना आम आदमी के अलावा मशहूर हस्तियों की गिरफ्तारी का भी जिक्र होता रहता है, जो नशीली दवाओं के सेवन में कथित तौर पर लिप्त रहते हैं. हालांकि ड्रग्स प्राचीन काल में भी उपलब्ध होते थे, लेकिन तब लोग मन की शांति के लिए ध्यान और योग का सहारा लेते थे. वे जंगलों और रेगिस्तानों की खाक छानते थे और प्रकृति के खूबसूरत दृश्यों में खुद को गुम कर देते थे. ऐसे महान और तपस्वी लोगों को दुनिया सूफी और योगी के नाम से जानती है. इन लोगों ने किसी का नुकसान किये बगैर हर किसी को लाभान्वित किया. उन्होंने हमेशा दुनिया की भलाई के लिए काम किया और लोगों को शांति का संदेश दिया.

‘सूफीवाद’ और ‘योग’ शब्द जितने प्राचीन हैं, उससे कहीं ज्यादा प्राचीन है उनका आपसी रिश्ता. उदाहरण के लिए, आप ‘ध्यान’ को देख सकते हैं, जिससे होने वाले लाभ के वैज्ञानिक परीक्षण भी किए जा चुके हैं. जिस तरह हजारों साल पहले ग्रीक दार्शनिकों द्वारा ‘ध्यान’ का अभ्यास किया जाता था, वैसे ही भारत में भी योगियों द्वारा इसका अभ्यास किया जाता था. इस्लाम के आगमन के समय, ‘ध्यान’ का अभ्यास अरबों में भी प्रचलित था. आज, यह भारतीय उपमहाद्वीप से लेकर यूरोप और संयुक्त राज्य अमेरिका तक में काफी लोकप्रिय हो चुका है. और पश्चिम में इसका सालाना अरबों डॉलर का बहुत बड़ा बाजार है. बड़ी कंपनियां अपने कर्मचारियों के प्रदर्शन को बढ़ाने के लिए भी योग विशेषज्ञों की मदद ले रही हैं.

योग है मानव उत्पत्ति से

इस्लाम के अनुसार, हजरत आदम दुनिया में आने वाले पहले व्यक्ति हैं, जबकि प्राचीन हिंदू मान्यता के अनुसार, शिव ब्रह्मांड की शुरुआत करने वाले हैं और शिव को पारंपरिक रूप से योग आसन या ‘ध्यान’ के रूप में चित्रित किया गया है. इसका मतलब यह है कि योग इस धरती पर मानव की उत्पत्ति से ही चला आ रहा है.

‘ओउम’ और ‘नूर’

योग की शुरुआत ‘ओउम’ शब्द से होती है. यदि ‘ओउम’ का अरबी में अनुवाद किया जाये, तो इसके लिए सबसे उपयुक्त शब्द ‘नूर’ होगा, जो अल्लाह के 99 नामों में से एक है.

‘अमृत कुंड’ का फारसी में अनुवाद

योग को भारत के प्राचीन विद्वानों की खोज माना जाता है और दूसरी ओर इस्लामिक विद्वानों के अनुसार, इस धरती पर कदम रखने वाला पहला व्यक्ति हिन्दुस्तान में आया और मानव सभ्यता की शुरुआत में इसी क्षेत्र में फलने-फूलने का अवसर मिला है. मानव सभ्यता की शुरुआत योग जैसी कला से हुई. अरब-भारतीय संबंध सदियों से मौजूद हैं और दोनों क्षेत्रों के आध्यात्मिक विद्वान एक-दूसरे से लाभान्वित होते रहे हैं. हालांकि, फारस और अरब के लोगों को भारतीय योग से परिचित कराने का काम प्रसिद्ध सूफी शेख मुहम्मद गौस ग्वालियर द्वारा हुआ, जिन्होंने इस विषय पर लिखी गई पुस्तक ‘अमृत कुंड’ का फारसी में अनुवाद किया. शेख ने शुरुआती मुगल राजाओं के समय को देखा, जब उनकी  प्रसिद्धि चरम पर थी. उनका निवास ग्वालियर (मध्य प्रदेश) में था, लेकिन जब वह आगरा गए, तो उनका स्वागत तत्कालीन सम्राट जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर ने किया.

‘अमृत कुंड’ उपलब्ध नहीं, बहर-उल-हयात है

शेख ने अमृत कुंड के फारसी अनुवाद को ‘बहर-उल-हयात’ नाम दिया है. शेख रुकन-उद-दीन ने फारसी से अरबी में किताब का अनुवाद किया और इसे हौज-उल-हयात नाम दिया. माना जाता है कि मूल पुस्तक संस्कृत में थी, लेकिन बहर अल-हयात की प्रस्तावना से पता चलता है कि मूल पुस्तक हिंदी में थी. बहर अल-हयात में 38 पृष्ठ हैं. योग के अलावा, पुस्तक में खगोल विज्ञान, चिकित्सा और गणित के साथ-साथ मानव शरीर के निर्माण और संरचना के सिद्धांत शामिल हैं. यह पुस्तक इसलिए भी और महत्वपूर्ण हो जाती है, क्योंकि यह फारसी और अरबी में पहली योग पुस्तक है. यह भी एक तथ्य है कि मूल पुस्तक ‘अमृत कुंड’ अब उपलब्ध नहीं है. इसलिए बहर-उल-हयात का महत्व और भी अधिक बढ़ जाता है. इस महत्वपूर्ण पुस्तक का अब केवल अनुवाद ही उपलब्ध है.

मुहम्मद गौस ने तानसेन को दिया था प्रशिक्षण

शेख मुहम्मद गौस ग्वालियर सांस्कृतिक विविधता के पथप्रदर्शक समझे जाते थे, जिनका दरवाजा सभी के लिए खुला था. वह एक महान संगीतकार भी थे और उनके प्रशिक्षण का परिणाम प्रसिद्ध संगीतकार तानसेन थे, जिनकी प्रसिद्धि समय और स्थान से परे है. तानसेन का मकबरा शेख की कब्र के बगल में है, जिसे शेख ने अपना मुंह बोला बेटा बना लिया था.

सूफी और योगी साथ-साथ

मध्य युग में सूफियों और योगियों का मेल-जोल एक आम सी बात थी. वे आमतौर पर एक-दूसरे के साथ सूफीवाद के विषयों पर चर्चा करते थे. बाबा फरीद शकर गंज के मठ में योगियों का आना-जाना लगा रहता था, जिसका उल्लेख कई जीवनीकारों ने किया है. शेख निजामुद्दीन औलिया के उपदेशों के संग्रह फवाएद-उल-फवाएद में भी इसका वर्णन मौजूद है. अकबर बादशाह ऐसी सभाओं का आयोजन करते थे, जिसमें विभिन्न धर्मों के विद्वान भाग लेते थे.

बाबा लाल बैरागी और दाराशिकोह

मुगल राजकुमार दारा शिकोह सूफीवाद और योग के विद्वान थे. इस्लामी विद्वानों के अलावा, वह साधुओं, संतों और हिंदू धर्म ज्ञानियों से मिलते थे. उनके गुरु और शाहजहां के प्रधानमंत्री चंद्रभान ब्राह्मण थे और वे खुद सूफीवाद और योग के विद्वान थे. उन्होंने अपनी एक पुस्तक में बाबा लाल बैरागी का उल्लेख किया है, जो राजकुमार से मिले थे और राजकुमार ने उनसे कई सवाल पूछे थे.

मजमा-अल-बहरीन

इस राजकुमार ने सूफी और योगियों के विचारों की तुलना पर एक ग्रंथ भी लिखा, जिसका नाम मजमा अल-बहरीन था. राजकुमार ने खुद लिखा, ”यह पुस्तक इस्लामी सूफीवाद और हिंद के जोगियों के एकेश्वरवाद पर आधारित सूफीवाद पर एक शोध है.“

ॐ के बजाय ’होवल्लाह’

वह लिखता है, ”हिन्दुस्तान के संत सांसों के आने और जाने की दो शब्दों में व्याख्या करते हैं. यानी जब सांस बाहर आती है, तो वे ‘ओउम’ शब्द कहते हैं और जब सांस अंदर आती है, तो वे ‘म’ कहते हैं, जिसका संयोजन ‘ॐ’ बन जाता है, और इस्लामी सूफी ॐ के बजाय ’होवल्लाह’ का इस्तेमाल करते हैं.“ ( मजमा अल-बहरीन)

ब्रह्मा-विष्णु-महेश और जिब्राइल-मिकाइल-इसराफिल

मजमा अल-बहरीन के अनुसार, भारत के संतों का विचार है कि ईश्वर की विशेषताएं तीन हैं, जिन्हें ‘तिरगुन’ कहा जाता है. ये ब्रह्मा, विष्णु और महेश हैं, जबकि सूफी तीन फरिश्तों जिब्राइल, मिकाइल और इसराफिल को संदेशवाहक माने जाते हैं.

सुफियों की अवधारणाएं

कुल मिलाकर, सूफियों और योगियों के विचार कई स्तरों पर समान हैं, जिसका अर्थ है कि उन्होंने एक-दूसरे के प्रभावों को स्वीकार किया है. सुफियों में, जिक्र-ए-जलि, जिक्र-ए-खफी और हब्स-ए-दम की अवधारणाएं इस बात का प्रमाण हैं.