कबाब, बिरयानी और भाईचारा: लखनऊ के स्वाद में बसी गंगा-जमुनी कहानी

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 22-11-2025
Kebabs, biryani and brotherhood: The Ganga-Jamuni story, steeped in the flavours of Lucknow
Kebabs, biryani and brotherhood: The Ganga-Jamuni story, steeped in the flavours of Lucknow

 

विदुषी गोर/ नई दिल्ली
 
जब पुराने लखनऊ की गलियों में उबलती बिरयानी, लज़ीज़ कबाब और सुगंधित मिठाइयों की खुशबू फैलती है, तो ऐसा लगता है मानो इतिहास खुद आपको बुला रहा हो। यह सिर्फ़ खाना नहीं, एक संस्कृति है। सदियों से बनी एक ऐसी संस्कृति जहाँ राजघराने और आम लोग एक ही रसोई, एक ही गली और एक ही कहानी साझा करते थे। हाल ही में, इस स्वादिष्ट संस्कृति को एक बड़ी पहचान तब मिली जब यूनेस्को ने लखनऊ को "रचनात्मक पाककला का शहर" घोषित किया, जिससे इसे दुनिया के पाककला विरासत मानचित्र पर एक प्रमुख स्थान मिला।

लखनऊ का भोजन नवाबों के शाही रसोईघरों से जुड़ा है, जहाँ 'दम पुख्त' तकनीक, यानी बंद बर्तन में धीमी आँच पर पकाने की तकनीक, साधारण सामग्री को भी बेहतरीन व्यंजनों में बदल देती थी। प्रसिद्ध गुलाटी और टांडे कबाब, लज़ीज़ मटन निहारी, सुगंधित अवधी बिरयानी, परिष्कृत शाकाहारी व्यंजन और स्वादिष्ट मिठाइयाँ इसके स्वादों की विविधता को व्यापक और सभी के लिए आकर्षक बनाती हैं।
 
लेकिन लखनऊ का भोजन सिर्फ़ एक शाही व्यंजन नहीं है, बल्कि एक ऐसे सामाजिक ताने-बाने की उपज है जिसमें मुस्लिम नवाब, हिंदू कारीगर और व्यापारी, रेहड़ी-पटरी वाले और घरेलू रसोइये, सभी ने मिलकर एक साझा भोजन परंपरा बनाई। यही परंपरा यूनेस्को की मान्यता का आधार बनी, जहाँ खाना पकाने के तरीके, व्यंजन विधियाँ और आतिथ्य शैली विभिन्न समुदायों में हस्तांतरित होती हैं।
 
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लखनऊ में खाना सिर्फ़ पेट भरने का ज़रिया नहीं, बल्कि सभ्यताओं को जोड़ने वाला सेतु है। इसका एक उज्ज्वल पहलू गंगा-जमुनी तहज़ीब है, जो हिंदू-मुस्लिम सहयोग और सौहार्द का प्रतीक है। इसका एक प्रसिद्ध उदाहरण "बड़ा मंगल" जलसा है, जहाँ नवाबी खानदान सभी धर्मों के लोगों को खाने पर आमंत्रित करता है। यह जलसा सिर्फ़ एक दावत नहीं, बल्कि एकता और भाईचारे का प्रतीक है।
 
चौक के रेलवे प्लेटफ़ॉर्म पर हिंदू और मुसलमान विक्रेता अगल-बगल पूरी सब्ज़ी, कचौड़ी, जलेबी और कबाब बेचते नज़र आते हैं। शादियों में अवधी थाली और मीट कुर्मा दोनों एक साथ परोसे जाते हैं। सड़कों पर तेल तलने की आवाज़ और चटनी की खुशबू किसी एक धर्म या समुदाय की नहीं, बल्कि पूरे शहर की पहचान है।
 
यह सम्मान सिर्फ़ प्रतीकात्मक ही नहीं, बल्कि व्यावहारिक भी है। पर्यटन विभाग ने यूनेस्को के लिए तैयार किए गए एक दस्तावेज़ में पारंपरिक रसोई से लेकर गली-मोहल्लों के स्टॉलों तक के व्यंजनों, मौखिक परंपराओं और विक्रेताओं के इतिहास को दर्ज किया है। अब जब यह दर्जा आधिकारिक हो गया है, तो अधिकारी स्थानीय रसोइयों, छोटे व्यवसायों और टिकाऊ खाना पकाने के तरीकों को बढ़ावा देने की योजना बना रहे हैं।
 
लखनऊ खाने-पीने के शौकीनों के लिए दोहरा आनंद है। निहारी और बिरयानी जैसे शाही व्यंजनों के साथ-साथ, बाजपेयी की पूरी, दुर्गा के खास्ते जैसे शाकाहारी व्यंजन और मीठी चोर के लड्डू व मलाई पान जैसी मिठाइयाँ भी यहाँ मिलती हैं, जो साबित करती हैं कि अवधी व्यंजन किसी एक वर्ग या स्वाद तक सीमित नहीं हैं।
 
 
लखनऊ की कहानी में एक सामाजिक संदेश भी छिपा है। यह हमें बताती है कि खाना बाँटने से समाज में एकता आती है। ऐसे समय में जब मतभेद बढ़ रहे हैं, लखनऊ की गलियाँ यह संदेश देती हैं कि साथ बैठकर खाना ही सच्चा मेलजोल है। यहाँ अलग-अलग वर्ग एक-दूसरे को खाना परोसकर और स्वाद बाँटकर अपनी परंपराओं को जीवित रखते हैं।
 
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अमीनाबाद में सिख परिवारों और मुस्लिम कबाब बनाने वालों को साथ मिलकर काम करते देखना, सुबह-सुबह जैन विक्रेताओं को पूरी सब्ज़ियाँ बेचते हुए सुनना, या किसी समारोह में साथ खाना खाना, ये सब इस शहर में रोज़मर्रा के दृश्य हैं। ये गतिविधियाँ दर्शाती हैं कि लखनऊ में जुड़ाव पहचान का नहीं, बल्कि सहभागिता का है। जब हर व्यंजन धार्मिक, सांस्कृतिक और आर्थिक सीमाओं को पार करता है, तो भोजन एक सार्वभौमिक भाषा बन जाता है।
 
पर्यटकों के लिए संदेश सरल है। ग्लूटिनस कबाब खाने का मतलब सिर्फ़ मांस और मसालों का स्वाद लेना नहीं है, बल्कि सदियों पुरानी कारीगरी, प्यार और साझा जीवन का अनुभव करना है। कबाब की एक टोकरी ऑर्डर करना दरअसल एक जीवंत परंपरा में कदम रखने जैसा है जो समुदायों को जोड़ती है।
 
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लखनऊ हमें याद दिलाता है कि खाना सिर्फ़ स्वाद ही नहीं, बल्कि इतिहास, पहचान और एकता का भी प्रतीक है। जब यूनेस्को ने इसे क्रिएटिव सिटी ऑफ़ गैस्ट्रोनॉमी का दर्जा दिया, तो यह सिर्फ़ सम्मान नहीं, बल्कि एक ऐसे शहर की पहचान थी जहाँ खाना जुड़ाव की बुनियाद है।
 
नवाबों के इस शहर में, जहाँ पिस्ते पूरियों से मिलते हैं और कबाब का धुआँ चाय की खुशबू में घुलता है, संदेश साफ़ है। जुड़ाव सिर्फ़ खाना खाने से नहीं, बल्कि एक-दूसरे के साथ खाना बाँटने से भी है। और यहाँ बिरयानी, कबाब, दम पुख्त और स्ट्रीट फ़ूड से कहीं बढ़कर है। एक ऐसा शहर जहाँ खाने की मेज़ बँटी नहीं, बल्कि जुड़ी हुई है। जहाँ हर निवाला उम्मीद और विरासत की कहानी कहता है।