ज़ाहिद ख़ान
मध्य प्रदेश के टीकमगढ़ निवासी मेरे नाना समशेर खां नगर में हर साल दशहरे पर होने वाली 'रामलीला' में रावण का किरदार अदा करते थे. नानी के घर की दीवार पर आज भी रावण के गेटअप में उनकी तस्वीर लगी हुई है. इस तस्वीर को देखने से एहसास होता है कि अपने गेटअप और मेकअप के लिए वे ख़ासी तैयारी किया करते थे.
उस ज़माने में यानी आज से चवालीस—पैंतालीस साल पहले, जब मेकअप और ड्रेसें परम्परागत तौर पर बनाई जाती थीं. सीमित संसाधनों में अत्याधिक प्रभाव पैदा करने के लिए क्या—क्या जुगत भिड़ाना पड़ती होगी,इस तस्वीर को देखने से मालूम चलता है.
इस तस्वीर के अलावा दीवार पर एक और तस्वीर लगी हुई है, इस तस्वीर में नाना कंस के गेटअप में बाल कन्हैया को एक हाथ से ऊपर उठाए हुए हैं. टीकमगढ़ की चार दशक से ज़्यादा पुरानी यह 'रामलीला' और 'कृष्णलीला' तो मैंने नहीं देखी. लेकिन बचपन की एक बात, जो मुझे अभी तलक याद है, नाना दीपावली पर लक्ष्मी जी की पूजा करते थे.
पूजा के बाद हम बच्चों को खीलें—बताशे और मिठाईयां मिलतीं. भले ही नाना के इंतिकाल के बाद, उनके घर में यह परम्परा ख़त्म हो गई हो. लेकिन इस परम्परा को मेरी मां ने हमारे यहां जिंदा रखा. हमारे छोटे से नगर शिवपुरी में भी उन दिनों, दो जगह पर 'रामलीला' खेली जाती थी. मां दोनों ही रामलीला में हम बच्चों को साथ ले जातीं. जिसका हम जी भरकर लुत्फ़ लेते. ख़ास तौर पर भगवान राम, उनकी वानर सेना और रावण की सेना के बीच चलने वाला युद्ध हम बच्चों को ख़ूब रास आता.
उन दिनों रामलीला का ख़ुमार हम बच्चों पर इस क़दर छा जाता कि बांस की पतली डंडियों के छोटे—छोटे धनुष—बाण बनाकर आपस में खेला करते. कुछ बच्चे हनुमानजी की गदा बनाकर, जिसे हम सोठा कहते थे हनुमानजी का अभिनय करते. जिस मोहल्ले में मेरा बचपन गुज़रा, वहां होली—दीवाली—रक्षाबंधन गोयाकि हर त्यौहार, मज़हब की तमाम दीवारों से ऊपर उठकर हम पूरे जोश—ओ—ख़रोश से मनाते थे. आज भी यह परम्परा टूटी नहीं है. बस उन्हें मनाने का अंदाज़ बदल गया है.
'रामलीला' में अदाकारी के जानिब नाना के जुनून, ज़ौक़ और शौक़ की कुछ दिलचस्प बातें, मेरी मां अक्सर बतलाया करती हैं. मसलन नाना 'रामलीला' के लिए घर से ही तैयार होकर जाया करते थे. उन्हें रामायण की तमाम चौपाईयां मुंहज़बानी याद थी. रावण के अलावा 'रामलीला' में वे ज़रूरत के मुताबिक और भी किरदार निभा लिया करते थे.
रावण का किरदार उन्होंने अपनी ज़िंदगी के आख़िर तक निभाया. उनकी बीमारी की हालत में भी 'रामलीला' के संयोजकों ने उनसे नाता नहीं तोड़ा. उनकी नाना से गुज़ारिश होती कि वे बस तैयार होकर, रामलीला स्थल पर आ जाएं. बाकी वे संभाल लेंगे. जैसा कि अमूमन होता है, मंच पर आते ही हर कलाकार जिंदा हो जाता है. वह अपने किरदार में ढल जाता है. जैसे कि कुछ हुआ ही न हो. ऐसा ही नाना के साथ होता और वे बीमारी की हालत में भी अपना रोल अच्छी तरह से कर जाते.
सबसे दिलचस्प बात, जिसे मेरी मां ने बतलाया, नाना के इंतिकाल के बाद एक मर्तबा दशहरे के वक्त वे टीकमगढ़ में ही थीं. दशहरा का जुलूस निकला, तो वे उसे देखने पहुंची. जुलूस देखा, तो उन्हें काफ़ी निराशा हुई और उन्होंने पास ही खड़ी एक बुजुर्ग महिला से बुंदेली बोली में पूछा, ''काहे अम्मा ऐसा जुलूस निकलत, ईमें रावण तो हैई नईएं ?''
बुजुर्ग महिला ने इस सवाल का जवाब देते हुए कहा, ''का बताएं बिन्नू, रावण ही मर गया.''
मां ने हैरानी से पूछा, ''रावण मर गया !''
''हां बेन, रावण मर गया. जो भईय्या रावण का पार्ट करत थे, वे नहीं रहे. वे नहीं रहे, तो रामलीला भी बंद हो गई.''