मस्जिद: इबादतगाह से सामाजिक नवजागरण तक का सफर

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 21-10-2025
Mosque: A journey from a place of worship to a social renaissance
Mosque: A journey from a place of worship to a social renaissance

 

 ईमान सकीना

मस्जिदें इस्लामी समाज की रीढ़ रही हैंऔर पैगंबर मुहम्मद  के युग से ही ये केवल इबादत का स्थान नहीं, बल्कि सामाजिक, शैक्षिक और नैतिक नेतृत्व का केंद्र भी रही हैं.आज जब दुनिया लगातार बदल रही है,जहाँ समाज अधिक विविध, शहरी और तकनीकी रूप से उन्नत हो रहे हैं,मस्जिदें भी समय की मांग के अनुसार अपने रूप व कार्यों में बदलाव ला रही हैं, लेकिन अपनी मूल आत्मा को कायम रखते हुए.

पैगंबर मुहम्मद द्वारा मदीना में स्थापित मस्जिद अल-नबवी इसका सर्वोत्तम उदाहरण है, जहाँ केवल नमाज़ ही नहीं होती थी, बल्कि वहीं पर शासकीय चर्चाएँ, न्याय के फैसले, शिक्षा, सामाजिक परामर्श और ज़रूरतमंदों की मदद जैसे कार्य भी संपन्न होते थे.यह मस्जिद एक जीवंत सामाजिक संस्था थी जो इस्लाम की व्यापक दृष्टि को साकार करती थी, जिसमें इबादत के साथ-साथ इंसानियत की सेवा भी शामिल थी.

आज भी मस्जिदें अपने आध्यात्मिक केंद्र के रूप में लोगों को अल्लाह की याद, प्रार्थना (सलाह) और आत्मिक शांति का स्थान प्रदान करती हैं.भागदौड़ भरी आधुनिक ज़िंदगी में मस्जिदें एक ऐसा आश्रय स्थल हैं जहाँ व्यक्ति अपने विश्वास से जुड़कर आत्मिक संतुलन पा सकता है.पांच वक्त की सामूहिक नमाज़ समुदाय में अनुशासन, भाईचारा और विनम्रता की भावना को मज़बूत करती है, जबकि शुक्रवार का खुत्बा लोगों को कुरान और सुन्नत के आधार पर नैतिक दिशा दिखाता है, समकालीन मुद्दों पर मार्गदर्शन देता है और करुणा, ईमानदारी, सहिष्णुता तथा नागरिक जिम्मेदारी जैसे मूल्यों को बढ़ावा देता है.

मस्जिदों की ऐतिहासिक भूमिका शिक्षा के क्षेत्र में भी रही है.शुरूआती इस्लामी युग में मस्जिदें ज्ञान के केंद्र थीं जहाँ से इमाम मलिक, इमाम ग़ज़ाली जैसे विद्वानों ने शिक्षा दी.आज भी यह परंपरा कुरान शिक्षण, अरबी भाषा, इस्लामी नैतिकता और न्यायशास्त्र पर आधारित कक्षाओं के रूप में जारी है.साथ ही आधुनिक मस्जिदें अब धार्मिक शिक्षा के साथ-साथ वित्तीय साक्षरता, स्वास्थ्य जागरूकता, पर्यावरणीय ज़िम्मेदारी और अंतर-धार्मिक संवाद जैसे विषयों पर भी कार्यशालाओं का आयोजन कर रही हैं, ताकि मुस्लिम समुदाय न केवल अपने विश्वास में मज़बूत बने, बल्कि समाज में भी सकारात्मक योगदान दे सके.

मस्जिदें सामाजिक एकजुटता और दया की भावना को भी प्रोत्साहित करती हैं.कुरान और हदीस में गरीबों, अनाथों और ज़रूरतमंदों की सेवा को अत्यधिक महत्त्व दिया गया है.इसी के अनुरूप मस्जिदें खाद्य वितरण, शरणार्थी सहायता, वित्तीय मदद, विवाह परामर्श, मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं और युवा मार्गदर्शन जैसी गतिविधियाँ संचालित करती हैं.संकट की घड़ी में, जैसे कि महामारी या प्राकृतिक आपदा, मस्जिदें राहत कार्यों के केंद्र बनकर उभरती हैं और उम्माह (समुदाय) की भावना को मज़बूत करती हैं.

वर्तमान समय में जब समाज अनेक सामाजिक व सांस्कृतिक विभाजनों से जूझ रहा है, मस्जिदें एकता की नींव बन सकती हैं.नमाज़ में सभी जाति, रंग और वर्ग के लोग एक ही पंक्ति में खड़े होते हैं, जिससे इस्लाम की समतावादी भावना प्रकट होती है.पैगंबर का यह कथन—"न कोई अरब गैर-अरब से श्रेष्ठ है, न गैर-अरब अरब से"—मस्जिद की इस भावना का आधार है.

इसके अलावा, मस्जिदें अंतरधार्मिक संवाद और सांस्कृतिक कार्यक्रमों के माध्यम से मुस्लिम और गैर-मुस्लिम समुदायों के बीच समझ, सम्मान और सहयोग को बढ़ावा देती हैं.वे समाज में संवाद और सहअस्तित्व का पुल बन जाती हैं.

आधुनिक मस्जिदों की एक बड़ी ज़िम्मेदारी युवाओं को जोड़ने की भी है.आज के युवा मुस्लिम पहचान, विचारों की जटिलता और सामाजिक दबाव जैसी चुनौतियों का सामना कर रहे हैं.यदि मस्जिदें उन्हें खेल, कौशल विकास, स्वयंसेवी कार्यों और नेतृत्व के अवसर प्रदान करें, तो वे इन चुनौतियों से बेहतर तरीके से निपट सकते हैं.मस्जिदों द्वारा युवाओं को नेतृत्व की भूमिका में स्थान देना न केवल उनकी ऊर्जा को सकारात्मक दिशा में ले जाता है, बल्कि इस्लामी मूल्यों की निरंतरता को भी सुनिश्चित करता है.

डिजिटल युग में मस्जिदों की पहुँच और भी व्यापक हो गई है.अब खुत्बे ऑनलाइन स्ट्रीम किए जाते हैं, कुरान की कक्षाएँ डिजिटल रूप में होती हैं और सोशल मीडिया के माध्यम से मस्जिदें समुदाय से लगातार जुड़ी रहती हैं.इससे वे लोग भी जुड़े रहते हैं जो भौगोलिक रूप से मस्जिदों से दूर हैं या गैर-मुस्लिम बहुल क्षेत्रों में रहते हैं.हालांकि इस तकनीकी विस्तार के साथ यह ज़िम्मेदारी भी आती है कि इसका उपयोग सद्भाव, ज्ञान और एकता के प्रसार के लिए हो, न कि गलत सूचना या विभाजन के लिए.

इन सबके बावजूद मस्जिदों को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है,जैसे युवाओं की भागीदारी में कमी, आर्थिक संसाधनों की कमीऔर ऐसे धार्मिक नेतृत्व की आवश्यकता जो आधुनिक यथार्थ को समझे और संबोधित कर सके.कुछ मस्जिदें अब भी पुराने प्रशासनिक ढाँचों या आंतरिक मतभेदों के कारण पिछड़ रही हैं.लेकिन ये चुनौतियाँ ही बदलाव और सुधार का अवसर भी हैं.यदि मस्जिदें पारदर्शी शासन, लिंग समावेशी स्थानों, पेशेवर प्रबंधन और सामुदायिक सहभागिता को अपनाएं, तो वे और अधिक प्रासंगिक, समावेशी और गतिशील बन सकती हैं.

अंततः, एक जागरूक और सक्रिय मस्जिद समाज में ज़िम्मेदार नागरिकों का निर्माण करती है, जो न केवल धार्मिक रूप से सजग हों, बल्कि सामाजिक और नैतिक रूप से भी जागरूक हों.जब मस्जिदें नागरिक शिक्षा, पर्यावरणीय पहल और सामुदायिक सहयोग जैसे क्षेत्रों में भी अग्रणी भूमिका निभाती हैं, तब वे कुरान की इस बात को साकार करती हैं:"तुम वह श्रेष्ठ समुदाय हो जिसे मानवता के हित के लिए उठाया गया है; तुम अच्छाई का आदेश देते हो, बुराई से रोकते हो और अल्लाह में विश्वास रखते हो." (कुरान 3:110)

इस प्रकार, आधुनिक समाज में मस्जिदों की भूमिका केवल पूजा स्थल के रूप में सीमित नहीं रह गई है, बल्कि वे एक व्यापक सामाजिक, शैक्षिक, नैतिक और सांस्कृतिक संस्था के रूप में उभर रही हैं, जो न केवल मुस्लिम समुदाय बल्कि समूचे मानव समाज के लिए मार्गदर्शक और प्रेरक बन सकती हैं.