क्या हुमायूं ने सच में चला दिए थे चमड़े के सिक्के, इतिहास की गुत्थी सुलझा रहे हैं प्रो. दानिश मोईन

Story by  मंजीत ठाकुर | Published by  [email protected] | Date 12-09-2021
बादशाह हुमायूं
बादशाह हुमायूं

 

एक कहावत आपने भी सुना रखी होगी कि ‘पैसा बोलता है’.पैसों की या रुपयों की की या जो सिक्कों की एक खास तरह की पढ़ाई होती है और किस तरह से इतिहास से जुड़ा है उसके लिए एक खास तरह की पढ़ाई होती है और उससे कैसे हम इतिहास का पता लगाते हैं. इस पर मौलाना आजाद नेशनल उर्दू यूनिवर्सिटी के एसोसिएट प्रोफेसर दानिश मोईन से खास बातचीत की डिप्टी एडिटर मंजीत ठाकुर ने. पेश हैं मुख्य अंशः

सवालः वैदिक भारत में सिक्कों का प्रचलन नहीं था. तो कैसे हमने सिक्के के बारे में जाना और क्या उसकी खासियत थी.

प्रो. दानिए मोईनः सिक्कों का बहुत पुराना इतिहास है. हम छठी शताब्दी ईसापूर्व में सिक्कों की शुरुआत कर चुके थे. यानी मोटे तौर पर आज से 2600 साल पहले भारत में सिक्कों की शुरुआत हो चुकी थी.

उस समय का सिक्का आज के जैसा नहीं था कि एक, दो, पांच के सिक्के होते हों. दुनिया भर के विद्वान इस बात पर सहमत हैं कि आज से 2600 साल पहले भारत में सिक्कों की शुरुआत हो चुकी थी. इनको हम पंच मार्क कॉइन कहते हैं. पीएमसी या पंच मार्क वैसे सिक्कों को कहा जाता है जो पंचिंग टेक्निक से बनाए हुए थे.

सवालः कैसे होते थे यह पंचमार्क सिक्के? 

प्रो. दानिए मोईनः छठी सदी ईसापूर्व के सिक्कों पर कुछ भी लिखा नहीं था. सिर्फ चिन्ह हैं, कहीं दो चिन्ह, कहीं तीन चिन्ह होते थे. यही सिंबल्स इनकी पहचान होते थे. सिक्कों के एक ही तरफ से प्रतीक बने होते थे.

दो, तीन या पांच जितने भी चिन्ह थे वह एक ही तरफ होते थे. यह सारे चिन्ह प्रकृति से जुड़े थे. इसमें आपको चांद, तारे, सूरज मिल सकता है या दूसरे जानवर उकेरे हुए मिल सकते हैं.

एक बड़े शोधार्थी हैं उनका बहुत बड़ा नाम है इस क्षेत्र में, पीएल गुप्ता. वह नासिक इंस्टिट्यूट के संस्थापक भी थे. उनकी किताबें अच्छी मानी जाती हैं. उन्होंने 21 साल पहले लिखी थी किताब, लेकिन आज भी प्रासंगिक है.

उन्होंने ही बताया कि महाजनपद काल में यानी जो भगवान बुद्ध या महावीर का काल है उस अवधि में हमारे यहां सिक्के आ चुके थे. सबसे अहम बात यह है कि इसमें प्रतीक उकेरे जा चुके थे. हर महाजनपद के सिक्के अलग प्रतीकों वाले थे. 

सवालः फिर मौर्य साम्राज्य में कुछ बदलाव आया?

प्रो. दानिश मोईनः  मौर्य साम्राज्य सबसे बड़ा साम्राज्य हुआ हिंदुस्तान में. इस दौर में दो या तीन प्रतीक देखने को मिलते हैं. पंचमार्क दो तरह के हैं, लोकल पंच मार्क और यूनिवर्सल पंच मार्क. लोकल पंच मार्क वह है जो हिंदुस्तान के खास इलाके से मिलता है या मिला है जैसे इसमें काशी, मथुरा या गंधार से मिलने वाले सिक्के. सिक्कों के ऐसे समूह बहुत हैं जिनमें पांच प्रतीक या चिन्ह थे.  उस वक्त के साक्ष्यों के आधार पर यह पता लगा कि यह सिक्के मौर्य काल के थे क्योंकि उस समय के कालखंड में मौर्य हिंदुस्तान के अच्छे खासे इलाके पर शासन चला रहे थे.

ऐसे सिक्के आपको कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक मिल रहे थे. तो इसका मतलब ये है कि इसको जारी करने वाले बादशाह की हुकूमत देश के बहुत बड़े हिस्से में है.

सवालः सिक्कों की प्रकृति में फिर क्या परिवर्तन दिखता है? 

प्रो. दानिश मोईनः यह सिक्के ज्यादातर चांदी के बने होते थे. छठी शताब्दी में हमारे पास ऐसी टेक्नोलॉजी थी कि हम बाकायदा सिक्के बना रहे हैं जो हजारों की तादाद में मिलते हैं. लेकिन उसके बाद. सिक्कों पर इनस्क्रिप्शन लिखने के साथ यानी लेखन आने लगीा. इसको हम जो देखते हैं थोड़ा बाद में तीसरी शताब्दी के आसपास यहां पर इंडो ग्रीक का काल में होता है.

उत्तर भारत में इंडो-यूनानी सिक्के मिलते हैं वह उन पर लेख हैं और वह ग्रीक में था. बाद में आपको ग्रीक और ब्रह्मी मिला. हमारे स्थानीय राजाओं ने अपने सिक्के में ब्राह्मी लिखना शुरू किया और ब्राह्मी हिंदुस्तान की सबसे पुरानी लिपि है. आप जितने भी स्क्रिप्ट आज देखते हैं भारत में, यह कहा जाता है सारी लिपियों की मां ब्राह्मी है. उर्दू और इंग्लिश की बात नहीं कर रहे हैं. जैसे तेलूगु, तमिल, मलयालम उन तमाम भाषाओं मां ब्राह्मी है.

इन सिक्कों पर अब राजाओं के नाम, राज्य का नाम लिखा जाने लगा. सूचनाएं बढ़ने लगीं. इस बाद मध्यकाल का दौर आता है जिसमें इनस्क्रिप्शन को बहुत तवज्जो दिया गया.

प्राचीन काल में इनस्क्रिप्शन वन-वर्जिनल होता था. उस समय पिक्टोरियल ज्यादा होता था. उसमें राइटिंग कम होती थी और फोटो बनी होती थी. चाहे राजा का बना हो, कभी देवी-देवताओं की तस्वीरें होती थी, पेड़ या पत्ते की फोटो होती थी. कई जगहों पर तो मंदिर तक की फोटो मिलेगी. यह सारी चीजें जो मिली है यह आपका एविडेंस मिल रहा है एविडेंस से आप अपने इंटरप्रिटेशन को बढ़ाते हैं

सवालः जिन लोगों ने इतिहास नहीं पढ़ा, वह समझते हैं कि पुराने जमाने में स्वर्ण मुद्राएं ही चलती थीं. बाद में, हमने चाणक्य जैसे सीरियल्स में कार्षापण का नाम सुना. तो राज्य का अर्थव्यवस्था और सिक्के के धातु में क्या कोई रिश्ता है?

प्रो. दानिश मोईनः बहुत ही अच्छा सवाल है यह. पहली बात जो सोने, चांदी या कांसे का है. कार्षापण का रेफरेंस वैदिक काल से मिलता है और कार्षापण जरूरी तौर पर सोने के सिक्के ही नहीं होते थे. इसका उल्लेख शुरुआती दौर में जो निकले हैं उसमे रिफ्रेंस है कि वैदिक काल में कांसे के सिक्के लेकिन उसकी जो यूज़ हैं वह डिफरेंट यूज है. हो सकता है कि मैटेलिक पीस हो चांदी का हो, उसका इस्तेमाल मुहरों के रूप में भी होता होगा. कार्षापण को लोग मानते हैं उसमें कोई कंट्रोवर्सी नहीं है. कार्षापण के बारे में ही कहते हैं कि हो सकता है पंचमार्क के बारे में जो रेफरेंस आ रहा हो वह वहीं से आ रहा है.

छठी सदी में हमारे पास चांदी के भी कॉइन थे और कॉपर के भी. यहां तक कि जो कुछ कॉइन मिले हैं उसमें कुछ कॉइन सीसे के भी मिले हैं. अगर हम सोने के सिक्कों की बात करें तो हिंदुस्तान में पहली सदी में शुरू होने के निशान मिलते हैं और कुषाणों के जरिए होती है.

वीम कॉलेसिस पहला बादशाह है जिसने सोने का सिक्का चलाया. आगे बढ़ते हैं तो गुप्तकाल में आपको सोने की मुद्राएं जिसको दीनार के नाम से जानते हैं यह हजारों की संख्या में मिलते हैं. चंद्रगुप्त द्वितीय और समुद्रगुप्त हैं. आपने किताबों में भी देखा होगा समुद्रगुप्त को वीणा बजाते हुए लिखा गया है, अश्वमेध वाले सिक्के दिखाए गए हैं किंग और क्वीन टाइप के सिक्के दिखाए गए हैं. आप शेर का शिकार करते हुए बादशाह वाले सिक्के दिखेंगे.

गुप्तकाल में सोने के सिक्के बहुत थे मध्यकाल में यह और बढ़ जाता है. उसके बाद हम जब मुग़ल पीरियड  में आते हैं तो यह और बढ़ जाता है उस जमाने में और भी बहुत सारे क्वाइन चले, गोल्ड, सिल्वर, कॉपर. लेकिन स्वर्णुद्राओं को मोहर कहा गया, अकबर के जमाने में इसको अशर्फी भी कहते हैं.

सवालः और स्वर्ण युग क्यों कहा गया गुप्त काल को, क्या सोने के सिक्कों के ज्यादा चलन की वजह से?

प्रो. दानिए मोईनः स्वर्ण युग वाली बात दरअसल इंटरप्रिटेशन है. आप किसी पीरियड को स्वर्ण युग कहे या ना कहें, लेकिन उसके साक्ष्यों को कोट किया जाता है और एक एविडेंस में इतिहासकार यह भी डालते हैं कि उस कालखंड में बहुत बड़ी संख्या में गोल्ड कॉइन को देखते हैं. उसका ताल्लुक सीधे तौर पर उस वक्त के इकोनामी से होता है जब आप किसी भी पीरियड को रिफ्लेक्ट कराना चाहते हैं. पंच मार्ग की बात करें, तो छठी सदी ईपू में उस समय मनी इकोनामी शायद नहीं थी और हम जो ज्यादातर ट्रेड करते थे वह बदला व्यापार करते थे.

असल में, हमारे यहां कॉइन मिल रहे हैं वह कंटिन्यूटी में मिल रहे हैं. आप किसी भी अवधि में देखिए आपको सिक्के जरूर मिलेंगे. एक-एक दिन में 50,000 कॉइन ढाले जा रहे हैं. इसका मतलब है कि इतनी डिमांड है तभी तो हो रहा है.

अगर आप टकसालों की बात करेंगे तो मुगल काल में 400 से अधिक टकसाल थे, जहां सिक्के बन रहे थे. जब आपको ज्यादा कॉइन देखने को मिल रहे हैं तो इसका मतलब यह है यह आपकी इकनोमिक के रिफ्लेक्शन को दिखाता है यानी आप बड़ी इकोनामी है और आप और आपके यहां सरकुलेशन में पैसे हैं.

सवालः हमने ऐसा सुना है किसी बादशाह ने चमड़े के सिक्के चला दिए थे. क्या घटना थी? क्या यह सच है?  

प्रो. दानिश मोईनः नहीं, नहीं यह एक मिथ चली आ रही है. बल्कि यह किताबों में भी लिखा हुआ है. यह बहुत अफसोस की बात है यह किताबों में भी हम लोगों ने पढ़ा है और बहुत सारे विशेषज्ञ भी इसको कोट करते हैं. मैं हजारों बार लोगों को जवाब दे चुका हूं जैसा कि आप ने कहा है या एक पूरी तरह से एक मिथ है. यह हुमायूं के बारे में कहा जाता है.

इस पर एक कहानी है जब हुमायूं को शेरशाह सूरी ने हराया तो वह जान बचाने भाग निकला. और उसकी जान एक मल्लाह ने बचाई थी. जब हुमायूं ने दोबारा मुगल सल्तनत स्थापित कर ली और कुरसी हासिल कर ली 1556 में, तो उसने कहा कि उस आदमी को ढूंढो, जिसने मेरी जिंदगी बचाई थी.

हुमायूं के लोग उसे ढूंढकर लाए तो हुमायूं ने उससे कहा कि मैं आपको भूल नहीं सकता हूं और आपको जो भी चाहिए होगा आपके तमाम मुरादों को पूरा करूंगा. तो उस मल्लाह ने कहा कि हुजूर, मेरी मुराद है कि मुझे एक दिन का बादशाह बना दिया जाए. उसे 1 दिन का फिर बादशाह बना दिया जाता है और तब उस रोज उसने चमड़े का सिक्का चलाया.

लेकिन इतिहासकार इसको बहुत ज्यादा सीरियसली नहीं लेते हैं क्योंकि इस लेवल पर इसके सुबूत नहीं मिलते. इतिहास में इतनी बड़ी घटना है लेकिन उस समय के मुफ़्फ़करिन ने कभी मेंशन नहीं किया, यह एक बड़ा सवाल हो जाता है.

सवालः तुगलकों के दौर में भी सुधार किया गया था कोई?

प्रो. दानिए मोईनः तुगलकों के काल में मोहम्मद बिन तुगलक का जो कांसेप्ट है वह बड़ा इंपॉर्टेंट है. आपने देखा होगा जब डिमॉनेटाइजेशन हुआ था उस समय लोग बोलते थे तुगलकी फरमान है. इसके पीछे एक रीजन है वह यह है मोहम्मद बिन तुगलक के दौर में चांदी और सिल्वर के जो सिक्के चलते थे, उसको टंका कहते थे. दिल्ली सल्तनत के चांदी और गोल्ड कॉइन को टंका कहते हैं जिसका वजन 11 ग्राम के आसपास होता था.

मोहम्मद बिन तुगलक ने चांदी की कमी होने की वजह से एक निर्णय लिया कि अब जो सिक्के होंगे वह कांसे के होंगे. सिक्के कांसे के चलाएं यह कोई बड़ी बात नहीं थी. लेकिन साथ में उसने कह दिया चांदी के सिक्के चल रहे है दोनों बराबर मूल्य के होंगे और कांसे का सिक्का और टंका दोनों एक रेट पर चल रहे थे.

इसमें जो सबसे मूल्यवान चीज है वह है इनस्क्रिप्शन. इस सिक्के का जो इनस्क्रिप्शन है वह बहुत इंपॉर्टेंट है. उस पर लिखा था जो एक धार्मिक अपील थी कि ऐसे लोग जो बादशाह की खिदमत करते हैं वह अल्लाह की खिदमत करते हैं.

यानी गॉड को आप मान रहे हैं तो आप को बादशाह की बात माननी चाहिए.

और दूसरी तरफ लिखता है कि मैं मन अता सुल्तान फ़क़त अता रहमान. आई रिक्वेस्ट पीपुल टू एक्सेप्ट दिस कॉइन एज अ करंट कॉइन.

हिंदुस्तान में कभी भी ऐसा इनस्क्रिप्शन नहीं लिखा गया है जैसा हमें मोहम्मद बिन तुगलक के जमाने का लिखा मिलता है. उसने लिखा मैं आपसे रिक्वेस्ट करता हूं कि इसको एक्सेप्ट कीजिए योर्स फैथफुली मोहम्मद बिन तुगलक बंदा-ए उम्मीदवार मोहम्मद तुगलक.

यह इनस्क्रिप्शन बहुत जबरदस्त है. लेकिन अवाम इसको एक्सेप्ट करने को तैयार नहीं कि आप चांदी को ब्रोंज के रूप में कैसे एक्सेप्ट करेंगे?आज भी नहीं कर सकते हैं उस समय भी नहीं कर सकते थे और कभी भी नहीं कर सकते हैं क्योंकि गोल्ड की वैल्यू से कांसे की वैल्यू कम है.

सारे लोग तैयार है ब्रोंज के सिक्के देने के लिए मगर लेने को तैयार नहीं. इसकी वजह से बिजनेस पूरा ठप हो गया और फाइनैंशल एक्टिविटी खत्म हो गया. लोगों ने शिकायत की बादशाह से इससे पूरा सेटअप गड़बड़ा गया. फिर मोहम्मद बिन तुगलक ने फैसला वापस ले लिया, लेकिन समस्या फिर यह आई कि उसने आदेश दिया कि जिसके पास जो पैसा है वह ट्रेजरी में जाकर के कांसे के बदले चांदी के सिक्के जाकर ले लीजिए. अब लोगों ने खास तौर पर सुनार लोग जम गए और खटाखट कांसे के सिक्के बनने लगे हैं. हर घर टकसाल बन गया.

अब सरकार ने जारी किए थे एक लाख सिक्के और बदलने के लिए पहुंच गए दो लाख सिक्के. इससे अर्थव्यवस्था को काफी नुक्सान हो गया. यह तो एक बात हुई लेकिन इसका दूसरा एंगल भी है. जिसको आप टोकन करेंसी कहते हैं आप और हम जो टोकन करेंसी का वर्ड यूज करते हैं जिसका इंट्रांजिक वैल्यू कुछ नहीं होता है. 2000 का नोट 500 का नोट की वैल्यू इसलिए होता है क्योंकि भारत सरकार ने प्रॉमिस किया है वरना इस कागज के नोट की वैल्यू कुछ भी नहीं है.

यह जो टोकन करेंसी का कांसेप्ट था नया कॉन्सेप्ट था. बहुत पहले आया है चाइना में टोकन करेंसी आ चुकी थी उसी पीरियड में 13वीं शताब्दी में. तो इससे पता चलता है कि मोहम्मद बिन तुगलक चाइना के हिसाब से चल रहे थे कि जब वहां है पेपर करेंसी तो हम यहां ब्रोंज निकाल दे. खुरासान में भी एक जगह है वहां पर भी पेपर करेंसी का कांसेप्ट था लेकिन वहां फेल कर गया था और चाइना सक्सेस हो गया था और मोहम्मद बिन तुगलक ने वह कोशिश अपने देश में की. हालांकि वह फेल हुआ लेकिन कांसेप्ट जो है टोकन करेंसी का, कुछ सिक्योरिटी नहीं ऐड किया था नहीं तो वह सक्सेस हो सकता था.

एक और बात आपको बता दें ताकि और साफ हो जाए और जो पहला जो फर्क है आज की करेंसी में और मिडिवल पीरियड या प्राचीन काल के सिक्कों में आज जो हम करेंसी एक्सेप्ट करते हैं वह करते हैं फेस वैल्यू पर. फेस वैल्यू का मतलब है 2000 या 1000 या जो भी उस पर लिखा होता है सरकार का वैल्यू और सरकार का कंफर्मेशन और आपने उसको उस फेस वैल्यू के हिसाब से ले लिया. पहले जमाने में फेस वैल्यू का कंसेप्ट नहीं था उस समय इंटेंसिव वैल्यू था इसका मतलब है अगर आपके पास गोल्ड कॉइन है 10 ग्राम का तो उस 10 ग्राम के हिसाब से वैल्यू मिलेगा. बादशाह कौन है यह भूल जाइए, अगर आपके पास 10 ग्राम का गोल्ड कॉइन है और मेरे पास भी 10 ग्राम का चांदी का सिक्का है तो आप हमसे ज्यादा पैसे वाले हैं.

उस समय मिंट और वेट ऑफ द मिंट यह इंटेंसिव वैल्यू को डिफाइन करती थी और उसी हिसाब से इकोनामी पर होती थी और आप देखते हैं इंटरनेशनल बिजनेस होता था ग्रीक जो इंडिया में मिल रहे हैं चाइनीस कॉइन इंडियन मिल रहे हैं वह कैसे मिल रहे हैं क्योंकि इंटरनेशनल ट्रेड हो रहा था. वह अपने सिक्के लेकर आते थे हम जाते थे तो अपने कॉइन लेकर पर जाते थे वहां पर प्योरिटी चेक होती थी आपके सोने की चांदी की गोल्ड आप का प्योर है गोल्ड में जितना है उसी हिसाब से बिजनेस करते थे. यह बेसिक फर्क है आज की करेंसी में और उस उस जमाने की करेंसी में.

सवालः आप बिहार से हैं और बिहार से जो अभी तक की जर्नी है वह थोड़ा विस्तार से बताएं जो खासतौर पर स्टूडेंट है उनको थोड़ा रास्ता मिले.

प्रो. दानिए मोईनः मैट्रिक गया से किया और उसके बाद गया कॉलेज, गया में एडमिशन लिया. बीए के लिए चले गए थे अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी. वहां से ग्रेजुएशन फिर पोस्ट ग्रेजुएशन रिप्लाई करने के बाद इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूमिसमैटिक, नासिक में मुझे जॉब मिल गई. फिर पीएचडी मैंने पुणे यूनिवर्सिटी से कर लिया. वहां मैं 23 साल तक रहा और सैकड़ों हजारों लोगों को मैंने ट्रेन. न्यूमिसमैटिक में प्रैक्टिकल ट्रेनिंग हिंदुस्तान में और कहीं नहीं होता है.

आज भी मैं अटैच हूं उस सेंटर से और वहां पर जाकर लोगों को ट्रेनिंग कराई कई ऐसे अदारे में मेरे फ्रेंड मिलेंगे स्टूडेंट मिलेंगे चाहे वह लाइब्रेरी में हो कॉलेज में हो म्यूजियम में हो हर जगह आपको मिलेंगे. वहां ट्रेनिंग की कराई किताबें लिखी आर्टिकल लिखें क्योंकि रिसर्च सेंटर में काम कर रहे थे वह एक काम ही था और 2015 में हम डायरेक्ट टीचिंग वाले प्रोफेशन में ऑफर आया तो यहां फिर मैंने ज्वाइन कर लिया और 2015 से यहां हो और 3 साल से हेड भी कर रहा हूं डिपार्टमेंट को.

यहां पर मैंने अलग से एक न्यू मिस मैटिक मिडिवल इंट्रोड्यूस किया है और मैं मेडिकल न्यू मिस मैटिक का स्पेशलाइज्ड हूं और मेरे आने के बाद मैंने यहां एमए लेवल पर मिडिवल न्यूमिसमैटिक शुरुआत की जो कहीं भी नहीं पढ़ाई जाती है. एमए के स्तर पर केवल हमारे यहां पढ़ाया जाता है.

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