जन्मदिन विशेष: साहिर लुधियानवी का शायराना मिज़ाज

Story by  ज़ाहिद ख़ान | Published by  [email protected] | Date 08-03-2024
Birthday special: Sahir Ludhianvi's poetic mood
Birthday special: Sahir Ludhianvi's poetic mood

 

-अली सरदार जाफ़री

जिस किसी ने साहिर लुधियानवी को ये कहकर, कमतर दर्जे का शायर साबित करने की कोशिश की है कि वो टीन—एज यानी नौ—उम्र लड़के-लड़कियों का शायर है, उसने दरअसल साहिर की शायरी की सही क़द्र-ओ-कीमत (गरिमा और सम्मान) बयान की है. नौ—उम्र लड़के और लड़कियों के लिए शायरी करना कोई आसान काम नहीं है.

 उनके दिल में तर—ओ—ताज़ा उमंगें होती हैं। आलूदगी (अपवित्रता) से पाक आरजूएं होती हैं. ज़िंदगी के ख़ूबसूरत ख़्वाब होते हैं। और कुछ कर गुज़रने का हौसला होता है. इन जज़्बात और कैफ़ियात (हालात) को साहिर ने जिस तरह शायराना रूप दिया है, वो उसके किसी हमअस्र (समकालीन) शायर ने नहीं दिया. इससे पहले कि शायरों से इस बात की तवक़्क़ो भी नहीं की जा सकती थी.

साहिर नौ—उम्र लड़कों और ख़ास तौर से लड़कियों में सिर्फ़ अपने शे’र की वजह से मक़बूल था. हर शायर बहुत से वाक़िआत और हवादिस (दुर्घटनाएं) से दो-चार होता है, जो ज़िंदगी में उसकी शोहरत या बदनामी में इज़ाफ़ा करते हैं.

आज का अहद सियासी अहद बन गया है. इसलिए क़ैद-ओ-बंद (गिरफ़्तारी और निषेध) की सुऊबतें (तकलीफ़ें) भी शायर की शख़्सियत के गिर्द एक रूमानी हाला (प्रभामंडल) बना देती हैं. मुल्कों के किरदार भी कुछ हद अदा करते हैं.

 एक मुल्क से बाहर चला जाना, नेक काम समझा जाता है. दूसरे मुल्क से बाहर चला जाना क़ाबिल-ए-मज़म्मत (तिरस्कार के योग्य) समझा जाता है. साहिर की ज़िंदगी में इस तरह की कोई चीज़ नहीं मिलेगी. फिर भी नौजवानों में उसकी मक़बूलियत और हर-दिल-अज़ीज़ी ग़ैर मामूली और क़ाबिल-ए-रश्क़ (ईर्ष्या के योग्य) थी.

लड़कियां पहले साहिर की शायरी की गिरवीदा (मोहित) होती थीं, फिर साहिर से इज़हार-ए-इश्क़ करती थीं. ‘इश्क़ और दिल दर-ए-दिल माशूक़ पैदा मी शूद।’ की सच्चाई यहां साबित होती थी। और कुछ दिन साहिर उनकी नाज़बरदारियां (नाज बरदाश्त करना) करता था.

फिर कज-अदाई (बेमुरव्वती) दिखाता था. और आख़िर में तल्ख़-कलामी (कठोर वाक्य बोलना) भी कर लेता था. लेकिन उससे उसकी मक़बूलियत में और इज़ाफ़ा होता था. चुनांचे साहिर ने इश्क़ से बदनामियों का सामना करना अपना शेवा (दस्तूर) बना लिया था.

 दरअसल, ये सब जादू उसकी शायरी का था. और उसकी शायरी की सबसे बड़ी ख़ुसूसियत शिद्दत-ए-एहसास (अनुभूति की गहराई) और सुबुक (हलका) अंदाज़-ए-बयान है. यही वजह है कि नौजवानों में मक़बूल ये शायरी, 'उम्र-रसीदा (अधिक आयु के) लोगों को भी पसंद आती है.

 ऐसे लोग भी है, जिनको साहिर का पूरा कलाम ज़ु़बानी याद है. और उन्होंने इस कलाम से इतनी मुहब्बत की है कि साहिर की तुंद (कड़वी) और तल्ख़ जुबान भी निहायत ख़ंदा-पेशानी (उदारता) से बर्दाश्त की है.

ये साहिर की शख़्सियत का बड़ी अजीब और दिलचस्प रुख है. ख़ानदानी हालात कुछ ऐसे थे कि साहिर की परवरिश उसकी वालिदा ने तन्हा की थी. और वो हमेशा मरकज़-ए-तवज्जोह (ध्यान का केन्द्र) रहा.

इश्क़ में भी वो महबूब ज़्यादा रहा है और आशिक़ कम। इसलिए उसकी अपनी ज़ात और अपनी शायरी उसका सबसे ज़्यादा महबूब मौज़ूअ-ए-सुख़न (बातचीत का विषय) था. ये चीज़ उसकी फ़ितरत-ए-सानिहा (स्वभाव की त्रासदी) बन चुकी थी. जिसको क़लमी कामयाबी ने और भी चमका दिया.

यहीं से साहिर की शायरी में वासोख़्त (प्रेमी द्वारा प्रेमिका को जली क्टी सुनाना) के अंदाज़-ए-सुखन (शायरी का तरीक़ा) का सुराग़ मिलता है. जिसको उसने एक तरक़्क़ीपसंद जाविया (दृष्टिकोण) अता कर दिया. पुराने ज़माने के वासोख़्त लिखने वाले शुअरा (कवि—गण) महबूब को उसकी बेवफ़ाई का ताना देते थे, और उसके हुस्न और जवानी के ज़वाल (पतन) का ख़ौफ़ उसके दिल में पैदा करते थे.

साहिर ने इसमें एक तबक़ाई (वर्गीय) पहलू शामिल कर लिया और शायर की अमीर माशूक़ा को ग़रीब शायर के तंज़ का शिकार बनना पड़ा. ये चीज़ नौजवान को अच्छी लगती थी. हाफ़िज़ की ग़ज़ल के दो शे’रों का यह मायने हैं,''एक सुबह बुलबुल ने बाग़ में खिलने वाले नये फूल से कहा कि 'जरा नाज़ कम करना, क्योंकि तेरी तरह के बहुत से फूल इस बाग में खिल चुके हें और मुरझा गए हैं.

' गुल ने हँसकर जवाब दिया कि 'सच्ची बात से मुझे तकलीफ़ तो नहीं हुई, लेकिन आज तक किसी आशिक़ ने अपने माशूक से ऐसी सख़्त बात नहीं की थी.'''लेकिन साहिर ने इस सख़्त बात को हमेशा कहा और बड़ी शायराना हलावत (माधुर्य) के साथ कहा. उसी का एक अंदाज़ दूसरे तरीक़े से उसकी निहायत मक़बूल नज़्म ‘ताजमहल’ में मिलता है.

इस नज़्म में साहिर का मौज़ूअ-ए-सुखन ग़रीब शायर और अमीर महबूबा या अमीरों के आगोश में चली जाने वाली महबूबा नहीं है. बल्कि अमीर और ग़रीब की आशिक़ी का तक़ाबुल (मुक़ाबला) है। इस नज़्म का सारा निचोड़ आख़िरी शे’र में है,

एक शहंशाह ने दौलत का सहारा लेकर
हम ग़रीबों की मुहब्बत का उड़ाया है मज़ाक़.

लुत्फ़ ये है कि साहिर ने ताजमहल देखा नहीं था. अगर देख लिया होता, तो ऐसी नज़्म नहीं लिख सकता था. इस नज़्म में ग़लती ये है कि ताजमहल शाहजहाँ का कारनामा नहीं है, हिंदुस्तानी और ईरानी सन्नाओं (कलाकारों) और कारीगरों के हाथों का जादू है. लेकिन शायरी जो जज़्बे की लहरों पर मचलती है। मंतक़ (तर्कशास्त्र) के क़ाबू में नहीं आती.

साहिर लुधियानवी का ये तबक़ाती (वर्गीय) एहसास हुस्न-ओ-इश्क़ तक महदूद नहीं है, उसकी कार-फ़रमाई (असर) उसकी हर तख़्लीक़ में मिलेगी. उसकी शायराना जे़हानत में तलवार की धार थी. और तंज़ का एक पहलू भी रखती थी. उसके साथ साहिर बेबाक भी था. और अपनी बेबाक़ी का इज़हार सियासत से लेकर अमारत (लक्षण) तक हर महफ़िल में करता था.

 उसकी शायरी अपनी तमामतर बेबाक़ी के साथ ज़िंदा और ताबिंदा (प्रकाशमान) रहेगी। बाज़ औक़ात सतही नज़र से देखने वाले साहिर की शायरी को फ़ैज़ की शायरी का चर्बा (प्रतिरूप) समझ लेते हैं. ये ग़लतफ़हमी इस वजह से होती है कि दोनों की शायरी का महवर (केन्द्र) रूमान (प्रेम भाव) और एहतिजाज (प्रतिरोध) है.

लेकिन फ़ैज़ के यहां महबूब का वो तसव्वुर नहीं है, जो साहिर के यहां है. मख़दूम और मजाज़ की शायरी का महवर भी रूमान और एहतिजाज रहा है. मगर इन चारों हमअस्र शुअरा के मिज़ाज अलग-अलग हैं.

 मजाज़ के यहां सरफ़रोशाना सरशारी (जान देने को तत्पर उन्माद) है। फै़ज़ के यहां माशूक़ नवाज़ (प्रेमिका को मान देने वाली) हुस्न-परस्ती (सुंदर चीज़ों पर मुग्धता) और साहिर के यहां आशिक़ाना अनानियत (आशिक़ों की तरह का अहंवाद). और अनानियत की झलक ग़ालिब के यहां भी मिलती है,

वफ़ा कैसी कहाँ का इश्क़ जब सर फोड़ना ठहरा
तो फिर ऐ संग-दिल तेरा ही संग-ए-आस्ताँ क्यूँ हो

आज के अहद में ये अनानियत सिर्फ़ साहिर के हिस्से में आई. रूमान और एहतिजाज की इस शायरी में इंक़लाबी शुऊर (विवेक) की कमी नहीं थी. लेकिन रूमान की नम-नाक (आँसूओं से तर) हवाओं ने इस शुऊर को शोले में तब्दील नहीं होने दिया। जो शोला इक़बाल, नेरूदा, लुई अरागां और नाज़िम हिकमत की शायरी की रूह है.

(उर्दू से हिन्दी लिप्यंतरण : ज़ाहिद ख़ान और इशरत ग्वालियरी, साभार : किताब 'बाक़िआत—ए—अली सरदार जाफ़री,  संपादक : अली अहमद फ़ातमी)