मंसूरूद्दीन फरीदी /नई दिल्ली
अहमदाबाद के शाही इमाम द्वारा सियासी दलांे द्वारा टिकट दिए जाने को इस्लाम विरोधी बताने पर भारत के उलेमा और इस्लामिक विद्वानों ने तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की है. कई ने तो इमाम साहब को नए सिरे से इस्लाम और कुरान का अध्ययन करने की सलाह दे डाली.
अहमदाबाद के शाही इमाम के बयान को गैरवाजिब बताते हुए इस्लाम के विद्वान प्रो अख्तर उल वासे ने उनपर सवालों की बौछार कर दी. कहा, यह मसला जो गुजरात के इमाम ने उठाया है,
मूलरूप से चुनाव पूर्व तमाशा है. उन्हांेने पूछा- क्या यह किसी काम का है. क्या पैगंबर के समय में महिलाओं को जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में भाग लेने का अधिकार नहीं था ? क्या हजरत उमर की महफिल में औरतें शामिल नहीं हुई थीं ? क्या यह सही नहीं है कि खलीफा के रूप में हजरत उमर पुरुषों के अनुरोध पर दहेज की मात्रा को सीमित करने जा रहे थे, तो एक महिला के हस्तक्षेप और आपत्ति ने उन्हें ऐसा करने से नहीं रोका ?
क्या हजरत उमर ने खलीफा के रूप में एक महिला को बाजार की देखरेख के लिए नियुक्त नहीं किया था. क्या हजरत खदीजा आर्थिक सशक्तिकरण का प्रतीक नहीं हैं और क्या उन्हें पैगंबर बनने के बाद अल्लाह के रसूल द्वारा व्यापार करने से मना किया गया था ? क्या आयशा सिद्दीका को उम्मत की पहली शिक्षिका होने का गौरव प्राप्त नहीं है? और इस तरह वह उम्मत के लिए शैक्षिक सशक्तिकरण की आदर्श नहीं बनीं ?
प्रो अख्तर उल वासे ने आगे कहा कि क्या उम्मा सलमा राजनीतिक सशक्तिकरण की जीती-जागती मिसाल नहीं हैं,जिनकी परेशानियां हुदैबियाह की शांति के मौके पर फरास्त और साएब की सलाह से दूर नहीं हुईं?
उन्होंने कहा, आज के विकसित युग में जहां पाकिस्तान, तुर्की और इंडोनेशिया में महिलाएं तीन देशों की मुखिया रही हैं, वहीं बांग्लादेश में लंबे समय तक महिलाएं सरकार का नेतृत्व करती रहीं हैं और आज भी कर रही हैं.
उन्हांेने कहा,आज जब मुस्लिम महिलाएं अमेरिका से लेकर इंग्लैंड तक और मलेशिया से ऑस्ट्रेलिया तक अपनी राजनीतिक हैसियत का दावा कर रही हैं. इस तरह के बयान पुरुष प्रधान समाज की विचारधारा को दर्शाता है.
एक व्यक्ति जो अल्लाह और उसके रसूल का सच्चा अनुयायी है, वह ऐसी बात कभी नहीं कहेगा. उन्होंने आगे कहा कि पवित्र कुरान ने महिलाओं और पुरुषों को एक दूसरे के लिए वस्त्र के रूप में घोषित किया है, जो समानता का संदेश है. इतना ही नहीं,कुरान में पुरुषों के गुण भी महिलाओं के बताए गए हैं.फिर आप में इस तरह दोनों के बीच के अंतर को कैसे उचित और न्यायोचित ठहरा सकते हैं ?
इस मुददे पर प्रमुख विद्वान और अंताराष्ट्रीय सूफी कारवां के प्रमुख मुफ्ती मुहम्मद जिया ने अपनी राय व्यक्त करते हुए कहा कि इस तरह के बयान जारी करने से पहले इस्लाम और पैगंबर के जीवन और सिद्धांतों को पढ़ना चाहिए.
सिर्फ उसकी प्रक्रिया और मर्यादा ही महत्वपूर्ण है, जैसा कि हमारे भारत के संविधान में है. मौलाना, जिन्होंने यह बयान दिया है उन्हंे इस्लाम और कुरान का अध्ययन करना चाहिए, क्योंकि पैगंबर इस्लाम से पहले महिलाएं व्यापार और राजनीति से दूर हो गई थीं.
मगर उन्होंने हर क्षेत्र में उनकी क्षमताओं को स्वीकारा.उन्होंने आगे कहा कि इस्लाम ने कभी भी महिलाओं के रास्ते में ऐसी बाधाएं पैदा नहीं की हैं, बल्कि उनके रास्ते आसान किए हैं.
इस्लाम के इतिहास में हमारे सामने हजरत आइशा सहित कई उदाहरण हैं. महिलाओं ने कई व्यवसायों से महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. युद्ध के मैदान में भी. इस तरह के बयान देना केवल सुर्खियां बटोर सकता है, देश और समाज का भला नहीं कर सकता.