अटल जी के ‘गांधीवादी समाजवाद‘ के कायल हैं मुसलमान

Story by  क़ुरबान अली | Published by  [email protected] | Date 23-12-2021
अटल जी
अटल जी

 

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अटल बिहारी वाजपेयी भारतीय राजनीति का एक ऐसा चेहरा है जिसने अपनी राजनीति की शुरुआत राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के एक सदस्य के रूप में की. वे संघ के हिंदुत्ववादी एजेंडे के प्रबल समर्थक थे और 1957में दूसरी लोकसभा के लिए चुने जाने के बाद लगभग दो दशक तक संसद के दोनों सदनों में प्रभावशाली ढंग से संघ और भारतीय जनसंघ के मुद्दों को उठाते रहे.

अगर 1977में जनता पार्टी के गठन होने और जनसंघ के उसमें विलय के बाद अटल जी का एक नया चेहरा या कहें, अवतार सामने आया.23 मार्च 1977 को मोरारजी देसाई के नेतृत्व में जनता सरकार का गठन होने के बाद जिसमें अटल जी विदेश मंत्री बनाए गए, दिल्ली के रामलीला मैदान में एक जनसभा को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा, ‘‘हमारे बारे में कहा जा रहा है कि हम मुसलमान विरोधी हैं.

मुस्लिम देशों खासकर अरब के प्रति भारत सरकार की जो नीति है वह बदली जाएगी, लेकिन मैं आश्वस्त करना चाहता हूं कि अब तक भारत सरकार की जो नीति थी वह जारी रहेगी. हम स्वतंत्र फिलिस्तीन का समर्थन करते रहेंगे. अटल बिहारी वाजपेयी का यह बयान आज भी इंटरनेट पर मौजूद है.

भारतीय जनसंघ के नेता के रूप में अटल बिहारी वाजपेयी पाकिस्तान के साथ 1972 में किए गए शिमला समझौते के सख्त विरोधी थे. मगर 1977 में विदेश मंत्री के रूप  में वह पाकिस्तान गए और उसके साथ दोस्ती का हाथ बढ़ाया. जब लाहौर में पत्रकारों की ओर से उनसे सवाल किया गया कि वह तो शिमला समझौते के खिलाफ हैं.

अब यहां क्या करने आए हैं ? इसपर वाजपेयी जी का जवाब था, ‘‘उस समय मैं भारतीय जनसंघ का अध्यक्ष था. आज मैं जनता पार्टी का सदस्य हूँ जिसकी नीति अपने पड़ोसी देशों के साथ दोस्ती करने की है.‘‘

यह उल्लेखनीय है कि जनता सरकार में अटल जी के विदेश मंत्री रहते भारत के  पाकिस्तान से रिश्ते न केवल सामान्य से ज्यादा बेहतर हुए. लोगों की आवाजाही भी बड़े पैमाने पर हुई. भारत की ओर से कराची में वाणिज्य दूतावास खोला गया.

बम्बई में पाकिस्तान का वाणिज्य दूतावास स्थापित किया गया जिससे लोगों के आने जाने की सुविधा बढ़ी. बड़े पैमाने पर वीजा जारी किया गया. दोनों देशों के बीच व्यापार शुरू हुआ.

अटल बिहारी वाजपेयी के विदेश मंत्री रहते हुए पासपोर्ट बनाने की प्रक्रिया भी आसान हुई. पहले यह बड़ी जटिल थी. भारतीयों को खासकर मुसलमानों को बड़े पैमाने पर खाड़ी के देशों में रोजगार के अवसर मिले और देश को विदेशी मुद्रा के रूप में बड़ी रकम.

इससे देश की अर्थव्यवस्था मजबूत हुई. विदेशी मुद्रा भंडार बढ़ा. अटल जी ने अरब देशों के साथ रिश्ते बेहतर बनाने के लिए कई यात्राएं कीं. पाकिस्तान के उस भारत विरोधी प्रोपेगेंडा को विफल किया जो दशकों से अरब देशों को भारत से दूर रखे हुए था.

विदेश मंत्री के रूप में अटल जी कुछ और ज्यादा कर पाते उससे पहले ही महज ढाई साल में जनता सरकार गिर गई. पार्टी में भी विभाजन हो गया (1979) और जनसंघ घटक ने अटल जी के नेतृत्व में अप्रैल 1980में भारतीय जनता पार्टी का गठन कर लिया.

पार्टी का पहला अध्यक्ष बनने के साथ ही अटल जी ने जनसंघ की पुरानी विचारधारा त्यागते हुए ‘गांधीवादी समाजवाद‘ को अपनाया. उन्होंने पूर्व केंद्रीय मंत्री जस्टिस मोहम्मद करीम छागला से बीजेपी के पहले सम्मेलन का मुंबई में उद्घाटन कराया.

अपने पूर्व मंत्रिमंडलीय सहयोगी सिकंदर बख्त को पार्टी का उपाध्यक्ष बनाया. बाद में वह बीजेपी की ओर से राज्यसभा में नेता प्रतिपक्ष और वाजपेयी मंत्रिमंडल के सदस्य बने. उनके अलावा आरिफ बेग, इमदाद साबरी, प्राचा और कई अन्य मुस्लिम नेताओं को पार्टी में कई प्रमुख पदों पर नियुक्त किया गया.

भारतीय जनता पार्टी की यह सेक्युलर नीति 1986तक जारी रही. लालकृष्ण आडवाणी के बीजेपी अध्यक्ष बनने के बाद जब पार्टी ने  अयोध्या विवाद को लेकर अलग विचारधारा अपना ली और 1984में लोकसभा चुनावों में महज दो सीटें जीतने वाली बीजेपी 1989 में 90 सीटें जीत गई तो यह एक तरह से वाजपेयी दौर का अंत था.

1991 से 1996 तक बीजेपी में आडवाणी दौर का दौर-दौरा रहा. 1995 में हवाला कांड के बाद जब आडवाणी जी चुनावी राजनीति से बाहर हो गए तो एक बार फिर वाजपेयी जी का सितारा चमका. 1996के लोकसभा चुनावों में किसी भी पार्टी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिलने की सूरत में अटल जी सबसे बड़े दल का नेता होने के नाते प्रधानमंत्री बने.

मगर सिर्फ 13दिनों के लिए. लोकसभा में बहुमत न होने के कारण उन्हें इस्तीफा देना पड़ा. इन 13दिनों के लिए प्रधानमंत्री रहते हुए अटल जी ने गठबंधन सरकार बनाने की कला सीख ली. उन्होंने बीजेपी के कुछ खास एजेंडे को तर्क कर दिया और कहा कि बीजेपी के तीन विवादस्पद मुद्दे उनकी प्राथमिकता में नहीं हैं.

इन्हें वे ‘बैक बर्नर‘ पर रख रहे हैं. यही कारण था कि 1998 में जब इंद्र गुजराल के नेतृत्व वाली यूनाइटेड फ्रंट सरकार गिर गई और लोकसभा चुनाव हुए तो बीजेपी के नेतृत्व वाले एनडीए गठबंधन को स्पष्ट बहुमत मिला. वाजपेयी प्रधानमंत्री बने. वे 2004 तक इस पद पर रहे.

हालांकि 1999 में जयललिता द्वारा उनकी सरकार से समर्थन वापस लेने के कारण एक वोट से उनकी सरकार गिर गई. इसी वर्ष हुए मध्यावधि लोकसभा चुनाव में एनडीए को स्पष्ट बहुमत मिला. वाजपेयी अगले पांच वर्षों के लिए दोबारा प्रधानमंत्री चुने गए.

इस दौरान गुजरात दंगों को छोड़कर देश भर में आमतौर पर हालात ठीक रहे. अल्पसंख्यकों खासकर मुसलमानों के खिलाफ हिंसा और भेदभाव की घटनाएं बहुत कम हुईं. अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय और जामिया तथा हमदर्द विश्वविद्यालय सहित मुस्लिम इदारों के साथ ज्यादा छेड़छाड़ नहीं की गई.

मुसलमानों को प्रायः वाजपेयी सरकार से कुछ ज्यादा  शिकायतें नहीं रहीं. आम मुसलमानों को यह कहते सुना गया कि वाजपेयी अच्छे आदमी हैं. उनका रवैया मुस्लिम विरोधी नहीं है.

यह भी उल्लेखनीय है कि पूरे अयोध्या आंदोलन के दौरान वाजपेयी कभी अयोध्या नहीं गए. इसलिए वे न केवल भारतीय उपमहाद्वीप(पाकिस्तान और बांग्लादेश समेत) के मुसलमानों की पसंद बने, अरब देशों में भी उन्हें एक दोस्त के रूप में देखा जाता था.

नोटः लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं.बीबीसी से जुड़े रहे हैं. यह उनके अपने विचार हैं.