नई दिल्ली
राष्ट्रपति द्वारा संविधान के अनुच्छेद 143 के तहत सुप्रीम कोर्ट से यह राय मांगे जाने के बाद कि क्या राज्य विधानसभाओं द्वारा पारित विधेयकों को मंजूरी देने के लिए राज्यपालों और राष्ट्रपति पर समयसीमा लागू की जा सकती है, देश में एक गंभीर कानूनी बहस शुरू हो गई है।
यह मामला सुप्रीम कोर्ट के 8 अप्रैल 2025 के उस फैसले से उत्पन्न हुआ है जिसमें राज्य विधेयकों पर मंजूरी की प्रक्रिया में अनिश्चितकालीन देरी को लेकर चिंता जताई गई थी और तीन माह की समयसीमा निर्धारित की गई थी।
कुछ कानूनी विशेषज्ञों का मानना है कि यह समयसीमा सुशासन और विधायी प्रक्रिया की दक्षता को बढ़ावा देती है। वहीं, कुछ अन्य विशेषज्ञों का तर्क है कि संविधान के अनुच्छेद 200 और 201 राष्ट्रपति व राज्यपाल को निर्णय लेने में विवेक प्रदान करते हैं, जिसमें कोई सख्त समयसीमा नहीं दी गई है।
पूर्व कानून मंत्री अश्विनी कुमार ने इस पूरे घटनाक्रम को संवैधानिक और राजनीतिक रूप से अत्यंत महत्वपूर्ण बताया। उन्होंने कहा कि यह न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच संतुलन की कसौटी बन सकता है। उन्होंने उम्मीद जताई कि सुप्रीम कोर्ट इस संदर्भ में सलाहकार राय देकर स्थिति को स्पष्ट करेगा।
वरिष्ठ अधिवक्ता सिद्धार्थ लूथरा ने सवाल उठाया कि सुप्रीम कोर्ट कहां तक जाकर राष्ट्रपति और राज्यपाल जैसे संवैधानिक पदों को निर्देशित कर सकता है। उन्होंने कहा कि विधेयकों की मंजूरी में अनिश्चित देरी संघीय व्यवस्था और नागरिकों के विधायी अधिकारों को प्रभावित कर सकती है।
संवैधानिक कानून विशेषज्ञ सुमित गहलोत ने स्पष्ट किया कि अनुच्छेद 143 के तहत राष्ट्रपति सार्वजनिक महत्व के कानूनी या तथ्यात्मक मुद्दों पर सुप्रीम कोर्ट से राय मांग सकते हैं। उन्होंने यह भी कहा कि अनुच्छेद 74 राष्ट्रपति को मंत्रिपरिषद की सलाह से बंधा बनाता है, जिससे उनकी स्वतंत्र निर्णय क्षमता सीमित हो जाती है।
गहलोत ने बताया कि सुप्रीम कोर्ट ने 8 अप्रैल को जो समयसीमा तय की, वह गृह मंत्रालय के 2016 के कार्यालय ज्ञापन, सरकारिया आयोग और पुंछी आयोग की सिफारिशों के अनुरूप है। उन्होंने कहा कि विधेयकों को अनिश्चितकाल के लिए लंबित रखना गैर-जिम्मेदाराना रवैया माना जाना चाहिए।
अधिवक्ता आशीष दीक्षित ने कहा कि सुप्रीम कोर्ट द्वारा दी गई राय बाध्यकारी नहीं होती, लेकिन उसका नैतिक और संस्थागत महत्व होता है। उन्होंने याद दिलाया कि 2002 में दिए गए एक संदर्भ पर कोर्ट ने राय देने से इनकार कर दिया था, जिससे यह स्पष्ट होता है कि यह प्रक्रिया बाध्यकारी नहीं है।
वरिष्ठ अधिवक्ता आदिश अग्रवाल, जो सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के पूर्व अध्यक्ष हैं, ने अनुच्छेद 143 के तहत राष्ट्रपति द्वारा राय मांगे जाने का स्वागत किया। हालांकि उन्होंने आगाह किया कि सुप्रीम कोर्ट को अनुच्छेद 142 के तहत संवैधानिक अधिकारियों पर बाध्यकारी समयसीमाएं थोपने में संयम बरतना चाहिए। उन्होंने 1996 के सुप्रीम कोर्ट के एक निर्णय का हवाला दिया जिसमें कहा गया था कि अनुच्छेद 142 का उपयोग लचीला और स्थितिनिष्ठ होना चाहिए।
इस पूरी बहस ने यह स्पष्ट कर दिया है कि भारत में विधायी मंजूरी प्रक्रिया, संवैधानिक व्याख्या और संघीय संतुलन के मुद्दे अब एक बार फिर से न्यायिक विवेक और नीति-निर्माण के केंद्र में आ गए हैं।