नई दिल्ली
भारतीय सेना की अधिकारी कर्नल सोफिया कुरैशी पर की गई टिप्पणी को लेकर सुप्रीम कोर्ट ने मध्य प्रदेश सरकार में मंत्री कुंवर विजय शाह को कड़ी फटकार लगाई है. अदालत ने उनके खिलाफ दर्ज एफआईआर को रद्द करने से इनकार कर दिया और शुक्रवार, 16 मई को मामले की अगली सुनवाई तय की है.
मध्य प्रदेश हाई कोर्ट ने 14 मई को भाजपा मंत्री विजय शाह के खिलाफ “घृणास्पद भाषण” देने के आरोप में एफआईआर दर्ज करने का आदेश दिया था. आरोप है कि एक सरकारी कार्यक्रम में दिए गए अपने भाषण में शाह ने कर्नल सोफिया कुरैशी को “आतंकवादियों की बहन” कहकर संबोधित किया. अदालत ने उनकी भाषा को “अपमानजनक” और “नाली की भाषा” करार दिया.
इसके खिलाफ राहत की मांग करते हुए शाह ने देर रात सुप्रीम कोर्ट में याचिका दाखिल की, जिसमें उन्होंने दावा किया कि उनके बयान को मीडिया ने गलत तरीके से प्रस्तुत किया है. उनके वकील ने कोर्ट में कहा कि मंत्री ने सार्वजनिक रूप से माफी मांग ली है और उन्हें खेद है.
मुख्य न्यायाधीश की अध्यक्षता वाली पीठ ने कहा,
“संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति से जिम्मेदारी की अपेक्षा होती है. ऐसे पद पर बैठा व्यक्ति इस तरह की बयानबाजी कैसे कर सकता है? क्या यह एक मंत्री को शोभा देता है?”
सीजेआई ने आगे कहा कि,
“देश पहले ही एक संवेदनशील दौर से गुजर रहा है, ऐसे में सार्वजनिक पद पर बैठे व्यक्ति की हर बात गंभीरता से सुनी जाती है.”
अदालत ने स्पष्ट किया कि अभी एफआईआर पर कोई रोक नहीं लगाई जाएगी और शुक्रवार को इस मामले की विस्तृत सुनवाई की जाएगी.
विवादित बयान में विजय शाह ने कहा था:
“मोदी जी ने जो पहलगाम में हमारी बेटियों को विधवा किया, उसका जवाब देने के लिए पाकिस्तान में रहने वालों की तरह ही एक बहन को भेजा.”
उनकी इस टिप्पणी को व्यापक आलोचना का सामना करना पड़ा. कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने इसे “शर्मनाक और अश्लील” बताया और उनकी तत्काल बर्खास्तगी की मांग की.
बढ़ते विरोध के बाद विजय शाह ने एक वीडियो संदेश में माफ़ी मांगी और कहा:“मैं अपने बयान से बेहद शर्मिंदा और दुखी हूं। मैं दिल से माफी मांगता हूं.”
यह मामला न केवल राजनीतिक और सामाजिक रूप से संवेदनशील है, बल्कि इससे यह भी सवाल उठता है कि सार्वजनिक जीवन में जिम्मेदारी और भाषा की मर्यादा कितनी जरूरी है, विशेषकर तब जब टिप्पणी एक सशस्त्र बल की अधिकारी के बारे में हो. सुप्रीम कोर्ट की फटकार इस बात का स्पष्ट संकेत है कि लोकतंत्र में शब्दों की सीमा और गरिमा को बनाए रखना अनिवार्य है.