1 अगस्त 1933 को बंबई (अब मुंबई) में जन्मी नन्हीं महेजबीन बानो, जो आगे चलकर हिंदी सिनेमा की सबसे संवेदनशील अदाकारा मीना कुमारी बनीं, उनके जन्म के साथ ही एक अद्भुत किंतु दुखद कहानी की शुरुआत हो गई थी. जब वह पैदा हुईं, तो उनके पिता अली बख्श ने आर्थिक तंगी के चलते उन्हें एक अनाथालय के बाहर छोड़ने का फैसला किया था. लेकिन शायद किस्मत को कुछ और ही मंज़ूर था—वे वापस लौटे और बेटी को अपने साथ घर ले आए.
मीना कुमारी ने महज चार-पांच साल की उम्र में फिल्मों में काम करना शुरू कर दिया था—न अपनी मर्ज़ी से, बल्कि इसलिए कि घर चलाना था. विजय भट्ट की फिल्म लेदरफेस में उन्हें बतौर बाल कलाकार 25 रुपये मिले, जो उनके पूरे घर के एक महीने का खर्च था. यहीं से एक बच्ची का बचपन खत्म हुआ और अदाकारी की अनंत यात्रा शुरू हुई.
उन्होंने कभी औपचारिक शिक्षा नहीं ली, लेकिन उर्दू साहित्य और कविता में उनका गहरा रुझान था. गुलज़ार ने बाद में उनकी शायरी को प्रकाशित भी किया. उनके शब्दों में उनका दर्द झलकता है—“जब मैं पहली बार स्टूडियो गई, तो नहीं जानती थी कि मैं अपने बचपन की छोटी-छोटी खुशियों को हमेशा के लिए अलविदा कह रही हूँ.”
फिल्मों में एक चमकदार सफर, लेकिन निजी ज़िंदगी में टूटन
मीना कुमारी की फिल्मों की फेहरिस्त लंबी और प्रभावशाली है—पाकीज़ा, साहिब बीबी और गुलाम, आरती, परिणीता, बैजू बावरा , मेरे अपने, कोहिनूर, यहूदी जैसी क्लासिक्स में उन्होंने किरदारों को जीवन दिया. लेकिन जितनी ऊँचाई उन्होंने पर्दे पर हासिल की, उतनी ही गहराई में वह निजी जीवन में डूबती चली गईं.
उन्होंने 19 साल की उम्र में मशहूर निर्देशक कमाल अमरोही से गुपचुप शादी की, जो बाद में भावनात्मक दूरी और तल्ख़ रिश्तों में बदल गई. एक हादसे में चोट लगने के बाद उन्हें दर्द से राहत के लिए दी गई शराब धीरे-धीरे लत में बदल गई.
यह वही दौर था जब पाकीज़ा जैसे सपने को उन्होंने बिना किसी मेहनताना लिए, सिर्फ एक कलाकार और पत्नी के तौर पर निभाया. वे न केवल फिल्म की मुख्य अभिनेत्री थीं, बल्कि उन्होंने फिल्म की वेशभूषा भी डिज़ाइन की—जो आगे चलकर संजय लीला भंसाली और मुज़फ़्फ़र अली जैसे दिग्गजों के लिए प्रेरणा बनी.
मीना और दिलीप: ट्रेजेडी से ज़्यादा असर रोमांस और कॉमेडी का
दिलीप कुमार के साथ उनकी जोड़ी ने चार फिल्में कीं. दिलचस्प बात यह है कि ट्रेजेडी किंग और ट्रेजेडी क्वीन की जोड़ी जब हल्की-फुल्की कॉमेडी फिल्मों में आई, तब दर्शकों को ज़्यादा भायी. कोहिनूर और यहूदी में दोनों की कैमिस्ट्री दिल जीत लेती है.
आजाद की शूटिंग के दौरान एक जानलेवा हादसा होते-होते रह गया था, जब रोपवे की ट्रॉली से लटकते हुए मीना की जान खतरे में पड़ गई थी—उन्हें दिलीप कुमार ने बचाया.
पाकीज़ा: प्रेम, पीड़ा और परफॉर्मेंस का प्रतीक
पाकीज़ा मीना कुमारी की सबसे प्रतिष्ठित फिल्म रही. इस फिल्म की शूटिंग 1954 में शुरू हुई और 16 साल बाद 1972 में जाकर पूरी हुई. जब यह फिल्म रिलीज़ हुई, तो इसकी अदाकारी और साज-सज्जा ने सिनेप्रेमियों को मंत्रमुग्ध कर दिया.
पर अफ़सोस, इसके केवल डेढ़ महीने बाद 31 मार्च, 1972 को मीना कुमारी दुनिया से विदा हो गईं—महज 38 साल की उम्र में, अत्यधिक शराब के सेवन से लीवर की बीमारी के कारण.
उनकी मौत के बाद पाकीज़ा के लिए उन्हें बारहवीं बार फिल्मफेयर अवॉर्ड के लिए नामांकित किया गया, लेकिन यह पुरस्कार उन्हें नहीं मिला. अभिनेता प्राण ने इस अन्याय के विरोध में अपना पुरस्कार लेने से मना कर दिया—यह दर्शाता है कि फिल्म इंडस्ट्री में मीना कुमारी को कितना सम्मान और स्नेह मिला.
मीना कुमारी को उनके छद्म नाम पर गर्व था, लेकिन आज, एक सदी के करीब पहुंचने पर, सिनेमा जगत और हर संवेदनशील दर्शक को उन पर गर्व है.
वे एक अभिनेत्री नहीं, एक संपूर्ण कलाकार थीं—अदाकारा, कवयित्री, डिज़ाइनर, प्रेरणा और अंततः एक अधूरी किंवदंती। उनकी कहानी हमें बताती है कि कभी-कभी सबसे चमकीले सितारे सबसे गहरे अंधेरे से जन्म लेते हैं.