Sanjeev Kumar: Beyond the screen, the story of a sensitive soul — Memories on his death anniversary.
अर्सला खान/नई दिल्ली
हिंदी सिनेमा के इतिहास में अगर किसी अभिनेता ने भावनाओं की गहराई और अभिनय की सादगी से दर्शकों के दिलों पर अमिट छाप छोड़ी, तो वह थे संजीव कुमार। आज उनकी पुण्यतिथि पर फिल्म जगत और उनके प्रशंसक एक ऐसे कलाकार को याद कर रहे हैं, जिसने अभिनय को साधना बना दिया था।
संजय कुमार, जिनका असली नाम हरिभाई जरीवाला था, का जन्म 9 जुलाई 1938 को सूरत में हुआ था। उनका सफर गुजराती थिएटर से शुरू होकर बॉलीवुड की ऊँचाइयों तक पहुंचा। उन्होंने सिर्फ हीरो नहीं, बल्कि हर उम्र और हर भावना का किरदार निभाया — चाहे कोशिश का मूक-बधिर व्यक्ति हो या आंधी का परिपक्व नेता; शोले का ठाकुर हो या त्रिशूल का बेबस पिता। उनके अभिनय की सादगी ने हर चरित्र को जीवंत बना दिया।
कम ही लोग जानते हैं कि संजीव कुमार को फिल्मों से पहले असिस्टेंट डायरेक्टर की नौकरी करनी पड़ी थी। 1960 में फिल्म हम हिंदुस्तानी से उन्होंने छोटे किरदार के साथ बॉलीवुड में कदम रखा, लेकिन असली पहचान उन्हें खिलौना और दास्तक जैसी फिल्मों से मिली। दास्तक के लिए उन्हें राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला — यह साबित करता है कि वह स्टारडम से ज्यादा किरदार की आत्मा में विश्वास करते थे।
उनकी जिंदगी उतनी ही जटिल थी जितनी उनकी फिल्में। प्रेम कहानियों में असफलता और अकेलेपन ने उन्हें भीतर से तोड़ा। हेमा मालिनी के प्रति उनका गहरा स्नेह अक्सर चर्चाओं में रहा, लेकिन यह रिश्ता अधूरा रह गया। कहा जाता है कि इसी अधूरेपन ने उन्हें भीतर से संवेदनशील और गंभीर बना दिया।
दिल के मरीज संजीव कुमार महज 47 वर्ष की उम्र में 6 नवंबर 1985 को इस दुनिया को अलविदा कह गए। उनकी अचानक हुई मौत ने फिल्म उद्योग को स्तब्ध कर दिया। दिलचस्प बात यह है कि उन्होंने अपनी कई फिल्मों में उम्रदराज किरदार निभाए, जैसे शोले के ठाकुर या सिलसिला के पिता — और वास्तविक जीवन में वे उन भूमिकाओं से बहुत पहले विदा हो गए।
आज, उनकी पुण्यतिथि पर संजीव कुमार सिर्फ एक अभिनेता नहीं, बल्कि अभिनय की एक संस्था के रूप में याद किए जाते हैं। उन्होंने सिखाया कि बड़ा बनने के लिए चमक नहीं, बल्कि गहराई चाहिए। उनका जीवन सादगी, संवेदनशीलता और समर्पण का प्रतीक है — एक ऐसी विरासत, जो समय के साथ और अमर होती जा रही है।