जिनकी लेखनी का एक-एक लफ़्ज़ सादे काग़ज़ पर मोतियों की तरह चमकता है

Story by  ज़ाहिद ख़ान | Published by  [email protected] | Date 01-12-2021
जिनकी लेखनी का एक-एक लफ़्ज़ सादे काग़ज़ पर मोतियों की तरह चमकता है
जिनकी लेखनी का एक-एक लफ़्ज़ सादे काग़ज़ पर मोतियों की तरह चमकता है

 

सन्दर्भ : 1 दिसम्बर, प्रोफेसर एहतेशाम हुसैन की पुण्यतिथि                                               

-ज़ाहिद खान                                                               

प्रोफेसर एहतेशाम हुसैन तरक़्क़ीपसंद तहरीक के अहम सुतून थे.उर्दू अदब में तरक़्क़ीपसंद खयालों को फैलाने में जिन शख्सियतों ने अपना खास रोल अदा किया उसमें उनका नाम सबसे अव्वल दर्जे पर आता है.एहतेशाम हुसैन ने यूं तो शायरी की, अफसाने लिखे, सफरनामा लिखा लेकिन उनकी असल व अहम शिनाख़्त एक तरक़्क़ीपसंद मार्क्सवादी नक़्क़ाद की है.

अदब का अपने मुआशरे से रिश्ता कायम करते हुए, उसे इतिहास और जमाने के टकराव के पसमंज़र में देखना एहतेशाम हुसैन का बुनियादी कारनामा था.उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ जिले के माहुल गांव में 11 जुलाई 1912 में पैदा हुए, एहतेशाम हुसैन की शुरुआती तालीम आजमगढ़ में ही हुई.

आगे की तालीम हासिल करने के लिए वह इलाहाबाद पहुंचे.पूरे मुल्क के साथ-साथ इलाहाबाद में भी अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ आंदोलन चल रहे थे.ख़ास तौर पर इलाहाबाद 'सविनय अवज्ञा आंदोलन' का मरकाज बना हुआ था.

बर्तानवी माल का जगह-जगह बायकॉट किया जा रहा था.बहरहाल ऐसे हंगामाख़ेज़ माहौल में एहतेशाम हुसैन ने इलाहाबाद  यूनिवर्सिटी में दाखिला लिया.यूनिवर्सिटी में उन्हें जो उस्ताद मिले, उनमें प्रोफेसर सतीश चंद्र देव, फिराक गोरखपुरी, ज़ामिन अली, अब्दुल सत्तार सिद्दीकी और सबसे अव्वल एजाज हुसैन से वे काफी मुतासिर हुए.एक लिहाज से कहें तो उनकी जिंदगी, शख्सियत और ज़ेहनी, फिक्री बनावट में डॉ. एजाज हुसैन ने अहम रोल अदा किया.वह एजाज हुसैन ही थे, जो एहतेशाम हुसैन को अंग्रेजी से उर्दू की तरफ लेकर आए.

इन सब उस्तादों की सोहबत में  उन्होंने काफी कुछ सीखा.एजाज हुसैन के यहां जो अदबी बैठकें होती, एहतेशाम हुसैन उनमें बाकायदागी से शिरकत करते.इन बैठकों में ना सिर्फ उन्हें सियासी नजरिया दिया, बल्कि समाजी मामलों में भी दिलचस्पी बढ़ाई.

एहतेशाम हुसैन ने 20 साल की उम्र से ही लिखना शुरू कर दिया था.शुरुआत में उन्होंने शायरी, अफसाने और ड्रामे लिखे। लेकिन बाद में एक बार जो तनक़ीद की और रुख़ किया, तो फिर उसी के हो लिए.मार्क्सवाद और तरक़्क़ीपसंद तहरीक ने प्रोफेसर एहतेशाम हुसैन को हद दर्जे तक मुतासिर किया.ख़ुद उनकी नजर में "मैं मार्क्सवाद को सबसे बेहतरीन दर्शनशास्त्र समझता हूं और उसी की मदद से जिंदगी और अदब को समझने की कोशिश  करता हूं.मेरा ख़याल है कि आलोचना और आत्म-आलोचना के मार्ग पर चलकर, हम उस सच्चाई को ढूढ़ने में कामयाब हो सकते हैं, जिससे जिंदगी के मर्म समझ में आ सके.

मेरा यकीन है कि अदब के समझने में तरक़्क़ीपसंद समाजी नजरिया सबसे ज्यादा कारगर साबित हो सकता है." (किताब-'उर्दू साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास', पेज-272) साल 1935 में सज्जाद ज़हीर लंदन से अपनी तालीम मुकम्मल करके इलाहाबाद आए.

उन्होंने  प्रगतिशील लेखक संघ के गठन के लिए इलाहाबाद में जो ऐतिहासिक बैठक आयोजित की, उसमें अहमद अली, फ़िराक़ गोरखपुरी, प्रेमचंद, अब्दुल हक, दया नारायण निगम, रशीद जहां और अपने उस्ताद एजाज हुसैन के साथ नौजवान एहतेशाम हुसैन भी शरीक हुए.तरक़्क़ीपसंद तहरीक ने एहतेशाम हुसैन पर काफी असर डाला.इस तहरीक ने उनमें एक नजरिया, एक नई सोच पैदा की.

साल 1936 में प्रगतिशील लेखक संघ की पहली कॉन्फ्रेंस लखनऊ में हुई.इस ऐतिहासिक कॉन्फ्रेंस के बाद, जो दो कॉन्फ्रेंस इलाहाबाद में हुईं उनमें एहतेशाम हुसैन ने ना सिर्फ हिस्सा लिया बल्कि बाकी कामों में भी बढ़-चढ़कर मदद की.एजाज हुसैन की संगत में उनका रुझान तनक़ीद की तरफ हुआ और वह बाक़ायदगी से लेख लिखने लगे.

तरक़्क़ीपसंद तहरीक के मुखपत्र 'नया अदब' में उनका लेख 'प्राचीन साहित्य और प्रगतिशील आलोचक' प्रकाशित हुआ.'चकबस्त : नए युग के प्रणेता' वह लेख था, जिससे सभी का ध्यान एहतेशाम हुसैन की तरफ गया.

प्रोफेसर एहतेशाम हुसैन ने तनक़ीद निगारी के मैदान में उस वक्त कदम रखा, जब उर्दू अदब में आलोचना एक संक्रांति काल से गुजर रही थी.आजाद, शिब्ली, हाली और सर सैयद के बाद अब्दुर्रहमान बिजनौरी, नियाज फतेहपुरी और मजनू गोरखपुरी ने तनक़ीद को मार्क्सवादी यथार्थवाद की तरफ मोड़ा.

एहतेशाम हुसैन भी उसी रहगुज़र को पर चले.अपने निबंधों के पहले मजमुए 'तनक़ीदे जायजे' में हिंदुस्तानी तरक़्क़ीपसंद तहरीक की पैरवी करते हुए एहतेशाम हुसैन लिखते हैं, "भारतीय प्रगतिशील आंदोलन दुनिया में प्रगतिशीलता के आंदोलन, समाजवाद के विचार का प्रचार, फासिज़्म के खिलाफ सांस्कृतिक और साहित्यक मोर्चा कायम करने के आंदोलन का एक हिस्सा है.

उसे उन आंदोलनों के हिस्से के रूप में देखना चाहिए लेकिन इससे यह ना समझना चाहिए कि यह आंदोलन बाहर से लाया गया है या बाहर के आंदोलनों की नकल है." साल 1938 में एहतेशाम हुसैन की नियुक्ति लखनऊ यूनिवर्सिटी के उर्दू महकमे में प्रोफेसर के ओहदे पर हो गई.साल 1944 में उनकी किताब 'तनक़ीदी जायजे' शाया हुई और इसके बाद एहतेशाम हुसैन की गिनती मार्क्सवादी चिंतक और आलोचक के तौर पर होने लगी.

साल 1947 में मुल्क आज़ाद हुआ लेकिन यह आज़ादी बंटवारा भी लेकर आई.सांप्रदायिक दंगों में हजारों लोग मारे गए और घायल हुए.उस वक्त तरक़्क़ीपसंद अदीबों ने सांप्रदायिक सौहार्द, इंसान दोस्ती और साझा संस्कृति के मौज़ू पर ना सिर्फ कई कॉन्फ्रेंस की, बल्कि लेख और किताबें भी लिखीं.

एहतेशाम हुसैन ने भी फिरकापरस्ती और कल्चर के मौज़ू पर अनेक मजामीन लिखें.'तनक़ीदी जायजे', 'रवायत और बगावत', 'अदब और समाज' उनके निबंधों की अहम किताबें हैं.इन किताबों में 'अदब और एखलाक', 'नए अदबी रूझानात', 'तरक़्क़ीपसंदी की रवायत', 'अदब में आज़ादी-ए-तख़य्यूल', 'फिरकापरस्ती और अदब', 'अदब और हुब्बुल वतनी और वफादारी', 'गालिब की बुतशिकनी' जैसे शानदार लेख लिखे.

एहतेशाम हुसैन के लेखन पर सबसे ज्यादा असर उनके उस्ताद एजाज हुसैन और सज्जाद ज़हीर का था.तरक़्क़ीपसंद तहरीक के विचार को उर्दू अदब में फैलाने में उनका बड़ा योगदान रहा.  जब भी तरक़्क़ीपसंद शायरी और तरक़्क़ीपसंद अदीबों पर हमले होते, उनकी आलोचना की जाती, तो उनका जवाब देने के लिए एहतेशाम हुसैन ही सामने आते.

अपनी किताब 'रवायत और बगावत' में ऐसे विरोधियों को जवाब देते हुए, वह लिखते हैं, "तरक़्क़ीपसंद अदब ना तो विदेशी है, ना अश्लील और ना नग्नता की हिमायत करता है.ना तो मजहब की मुख़ालिफ़त या खुदा की तौहीन में यकीन करता है, ना हत्या और अपराध, ख़ौफ़ और दहशत-पसंदी को जिंदगी के किसी हिस्से में जगह देना चाहता है, बल्कि जिंदगी की कश्मकश में इंसानियत के जो प्रगतिशील तत्व हैं, उनको बढ़ावा देता है.

दुनिया को हर किस्म के जुल्म और सितम, नाइंसाफी, मुनाफाखोरी, मायूसी और गम से बचाने की तमन्ना रखता है, लेकिन वह इंसानियत के ऊंचे मूल्यों को कुछ खास लोगों की नहीं बल्कि आम इंसानों की मिलकियत बना देना चाहता है.उसकी यह ख्वाहिश ऐसे तारीख़ी तक़ाज़ों पर आधारित है कि अगर नजरिए को रहनुमा बनाकर काम किया जाए, तो कामयाबी यकीनी है."

एहतेशाम हुसैन अपनी जिंदगी के आखिरी वक्त तक तरक़्क़ीपसंद तहरीक से ना सिर्फ जुड़े रहे, बल्कि अपने लेखन से इसको नए मायने, गहराई और इसका विस्तार किया.तंजीम पर जब भी कोई आफ़त आती या उस पर हमले किये जाते, वह तुर्की-ब-तुर्की जवाब देते.'तनक़ीद और अमली तनक़ीद', 'जौके-अदब और शऊर', 'अक्स और आईने', 'अफकारो-मसायल',  'एतबार-ए-नजर' एहतेशाम हुसैन की अहम तनक़ीद और निबंधों की किताबें हैं.

वही 'साहित्य और समंदर' उनका सफरनामा है.'वीराने' मजमुए में उनके अफसाने शामिल हैं, तो वही 'हिंदुस्तानी लिसानियात का खाका' भाषा-विज्ञान संबंधी उनकी एक किताब है.यही नहीं 'उर्दू साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास' एक ऐसी किताब है, जिससे हिंदी के पाठकों को उर्दू के बारे में एक नई रोशनी मिलती है.

वे उसके इतिहास से वाकिफ़ होते हैं.यह किताब काफी मकबूल है और इसके अभी तलक कई संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं.उर्दू साहित्य के इतिहास पर यह प्रमाणित किताब है.इस किताब का रूसी तर्जुमा भी हो गया है.

प्रोफेसर एहतेशाम हुसैन साल 1961 में लखनऊ से इलाहाबाद यूनिवर्सिटी आ गए और साल 1972 तक यहां उर्दू महकमे में प्रोफेसर के ओहदे पर रहे.1 दिसंबर 1972 को उन्होंने इस फ़ानी दुनिया को हमेशा के लिए अलविदा कह दिया.

एहतेशाम हुसैन के इंतकाल के बाद सज्जाद ज़हीर ने उन्हें अपनी खिराज-ए-अकीदत पेश करते हुए लिखा, "जब आज एहतेशाम हुसैन दामन छुड़ाकर इस दुनिया से उठ गए हैं, हम फ़ख़्र और यकीन के साथ कह सकते हैं कि उनकी तहरीर का एक-एक लफ़्ज़ जब तक सादे कागज पर सच्चे मोतियों की तरह चमकता रहेगा,

वह हमें और हम से बाद आने वालों को इस आंदोलन को नई राहों में ले जाने और सच्चाई तथा तरीकों की तलाश और बदलते हुए हालात के मुताबिक नए फिक्र और रचनात्मक कोशिशों के लिए आमादा करता रहेगा और जब हम उस बुलंद और शरीफ़ इंसानियत पसंद मकसद को हासिल करने की कोशिश करते रहेंगे, तब हर घड़ी हम एहतेशाम हुसैन को याद रखेंगे,इसलिए कि उनकी सारी जिंदगी इसी मकसद को हासिल करने के लिए खर्च हुई."