साकिब सलीम
भारत में औपनिवेशिक ब्रिटिश शासन के पीछे सबसे शक्तिशाली नीति, भारतीयों को धर्म, जाति, भाषा, क्षेत्र आदि के नाम पर छोटे-छोटे समूहों में विभाजित करना था. उन्होंने इतिहासकारों को भारतीय इतिहास, विभिन्न धर्मों, खासकर हिंदुओं और मुसलमानों के बीच निरंतर संघर्ष के रूप में लिखने के लिए नियुक्त किया. यह प्रचार इतना सफल रहा कि आज भी, आजादी के सात दशक से अधिक समय बाद, भारतीय विद्वान इतिहास के इन विकृत संस्करणों को दोहराते हैं.
रायबरेली के सैयद अहमद बरेलवी या सैयद अहमद शाहिद ऐसे ही एक भारतीय स्वतंत्रता सेनानी हैं, जिनकी छवि इन विभाजनकारी ऐतिहासिक आख्यानों द्वारा विकृत की गई है. अक्सर यह माना जाता है कि सैयद अहमद एक कट्टर उग्रवादी मुस्लिम नेता थे, जिन्होंने सिखों और हिंदुओं के खिलाफ युद्ध छेड़ा था. उनके आंदोलन को औपनिवेशिक अधिकारियों ने विशेष रूप से मुसलमानों और आम तौर पर भारतीयों के बीच दरार पैदा करने के लिए गलत तरीके से वहाबी कहा था.
सच यह है कि सैयद अहमद एक सैन्य नेता थे, जो 19वीं सदी की शुरुआत में मुस्लिम समाज में सुधार करना चाहते थे. उन्होंने मुसलमानों को फिजूलखर्ची के खिलाफ संगठित किया, विधवा विवाह को बढ़ावा दिया और लोगों से धर्म के मार्ग पर चलने को कहा. उस दौर के अधिकांश आंदोलनों की तरह उनका आंदोलन भी राजनीतिक हो गया. विदेशी शासन को भारतीय मुसलमानों के पिछड़ेपन और भ्रष्टाचार के प्रमुख कारणों में से एक माना जाता था. उनके शिक्षक शाह अब्दुल अजीज को ब्रिटिश शासन के खिलाफ संघर्ष करने और बहिष्कार करने का फतवा देने वाला पहला व्यक्ति माना जाता है.
आम धारणा के विपरीत, सैयद अहमद ने इस्लामी राज्य की स्थापना के लिए हथियार नहीं उठाए. उनका आंदोलन मुसलमानों तक ही सीमित नहीं था, वहाबियों की तो बात ही छोड़िए. 1957 में केके दत्ता ने बिहार में स्वतंत्रता आंदोलन का इतिहास लिखा, जो बिहार सरकार की एक परियोजना थी. पुस्तक में उन्होंने सैयद अहमद का एक पत्र प्रकाशित किया, जो उन्हें उनके शोध सहायक एफ. बाल्खी ने दिया था पत्र में लिखा है, ‘‘यह आपके लिए स्पष्ट है कि दूर देश के शत्रुतापूर्ण विदेशी, देश के स्वामी बन गए हैं, कि व्यापारियों ने ‘सल्तनत’ की गरिमा ग्रहण कर ली है और महान शासकों के शासन और उच्च पदस्थ सरदारों के पद को उनके सम्मान और आदर से वंचित करके नष्ट कर दिया है.’’
उन्होंने लिखा, ‘‘जब से शासकों और राजनेताओं ने एकांत में शरण ली, तब से गरीब और असहाय व्यक्तियों का एक समूह अपनी कमर कस चुका है. यह कमजोर समूह किसी भी सांसारिक लाभ की आकांक्षा नहीं करता है. वे धन और शक्ति की थोड़ी सी भी इच्छा के बिना ईश्वर की सेवा की भावना से प्रेरित हैं.’’ ‘‘जिस क्षण भारत विदेशियों से मुक्त हो जाएगा और प्रयासों का तीर अपने लक्ष्य पर पहुंच जाएगा, तब पद और शासन उन लोगों के लिए बरकरार रहेगा, जो इसे चाहते हैं, और उनकी गरिमा और शक्ति मजबूत होगी. यह कमजोर समूह महान शासकों और उच्च गणमान्य लोगों से केवल इतना ही चाहता है कि जब तक वे शासन के मसनद पर काबिज हैं, तब तक दिल और आत्मा से इस्लाम की सेवा की जानी चाहिए.’’ ‘‘यद्यपि इस गरीब समूह के पास पर्याप्त साधन नहीं हैं, फिर भी प्रभु की इच्छा से यह प्रसन्न और प्रसन्न है तथा सत्ता और धन की लालसा से घृणा करता है, तथा धन-संपत्ति से दूर रहता है, जिसका वे न तो अभी और न ही भविष्य में उपभोग करना चाहते हैं.’’ ‘‘पुराने राज्यों के शासकों में से कोई भी यदि सहायता के लिए आगे आता है, तो वह केवल अपने राज्य की नींव को मजबूत करेगा. इस स्नेहपूर्ण पत्र का आशय वास्तव में हाजी बहादुर शाह द्वारा विस्तार से आपको समझाया जाएगा, जो मेरे पुराने सहयोगी हैं.’’
एक अन्य पत्र में सैयद अहमद ने लिखा कि उनका उद्देश्य अपने लिए एक राज्य बनाना, शासन करना या कोई नई व्यवस्था स्थापित करना नहीं था. वह यूरोपियनों को भारत से बाहर निकालना चाहते थे और भारतीयों, हिंदुओं और मुसलमानों को आपस में उसी तरह शासन करने देना चाहते थे, जैसे वे ब्रिटिश साम्राज्यवाद से पहले रहते थे.