उस्ताद अली अकबर खां की पंडित रविशंकर से जुगलबंदी थी शानदार

Story by  ज़ाहिद ख़ान | Published by  [email protected] | Date 21-02-2024
Ustad Ali Akbar Khan's jugalbandi with Pandit Ravi Shankar was brilliant.
Ustad Ali Akbar Khan's jugalbandi with Pandit Ravi Shankar was brilliant.

 

-ज़ाहिद ख़ान

भारतीय शास्त्रीय संगीत में उस्ताद अली अकबर ख़ाँ की शिनाख़्त अद्वितीय सरोद वादक की है.मैहर घराने के इस शानदार संगीतज्ञ के वालिद उस्ताद अलाउद्दीन ख़ाँ भी एक प्रसिद्ध सरोद वादक थे.भारतीय शास्त्रीय संगीत परंपरा के वे पितामह कहे जाते हैं.तारयुक्त वाद्य यंत्रों में महारत रखने वाले उस्ताद अली अकबर ख़ाँ ने शास्त्रीय संगीत के लिए अद्भुत एवं अमर रचनाओं का सृजन किया.

 भारतीय संगीत परंपरा को नए मुक़ाम तक पहुंचाया.प्रसिद्ध वायलिन वादक येहुदी मेनुहिन ने उस्ताद अली अकबर ख़ाँ की तारीफ़ करते हुए, उन्हें दुनिया का महान संगीतकार बतलाया था.

उस्ताद अलाउद्दीन ख़ाँ की उनके बारे में कैफ़ियत थी, ‘‘अली अकबर ख़ाँ का जन्म केवल सरोद के लिए हुआ है.’’ उस्ताद अली अकबर ख़ाँ की जादुई सरोद वादन के सम्मोहन में दुनिया भर के अनेक कलाकार सरोद की ओर आकर्षित हुए.

 उनके द्वारा बजाये राग देश मल्हार एवं नट भैरव की सीडी आज भी संगीत रसिकों के लिए अनमोल ख़ज़ाना हैं.उस्ताद अली अकबर ख़ाँ ने कई रागों का सृजन किया.जिनमें कुछ ख़ास राग हैं-‘चन्द्रनन्दन’, ‘हिण्डोल-हेम’, ‘लाजवन्ती’, ‘भूप-माण्ड’, ‘भैरवी भटियार’, ‘गौरी मंजरी’, ‘मिश्र शिवरंजनी’ और ‘माधवी’.

यह ऐसे राग हैं, जो मौजूदा दौर के किसी भी तन्त्रवादक के लिए बजाना आसान काम नहीं.उस्ताद अली अकबर ख़ाँ, एक उच्च कोटि के सुर, साज़ और संगीत के शिखर सृजनकार थे.वे भारतीय शास्त्रीय संगीत के पुरोधा और देश के महानतम सरोद-वादक थे.उस्ताद अली अकबर ख़ाँ ने अपने बेहतरीन सरोद वादन से सरोद को विश्वव्यापी मान्यता और लोकप्रियता दिलाने का काम किया.

14 अप्रैल, 1922 में अविभाजित भारत के शिबपुर, कोमिला (यह इलाक़ा अब बांग्लादेश में आता है.) में जन्मे अली अक़बर ख़ाँ ने गायन तथा वादन की तालीम अपने वालिद के अलावा चाचा फ़कीर अफ़्ताबुद्दीन से ली.महज़ तीन साल के थे, तब से ही उनके वालिद बाबा अलाउद्दीन ने उन्हें संगीत की तालीम देनी शुरू कर दी थी.

 उनमें सुर, लय, ताल और मुरकियों की गहरी समझ पैदा की,लेकिन अली अक़बर ख़ाँ को संगीत में कोई दिलचस्पी नहीं थी.रियाज़ की बनिस्बत उन्हें खेलना-कूदना ज़्यादा पसंद था.जब उनकी यह हरकत बाबा अलाउद्दीन ख़ाँ को मालूम चली, तो वे बहुत नाराज़ हुए.अली अक़बर की बेंतों से खूब पिटाई हुई.

उसके बाद बाबा अलाउद्दीन ख़ाँ ने उन पर नज़र रखना शुरू कर दी.14से 18घंटे अपने पास बिठाकर, उन्हें शास्त्रीय गीत-संगीत की बारीकियां सिखाते और खूब रियाज़ करवाते.यह वह दौर था, जब पंडित रविशंकर भी अलाउद्दीन ख़ाँ के शार्गिद थे.बाबा के एक तरफ अली अकबर ख़ाँ बैठते, तो दूसरी ओर रविशंकर.

 वे दोनों को सितार और सुरबहार बजाना सिखाते.एक साथ दोनों रियाज़ करते.सच बात तो यह है कि यहीं से उस्ताद अली अकबर ख़ाँ और पंडित रविशंकर की जुगलबंदी का आग़ाज़ हुआ.

आगे चलकर देश के अनेक प्रसिद्ध संगीत समारोह में दोनों ने सितार-सरोद की संगीतमय जुगलबंदी की.इन दोनों ने साल 1939 में इलाहाबाद में सबसे पहले जुगलबंदी की.उसके पहले कभी किसी संगीत कार्यक्रम में सितार-सरोद एक साथ नहीं बजे थे। श्रोताओं ने जब यह जुगलबंदी सुनी, तो वे मंत्रमुग्ध हो गए.

अली अकबर ख़ाँ ने अलाउद्दीन ख़ाँ साहब से ध्रुपद, धमार, ख्याल व तराना आदि की तालीम हासिल की। वहीं अपने चाचा फ़कीर अफ़्ताबुद्दीन से पखावज एवं तबला बजाना सीखा.नौ साल की उम्र से उन्होंने सरोद सीखना शुरू किया.

इन गुणीजन गुरुओं की शिक्षा और रविशंकर, पन्नालाल घोष, अन्नपूर्णा देवी और निखिल बैनर्जी जैसे होनहार सहपाठियों की संगत में अली अकबर ख़ाँ की शख़्सियत और उनके अंदर बैठा कलाकार ख़ूब निखरा.

जब उनकी उम्र चौहदह साल के आसपास थी, तब उन्होंने इलाहाबाद में एक संगीत समारोह में अपनी पहली संगीत प्रस्तुति दी.बीस साल की उम्र आते-आते वे लखनऊ में अपनी पहली ग्रामोफ़ोन रिकार्डिंग करा चुके थे.उस्ताद अली अकबर ख़ाँ ने लखनऊ आकाशवाणी में कुछ अरसे तक काम किया.

 साल 1941 से लेकर 1943 तक वे स्टाफ आटिस्ट रहे.इसके बाद वे कुछ साल राजस्थान के जोधपुर स्टेट में भी रहे.उन्होंने वहां गायन के अलावा नई-नई संगीत रचनाएं कीं.विद्यार्थियों को संगीत और वादन पढ़ाया-सिखाया.जोधपुर महाराजा हनवंत सिंह ने ही अली अकबर ख़ाँ को ‘उस्ताद’ की उपाधि प्रदान की.

 साल 1947 में देश की आज़ादी के साथ ही रियासतें ख़त्म हो गईं.1952में एक विमान दुर्घटना में महाराजा हनवंत सिंह के निधन होने के बाद, उस्ताद अली अकबर ख़ाँ मुंबई चले आए.उन्होंने शास्त्रीय संगीत समारोहों और रेडियो कार्यक्रमों में अपनी आमद—ओ—रफ़्त (आना जाना) बढ़ा दी.

उस्ताद अली अकबर ख़ाँ के वादन में मींड, स्वरों की नई-नई रचनाओं की उपज, लयकारी व तान मिलाने की रीति बिल्कुल मौलिक है.उन्होंने अपनी शैली में वीणा और सितार की वादन तकनीकों के साथ-साथ गायिकी और तन्त्रकारी दोनों अंगों का अद्भुत मिलन किया है.

उस्ताद अली अकबर ख़ाँ द्वारा ईजाद की गई एक रचना ‘गौरी मंजरी’ की न सिर्फ़ संगीत विद्वानों ने जमकर तारीफ़ की, बल्कि श्रोता भी इसके दीवाने थे. यह ख़ास रचना उन्होंने ‘नट’, ‘मंजरी’ और ‘गौरी’ तीन रागों के सम्मिश्रण से तैयार की थी.अपने सुरीले सरोद-वादन से उस्ताद अली अकबर ख़ाँ, थोड़े से ही अरसे में भारतीय शास्त्रीय संगीत के क्षितिज पर छा गए.

 उस वक़्त आलम यह था कि कोई भी बड़ा संगीत समारोह उनके बिना मुक़म्मल नहीं होता था.हर ओर उनकी धूम होती थी। पांचवे दशक में देश भर के प्रसिद्ध संगीत समारोह में अपनी कला का परचम लहराने के बाद, उस्ताद अली अकबर ख़ाँ ने विदेश का रुख़ किया.

भारतीय शास्त्रीय संगीत के व्यापक प्रचार-प्रसार करने के लिये उन्होंने दुनिया भर में कई यात्राएं कीं.साल 1955में वे विश्वविख्यात आर्केस्ट्रा संचालक येहुदी मेनुहिन के बुलावे पर अमेरिका गए.अमेरिकी टीवी के लिए उस्ताद अली अकबर ख़ाँ ने सरोद वादन किया.

 ऐसा कारनामा अंजाम देने वाले पहले भारतीय शास्त्रीय कलाकार बने.उस्ताद अली अकबर ख़ाँ ने दुनिया के अलग-अलग हिस्सों में अपने कार्यक्रमों की कामयाब प्रस्तुतियां दीं.शास्त्रीय संगीत के अध्यापन और प्रसार के लिए साल 1956में उन्होंने ‘अली अकबर संगीत महाविद्यालय, कोलकाता’ की स्थापना की.

भारतीय शास्त्रीय संगीत, ख़ास तौर पर सितार और सरोद के जानिब लोगों की दीवानगी बढ़ते देख, उन्होंने बर्कले कैलिफोर्निया (अमेरिका) में भी एक संगीत विद्यालय की नींव रखी.‘सान रफ़ेल स्कूल’ की स्थापना के साथ ही उस्ताद अली अकबर ख़ाँ संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में ही हमेशा के लिए बस गए.

अलबत्ता दुनिया भर की यात्राएं करते रहे और भारतीय शास्त्रीय संगीत से लोगों को जोड़ते रहे. सेहत में गिरावट की वजह से ज़िंदगी के आख़िरी दौर में उनका भारत आना कम हो गया था.साल 1985 में उस्ताद अली अकबर ख़ाँ ने संगीत महाविद्यालय की एक और शाखा बेसिल, स्विट्ज़रलैंड में स्थापित की.

एकल कार्यक्रमों के अलावा उस्ताद अली अकबर ख़ाँ की भारत में पंडित रविशंकर और पश्चिम में येहुदी मेनुहिन एवं जॉन हैंडी जैसे नामचीन कलाकारों के साथ जुगलबंदी काफ़ी मशहूर रही.

इसके अलावा उन्होंने शास्त्रीय संगीत के अलग-अलग फ़न के बड़े कलाकारों सरोद वादक निखिल बैनर्जी, वायलन वादक एल सुब्रह्मण्यम भारती और सितार वादक विलायत ख़ाँ के साथ भी जुगलबंदी की.

 उस्ताद अली अकबर ख़ाँ ने विश्व के प्रसिद्ध संगीतकारों गिटारवादक जॉर्ज हैरिसन और रॉकस्टार बॉब डिलन, एरिक क्लैप्टन और रिंगो के साथ बड़े—बड़े म्यूजिक कंसर्ट किए, जो लोगों ने खूब पसंद किए.शास्त्रीय संगीत में लोकप्रियता का ही सबब था कि उन्हें हॉलीवुड, हिंदी और बंगला फ़िल्मों में भी संगीत देने का मौक़ा मिला.

 लेकिन उन्होंने चुनिंदा फ़िल्मों में ही म्यूजिक देना क़बूल किया.मसलन चेतन आनंद की फ़िल्म ‘आंधियां’ (साल-1952), सत्यजीत रे की ‘देवी’ (साल-1960), ऋत्विक घटक की ‘अजंत्रिक’ (साल-1958) और तपन सिन्हा की ‘क्षुधित पाषाण’ (साल-1960)। ‘क्षुधित पाषाण’ के लिए उन्हें सर्वश्रेष्ठ संगीतकार के पुरस्कार से भी नवाज़ा गया.

 हॉलीवुड की जिन फ़िल्मों में उस्ताद अली अकबर ख़ाँ ने संगीत दिया, उनके नाम हैं डायरेक्टर मर्चेंट आइवरी की ‘द हाउसहोल्डर’, बर्नार्डो बर्टोलुसी-‘लिटल बुद्धा’ और ‘द गॉडेस’.भारतीय शास्त्रीय संगीत को समृद्ध करने में उस्ताद अली अकबर ख़ाँ के योगदान को देखते हुए, उन्हें कई सम्मान और पुरस्कारों से सम्मानित किया गया.

साल 1988 में देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मानों में से एक ‘पद्म विभूषण’ से उन्हें सम्मानित किया गया. इसके अलावा भी उन्हें कई पुरस्कार दिए गए.साल 1974 में रवीन्द्र भारती विश्वविद्यालय, कोलकाता और ढाका विश्वविद्यालय, बांग्लादेश द्वारा शास्त्रीय संगीत में योगदान के लिए उस्ताद अली अकबर ख़ाँ को ‘डॉक्टर ऑफ लिट्रेचर’ की मानद उपाधि से सम्मानित किया गया.साल 1991 में उन्हें मैकआर्थर जीनियस ग्रांट से नवाज़ा गया.

 वहीं साल 1997 में संयुक्त राज्य अमेरिका का कला के क्षेत्र में सबसे ऊँचा सम्मान, ‘नेशनल हेरिटेज फेलोशिप’ दी गई.ख़ाँ साहब को पांच बार ग्रैमी पुरस्कार के लिये नामांकित किया गया.बावजूद इसके उस्ताद अली अकबर ख़ाँ अपने वालिद बाबा अलाउद्दीन ख़ाँ द्वारा दी गई ‘सुर सम्राट’ की पदवी को बाकी सभी सम्मानों से ऊँचा दर्ज़ा देते थे.

 ज़ाहिर है कि इससे बड़ा मर्तबा और क्या होगा.19 जून, 2009 को 87 साल की लंबी उम्र में अमेरिका के सैनफ्रांसिसको में उस्ताद अली अकबर ख़ाँ ने अपनी आंखें मूंद लीं.वे हमसे हमेशा के लिए जुदा हो गए.उस्ताद अली अकबर ख़ाँ जैसे शास्त्रीय संगीत साधक सदियों में एक बार आते हैं.