दस्तावेज़ः मलिका-ए-ग़ज़ल बेगम अख़्तर, जिनके गायन में सुर की सचाई भी थी और शदीद दर्द भी

Story by  ज़ाहिद ख़ान | Published by  [email protected] • 1 Years ago
मलिका-ए-ग़ज़ल बेगम अख़्तर
मलिका-ए-ग़ज़ल बेगम अख़्तर

 

दस्तावेज़/ ज़ाहिद ख़ान

बेगम अख़्तर ने अपने एक इंटरव्यू में कहा था, “तासीर रचने के लिए सुर की सच्चाई सबसे ज़रूरी है.”यही नहीं उनकी कैफ़ियत थी, “आवाज़ के साथ उसमें दर्द ज़रूरी है. यही दर्द, आवाज़ में रस पैदा करता है.”

बेगम अख़्तर के गायन में वाक़ई सुर की सच्चाई थी, तो एक शदीद दर्द भी था. जो उनके गायन में ग़ज़ब का जादू जगाता था.

लाखों लोग उन पर फ़िदा थे और आज भी बेगम अख़्तर के गायन के जानिब उनकी चाहतें कम नहीं हुई हैं. पुरानी तो पुरानी, नई पीढ़ी भी उनकी ग़ज़लों और उप शास्त्रीय संगीत की तमाम बन्दिशों को उसी शिद्दत से सुनती है.

बेगम अख़्तर ने जिस तरह से अपनी ग़ज़लों में शायरों के जज़्बात, एहसास और उदासी को बयां किया, वैसा कोई दूसरा नहीं कर पाया. वे सरापा ग़ज़ल थीं. उन जैसे ग़ज़लसरा न पहले कोई था और न आगे होगा. सच पूछिये, तो ग़ज़ल से ही उनकी शिनाख़्त है. ग़ज़ल के बिना बेगम अख़्तर अधूरी हैं और बेगम अख़्तर बगैर ग़ज़ल. देश-दुनिया में ग़ज़ल को जो बेइंतिहा मक़बूलियत मिली, उसमें बेगम अख़्तर का बड़ा रोल है.

एक दौर में जब ग़ज़ल बादशाहों, नवाबों के दरबार की ही ज़ीनत होती थी, ख़ास लोगों तक ही महदूद थी, उसे उन्होंने आम जन तक पहुंचाया. बेगम अख़्तर ने बतलाया कि ग़ज़ल सिर्फ पढ़ी ही नहीं जाती, बल्कि इसे संगीत में ढालकर गाया भी जा सकता है.

बेगम अख़्तर ने जो भी गाया, उनकी पुर-कशिश आवाज़ ने इन ग़ज़लों को अमर कर दिया. उन्होंने ग़ज़ल को क्लासिकल म्यूजिक में वह मर्तबा दिलवाया, जिसकी वह हक़दार थी. वे बेगम अख़्तर ही थीं, जिन्होंने सबसे पहले कहा, ग़ज़ल भारतीय शास्त्रीय संगीत की परम्परा का हिस्सा है.


ग़ज़ल के अलावा बेगम अख़्तर ने भारतीय उप शास्त्रीय गायन की सभी विधाओं मसलन ठुमरी, दादरा, कहरवा, ख्याल, चैती, कजरी, बारामासा, सादरा वगैरह में भी उसी महारथ के साथ गाया. वे ठेठ देशी ढंग से ठुमरी गाती थीं. उनकी ठुमरी में कभी-कभी बनारस के लोक गीतों की शैली का असर भी दिखलाई देता था.

बेगम अख़्तर ने ठुमरी, दादरा और ग़ज़ल को शास्त्रीय संगीत के बराबर लाकर खड़ा किया और बड़े-बड़े दिग्गज उस्तादों से अपनी गायकी का लोहा मनवाया.

इस बात में कोई दो राय नहीं कि बेगम अख़्तर ने अपने गायन से हिंदुस्तानी उप-शास्त्रीय संगीत को लोकप्रिय बनाया. उसे आम जन तक पहुंचाया. आज हम इक़बाल बानो, फ़रीदा ख़ानम, मलका पुख़राज, शोभा गुर्टू, रीता गांगुली, मेहदी हसन, गुलाम अली, जगजीत सिंह वगैरह की ग़ज़ल गायकी के क़ायल हैं, उनकी ग़ज़लों के मुरीद हैं.

एक दौर था, जब बेगम अख़्तर के अलावा ग़ज़ल गायन के मैदान में दूर-दूर तक कोई नहीं था. उन्होंने ही उप-शास्त्रीय संगीत में ग़ज़ल को सम्मानजनक मुक़ाम तक पहुंचाया. पंडित जसराज, पंडित हरिप्रसाद चौरसिया, नर्गिस से लेकर सुर साम्राज्ञी लता मंगेशकर तक बेगम अख़्तर की गायकी की कायल थीं.

लता मंगेशकर ने उनकी मशहूर ग़ज़ल ‘दीवाना बनाना है, तो दीवाना बना दे’, रेडियो प्रोग्राम ‘आपकी फ़रमाइश’ में महज़ इसलिए भेजी थी कि वे उनके नाम के साथ, अपना नाम सुनना चाहती थीं. मशहूर शहनाई वादक बिस्मिल्ला खां, बेगम अख़्तर के गायन पर इसलिए फ़िदा थे कि गायन के दौरान दुगुन-तिगुन के समय उनकी आवाज़ जो लहरा के भारी हो जाती थी, वह कमाल उन पर जादू करता था.


शायर कैफ़ी आज़मी ने अपने एक इंटरव्यू में बे—तकल्लुफ़ होकर यह बतलाया था, ‘‘मैं ग़ज़ल इसलिए कहता हूं कि, ताकि मैं ग़ज़ल यानी बेगम अख़्तर से नज़दीक हो जाऊं.’’ बेगम अख़्तर से जुड़ा एक क़िस्सा और है, जो उनकी शार्गिद शान्ती हीरानंद ने इंटरव्यू में बतलाया था, ‘‘एक बार जब बेगम अख़्तर लाल क़िले में परफ़ार्मेंस के लिए गईं, तो प्रधानमंत्री पं. जवाहर लाल नेहरू उनको देखकर आदर में खड़े हो गए और उनका अभिवादन किया.’’

बेगम अख़्तर ज़्यादा पढ़ी-लिखी नहीं थीं. बावजूद इसके उर्दू और फ़ारसी अल्फ़ाज़ से लबरेज़ ग़ज़लों के तलफ़्फ़ुज़ को वे बड़े ही सरलता से पकड़ लेती थीं और इस अदायगी से गाती थीं कि सुनने वालों के मुंह से वाह-वाह ही निकलता था.

 

उर्दू अदब से उन्हें मुहब्बत थी, ख़ास तौर पर बेहतरीन शायरी उनकी कमज़ोरी थी. ग़ज़ल के जानिब बड़ी दीवानगी थी. जो कलाम उन्हें पसंद आ गया, अपनी बेहतरीन गायकी से उन ग़ज़लों में उन्होंने रूह डाल दी. बेगम अख़्तर ने जिस शायर का कलाम गा दिया, वह ज़िंदा जावेद हो गया.

बेगम अख़्तर ने कई अज़ीम ग़ज़लकारों मिर्जा ग़ालिब, ज़ौक़, मिर्ज़ा रफ़ी सौदा, मोमिन, मीर तक़ी मीर, फ़िराक़ गोरखपुरी, कैफ़ी आज़मी, जां निसार अख़्तर, जिगर मुरादाबादी की रूमानी और दर्द भरी ग़ज़लों को अपनी आवाज़ दी. ‘उल्टी हो गईं सब तदबीरें’, ‘दिल की बात कही नहीं जाती' (मीर तक़ी मीर), ‘वो जो हम में तुम में क़रार था, तुम्हें याद...’ (मोमिन खान ‘मोमिन’), ‘ज़िक्र उस परीवश का और फ़िर....’, ‘वो न थी हमारी किस्मत..’ (मिर्ज़ा ग़ालिब), ‘कभी ए हक़ीक़त मुंतज़र नज़र आ लिबासे मजाज़ में’ (इक़बाल) ‘ए मुहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया’, ‘मेरे हमनफ़स, मेरे हमनवा..’, ‘आंखों से दूर सुबह के तारे चले गए..’ (शकील बदायुनी), ‘दीवाना बन जाना..’ (ख़ुमार बाराबंकवी), ‘आये कुछ अब्र कुछ शराब आए...’ (फ़ैज़ अहमद फ़ैज़), ‘कोई ये कह दे गुलशन-गुलशन, लाख बलाएं...(जिगर मुरादाबादी), ‘इतना तो ज़िंदगी में किसी की ख़लल पड़े..’ (कैफ़ी आज़मी), ‘कुछ तो दुनिया की इनायत ने दिल तोड़ दिया’ (सुदर्शन फ़ाकिर), ‘दीवाना बनाना है, तो दीवाना बना दे..’ (बहजाद लख़नवी) बेगम अख़्तर द्वारा गायी, वे ग़ज़लें हैं, जो उन्हीं के नाम और गायन से जानी जाती हैं.

जिसमें भी उनकी ये ग़ज़ल ‘ए मुहब्बत तेरे अंजाम पे रोना आया’, उस ज़माने में नेशनल ऐन्थम की तरह मशहूर हुई. वे जहां जातीं, सामयीन उनसे इस ग़ज़ल की फ़रमाइश ज़रूर करते. इस ग़ज़ल के बिना उनकी कोई भी महफ़िल अधूरी रहती. ‘दीवाना बनाना है, तो दीवाना बना दे..’ भी बेगम अख़्तर की सिग्नेचर ग़ज़ल है.

बेगम अख़्तर की आवाज़ में पुरबिया, अवधी और भोजपुरी बोलियों की मिठास थी. उन्होंने ग़ज़ल के अलावा लोक संगीत को भी अपनी आवाज़ दी. उनकी गायी हुई ठुमरी, दादरा, कजरी और चैती का भी कोई जवाब नहीं. उन्होंने शास्त्रीय बन्दिशें भी ग़ज़ब गाई हैं.


अपनी ठुमरियों में वे पूरब और पंजाबी शैलियों का सुंदर मेल करती थीं. मिसाल के तौर पर उनकी कुछ उप शास्त्रीय बंदिशें जो उस समय ख़ूब मशहूर हुईं, वे इस तरह से हैं-‘हमरी अटरिया पे आओ संवरिया..’, ‘कोयलिया मत कर पुकार करेजवा लागे....’, ‘छा रही काली घटा जिया मेरा लहराये’, ‘लागी बेरिया पिया के आवन की’, ‘ज़रा धीरे-से बोलो कोई सुन लेगा’, ‘पपीहा धीरे-धीरे बोल’, ‘कौन तरह से तुम खेलत होरी’, ‘जब से श्याम सिधारे..’.

बेगम अख़्तर ज़्यादातर ख़ुद ही अपनी ग़ज़लों और तमाम उप शास्त्रीय गायन की धुन तैयार करती थीं. यही नहीं गायन में वे कहन को ज़रूरी मानती थीं. उनका मानना था, जो भी गाओ खुलकर गाओ. 30 अक्टूबर, 1974 को महफ़िल-ए-ग़ज़ल की ज़ीनत बेगम अख़्तर इस जहान—ए—फ़ानी से हमेशा के लिए रुख़सत हो गईं.

अपने इंतकाल से पहले आकाशवाणी के लिए उन्होंने अपनी आख़िरी ग़ज़ल रिकॉर्ड कराई थी. यह कैफ़ी आज़मी का कलाम ‘सुना करो मेरी जां, इनसे उनसे अफ़साने..’ था.

बेगम अख़्तर की मौत के बाद सिद्धेश्वरी देवी, जो उनकी अच्छी साथी और उन्हीं के टक्कर की उप शास्त्रीय गायिका थीं, उन्होंने जज़्बाती होकर कहा था,‘‘अख़्तर गयी, उसके साथ ग़ज़ल गयी, ठुमरी गयी, गायिकी गयी, ग़ज़ल की दुनिया चली गयी.’’ बेगम अख़्तर के बाद, ग़ज़ल तो आज भी गाई जा रही है, लेकिन उनके जाने के साथ ही ग़ज़ल का वह जुदा अंदाज़ और उसकी शोख़ी भी चली गई.

(ज़ाहिद ख़ान वरिष्ठ आलोचक हैं और 'तरक्कीपसंद तहरीक' पर दो अहमतरीन किताबों के लेखक हैं. लेखन का दायरा हिंदी-उर्दू अदब से लेकर हिंदुस्तानी तहज़ीब, कला, नाट्य शैलियों, गीतों और सिनेमा तक. आप हर हफ्ते बुधवार को आवाज- द वॉयस पर उनका नियमित स्तंभ 'दस्तावेज' पढ़ पाएंगे. यह उसकी पहली कड़ी.)