जन्माष्टमी विशेष : मुस्लिम कवियों की श्रीकृष्ण प्रेम कथा

Story by  मलिक असगर हाशमी | Published by  [email protected] | Date 18-08-2022
मुस्लिम कवियों की श्री कृष्ण प्रेम कथा
मुस्लिम कवियों की श्री कृष्ण प्रेम कथा

 

नौशाद अख्तर

यह अहम सवाल है ! कहते हैं यह श्रीकृष्ण की चुम्बकीय शख्यिसत और उनकी नैतिकता, बुद्धिमत्ता और प्रेम प्रवृति की ऊंचाई का प्रभाव है कि मुस्लिम क्या दुनिया का कोई भी कवि मन श्रीकृष्ण से प्रभावित न हुआ हो.कवि प्रेमी होता है और धर्म, जाति जैसी किसी हद को प्रेम नहीं मानता.इसलिए कृष्ण के प्रेमियों में मुस्लिम कवियों की संख्या कम नहीं है.

भारत में इस्लाम के प्रभावी ढंग से प्रसार का इतिहास कुछ हजार साल पहले से शुरू होता है. यहीं से मुस्लिम कवियों में कृष्ण प्रेम के बीज देखने को मिलते हैं. अमीर खुसरो के समय कविता में कृष्ण प्रेम की एक धारा जो फूटी तो सदियों तक उसकी लहरें जोर मारती दिखीं. यह सिलसिला अभी भी बना हुआ है. 
 
14वीं सदी के आसपास से हिंदुस्तान की कविता में भक्तिकाल का उदय माना जाता है. इसी के आसपास, संभवतः कुछ पहले से कविता में सूफीवाद की स्थापना होती है. सूफी कवि वास्तव में प्रेमी कवि थे और उनकी कविताओं में रहस्यवाद मुख्य था.
 
यानी कविता एक स्तर पर सांसारिक प्रेम की भावना से ओतप्रोत दिखती है तो दूसरे स्तर पर आध्यात्मिक प्रेम का अनुभव भी देती है.हजरत निजामुद्दीन औलिया के सबसे चहेते शागिर्द माने गए अमीर खुसरो के साथ कृष्ण प्रेम का एक किस्सा जुड़ा है.
 
कहा जाता है कि औलिया के सपने में कृष्ण ने दर्शन दिए थे और उसके बाद औलिया ने खुसरो से कृष्ण के लिए कुछ रचने को कहा था. इसी प्रेरणा से खुसरो ने एक कालजयी रचना रची छाप तिलक सब छीन ली रे मोसे नैना मिलाइ के. इस रचना में आपको सीधे कृष्ण का नाम नहीं मिलेगा लेकिन छवियां मिलेगी जिससे आप यकीन करेंगे कि खुसरो ने यह रचना कृष्ण को समर्पित की थी. इस रचना का ये अंश देखें- री सखी मैं जो गई थी पनिया भरन को, छीन झपट मोरी मटकी पटकी मोसे नैना मिलाइ के.’
 
ओडिशा राज्य के राज्यपाल रह चुके गांधीवादी विश्वंभर नाथ पांडे ने अपने एक लेख में सूफीवाद की तुलना वेदांत के साथ करते हुए दर्ज किया कि सईद सुल्तान एक कवि हुए जिन्होंने नबी बंगश नामक ग्रंथ में कृष्ण को इस्लाम की मान्यताओं के हिसाब से नबी का खिताब बख्शा.
 
पांडे के इस लेख में अली रजा नामक कवि का उल्लेख भी है जिन्होंने राधा और कृष्ण के प्रेम पर काफी लिखा था. सूफी कवि अकबर शाह के जिक्र के साथ ही पांडे के अनुसार बंगाल के सुल्तान रहे नाजिर शाह और सुल्तान हुसैन शाह ने पहली बार महाभारत और भागवत पुराण का बांग्ला में अनुवाद करवाया था.
 
दिल्ली की उठापटक से खिन्न रसखान ने वृंदावन और मथुरा को ही अपना घर इसलिए बना लिया था क्योंकि वह कृष्ण प्रेम में ही गिरफ्तार थे. उनकी कविताओं को कई आलोचक व विद्वान सूरदास की रचनाओं के समकक्ष मानते हैं.
 
सईद इब्राहीम उर्फ रसखान के बारे में यह भी उल्लेख है कि उन्होंने भगवद्गीता का अनुवाद फारसी में किया था. रसखान की रचनओं के कारण ही जर्मन हिन्दी विद्वान डा. लोथार लुत्से को सूरदास पंचशती वर्ष पर एक लेख में कहना पड़ा-
 
भक्ति आंदोलन शुरू से ही एक लोकतांत्रिक आंदोलन रहा. हालांकि इसके आराध्य हिन्दू मान्यताओं के अवतार थे लेकिन यह आंदोलन कभी संकीर्ण साम्प्रदायिकता की ओर नहीं झुका. ऐसा होता तो 1558 के करीब पैदा हुए एक मुस्लिम रसखान के लिए ब्रजभाषा की उत्कृष्ट वैष्णव कविताएं लिख पाना शायद संभव न होता.
 
रीतिकालीन कवि आलम शेख ने ‘आलम केलि’, श्याम स्नेही’ और माधवानल-काम-कंदला’ आदि ग्रंथों की रचना की. ‘हिंदी साहित्य का इतिहास’ में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने लिखा है कि आलम हिंदू थे जो मुसलमान बन गए. शुक्ल का मानना रहा कि प्रेम की तन्मयता के नजरिए से आलम को ‘रसखान’ के साथ जोड़ा जाना चाहिए. 
 
अब्दुल रहीम खानखाना को तुलसीदास का गहरा दोस्त कहा जाता है. हालांकि रहीम अपने नीतिपरक दोहों और अन्य काव्य के लिए ज्यादा जाने गए लेकिन उन्होंने समय समय पर कृष्ण काव्य भी रचा. उनकी कृष्ण संबंधी रचनाओं के अंश देखें-
 
जिहि रहीम मन आपुनो, कीन्हों चतुर चकोर
निसि बासर लाग्यो रहे, कृष्ण चन्द्र की ओर.

रीतिकाल का समय जहां खत्म हो रहा था, वहां नजीर अकबराबादी का कृष्ण प्रेम मिसाल के तौर पर दर्ज दिखता है. राधा के साथ मीरा के कृष्ण प्रेम की जिस तरह तुलना की जाती है, वैसे ही नजीर के कृष्ण काव्य की तुलना रसखान से किए जाने की गुंजाइशें निकाली जाती हैं. उनकी एक प्रसिद्ध कृष्ण प्रेम रचना देखें -
 
तू सबका खुदा, सब तुझ पे फिदा, अल्ला हो गनी, अल्ला हो गनी
है कृष्ण कन्हैया, नंद लला, अल्ला हो गनी, अल्ला हो गनी
तालिब है तेरी रहमत का, बन्दए नाचीज़ नजीर तेरा
तू बहरे करम है नंदलाला, ऐ सल्ले अला, अल्ला हो गनी, अल्ला हो गनी

यही नहीं, नजीर के लिए कृष्ण पैगंबर की तरह ही दिखते हैं. नजीर ने कृष्णचरित के साथ रासलीला के वर्णन के साथ ही ‘बलदेव जी का मैला’ नामक कविता लिखी, जो कृष्ण के बड़े भाई बलराम पर केंद्रित है. ‘कन्हैया का बालपन’ शीर्षक वाली नजीर की कविता भी लोकप्रिय रही.
 
उजड़ती लखनऊ रियासत के आखिरी वारिस वाजिद अली शाह की गिनती भी कृष्ण प्रेमियों में होती है. कहने को नवाब लेकिन फितरत से कवि और कलाकार रहे वाजिद अली शाह ने 1843 में राधा-कृष्ण पर एक नाटक करवाया था. लखनऊ के इतिहास की विशेषज्ञ रोजी लेवेलिन जोंस ने ‘द लास्ट किंग ऑफ इंडिया’ में लिखा कि वाजिद अली शाह पहले मुसलमान राजा थे जिन्होंने राधा-कृष्ण के नाटक का निर्देशन किया. जोंस के ही मुताबिक शाह के दीवाने उन्हें कई नाम दिया करते थे, जिनमें से एक ‘कन्हैया’ भी था.
 
और कुछ महत्वपूर्ण कवि चिंतक, कवि, स्वतंत्रता संग्राम सेनानी और राजनेता रहे मौलाना हसरत मोहानी हों या उर्दू के मशहूर व सम्मानित शायर अली सरदार जाफरी, कृष्ण प्रेम और कृष्ण के दर्शन को मुस्लिम कवियों में मान्यता हर समय में मिलती रही. जाफरी का लिखा है-
 
अगर कृष्ण की तालीम आम हो जाए
तो फित्नगरों का काम तमाम हो जाए
मिटाएं बिरहमन शेख तफर्रुकात अपने
जमाना दोनों घर का गुलाम हो जाए.

इसके अलावा मौलाना जफर अली, शाह बरकतुल्लाह और ताज मुगलानी जैसे कवियों के नाम भी कृष्ण प्रेम संबंधी कविता से जोड़े जाते हैं. वास्तव में, कृष्ण प्रेम का जो दर्शन तैयार करते हैं, वह धर्म के परे है और इंसान को हर सूरत में प्रेम का रास्ता दिखाने का एक बेजोड़ तरीका है.
 
साहित्य के इतिहास में आप और तलाशेंगे तो ऐसे और भी कवियों के नाम मिलेंगे, जिन्होंने धर्म की सीमाएं लांघकर कृष्ण प्रेम पर कुछ रचा होगा.
 
इनपुट न्यूज 18 से साभार