गोरखपुर. दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय के इतिहास विभाग के आचार्य व पूर्व अध्यक्ष प्रो हिमांशु चतुर्वेदी ने कहा कि ब्रिटिशर्स के खिलाफ पहला प्रतिरोध सन्यासी प्रतिरोध है. इस प्रतिरोध में नाथ संप्रदाय के संतो-अनुयायियों, दसनामी तथा नागा साधुओं की बड़ी भूमिका रही. इतना ही नहीं 1857 की क्रांति में कमल व रोटी का जो संदेश गांव-गांव पहुंचा, वह 1856 के हरिद्वार कुम्भ में संतों द्वारा ही प्रतिपादित किया गया.
प्रो चतुवेर्दी गुरुवार को महायोगी गोरखनाथ विश्वविद्यालय, आरोग्यधाम बालापार गोरखपुर के प्रथम स्थापना दिवस के उपलक्ष्य में युगपुरुष ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ 'स्वतंत्रता संग्राम में सन्यासी' विषय पर विचार व्यक्त कर रहे थे. उन्होंने कहा कि 1767 में ब्रिटिशर्स के खिलाफ पहले प्रतिरोध का संयोजन तमकुहीराज के तत्कालीन स्थानीय जमीदार फतेह बहादुर शाही ने किया था. फतेह बहादुर शाही की सेना में प्रमुख रूप से नाथ पंथ के सन्यासी उनके अनुयायी, दसनामी साधुओं से संबद्ध गोंसाई तथा नागा साधु प्रमुख रूप से शामिल थे. 1803 तक चले इस प्रतिरोध में हजारों की संख्या में साधु-सन्यासी वीरगति को प्राप्त हुए. 1835 में प्रयागराज में प्रयागवाला संत समुदाय ने भी अंग्रेजों के अन्याय के विरुद्ध मोर्चा खोला थाम 1857 की क्रांति की भूमिका भी इसके एक साल पहले हरिद्वार कुम्भ में संतों ने ही तैयार की थी.
प्रो चतुवेर्दी ने कहा कि गोरखपुर सिर्फ साधना उपासना का केंद्र नहीं है बल्कि यह राष्ट्रीयता व सांस्कृतिक पुनर्जागरण का भी प्रकाश स्तंभ है. राष्ट्रीयता की भावना को पोषण देने के लिए गोरखनाथ मंदिर ने स्वाधीनता आंदोलन में क्रांतिकारियों के संरक्षक व मददगार की भूमिका का निर्वहन किया. 1857 से लेकर 1880 तक गोरखनाथ मंदिर के संत महंत गोपालनाथ जी निरंतर क्रांतिकारियों की मदद करते रहे. उनके बाद यह जिम्मेदारी योगीराज गंभीरनाथ जी और महंत दिग्विजयनाथ जी ने उठाई.
प्रो हिमांशु चतुर्वेदी ने बताया कि 4 फरवरी 1922 को हुए ऐतिहासिक चौरीचौरा जनाक्रोश की अगुवाई जिस चिमटहवा बाबा ने की थी, वह कोई और नहीं बल्कि ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ जी महाराज थे. जनाक्रोश में जब उनका नाम आया तो उनके लिए मदन मोहन मालवीय जी खड़े हुए और साक्ष्य के अभाव में उन्हें बरी कर दिया गया. उन्होंने कहा कि भारत के बंटवारे का भी ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ जी ने विरोध किया था.
प्रो चतुवेर्दी ने बताया कि 1973 में यूनेस्को ने एक स्वतंत्र शोध कराया था जिसमें 43 प्राचीन सभ्यताओं की सूची बनाकर विशद अध्ययन किया गया. इसके निष्कर्ष में पाया गया कि इनमें से 42 सभ्यताओं को म्यूजियम में ही देखा जा सकता है. अपनी मूल सभ्यता में जीवित सिर्फ भारत की सभ्यता पाई गई.
उन्होंने कहा कि भारत में महमूद गजनवी के आक्रमण से लेकर अंग्रेजों के आने तक यहां की मूल सभ्यता को समाप्त करने की कोशिश की गई. लेकिन, हमारी भारतीयता मूल रूप में बनी रहे तो इसके पीछे सबसे बड़ी भूमिका संत परंपरा से जन-जन तक समयानुकूल होते रहे सांस्कृतिक व सामाजिक जागरण की रही संतो द्वारा दिए गए मौलिक दर्शन से ही भारत विश्व गुरु बनने की ओर अग्रसर है.