दस्तावेज़ः साहिर सच कहते थे, वह सुबह हमीं से आएगी

Story by  ज़ाहिद ख़ान | Published by  [email protected] | Date 26-10-2022
साहिर लुधियानवी
साहिर लुधियानवी

 

दस्तावेज़/ ज़ाहिद ख़ान

साहिर लुधियानवी को अपनी ग़ज़लों, नज़्मों से पूरे मुल्क में खू़ब मक़बूलियत मिली. अवाम का ढेर सारा प्यार मिला. कम समय में इतना सब मिल जाने के बाद भी उनके लिए रोजी-रोटी का सवाल नहीं सुलझा. आज़ादी के बाद उन्हें नई मंज़िल की तलाश थी. साहिर की ये तलाश फ़िल्मी दुनिया पर ख़त्म हुई. वे सपनों की नगरी मुंबई आ गए. मायानगरी में जमना उनके लिए आसान काम नहीं था.

संघर्ष के इस दौर में आजीविका के लिए साहिर ने कई छोटे-मोटे काम किए. उनकी लिखावट बहुत अच्छी थी. इसी लिखावट का फ़ायदा उन्हें यह मिला कि निर्माता, फ़िल्म की पटकथा को उनसे लिखवाने लगे. ताकि हीरो-हीरोईन उसे सही तरह से पढ़ सकें. पटकथा के पेज़ों के हिसाब से साहिर अपना मेहनताना लेते थे.

इस काम का फायदा उन्हें यह हुआ कि वे कई फ़िल्म निर्माताओं के सीधे संपर्क में आ गए. मौका देखकर वे उन्हें अपनी ग़ज़लें, नज़्में भी सुना दिया करते. आखि़रकार वह दिन भी आया, जब उन्हें फ़िल्मों में गीत लिखने का मौक़ा मिला.

‘आज़ादी की रात’ (साल 1949) वह फ़िल्म थी, जिसमें साहिर ने पहली बार गीत लिखे. इस फ़िल्म में उन्होंने चार गीत लिखे. लेकिन अफ़सोस ! न तो ये फ़िल्म चली और न ही उनके गीत पसंद किए गए. बहरहाल, फ़िल्मों में कामयाबी के लिए उन्हें ज़्यादा इंतज़ार नहीं करना पड़ा.

साल 1951 में आई ‘नौजवान’ उनकी दूसरी फ़िल्म थी. एसडी बर्मन के संगीत से सजी इस फ़िल्म के सभी गाने सुपर हिट साबित हुए. फिर नवकेतन फ़िल्मस की फ़िल्म ‘बाज़ी’ आई, जिसने साहिर को फ़िल्मी दुनिया में बतौर गीतकार स्थापित कर दिया.

इत्तेफ़ाक़ से इस फ़िल्म का भी संगीत एसडी बर्मन ने तैयार किया था. आगे चलकर एसडी बर्मन और साहिर लुधियानवी की जोड़ी ने कई सुपर हिट फ़िल्में दीं. ‘सज़ा’ (साल 1951), ‘जाल’ (साल 1952), ‘बाज़ी’ (साल 1952), ‘टैक्सी ड्राइवर’ (साल 1954), ‘हाउस नं. 44’ (साल 1955), ‘मुनीम जी’ (साल 1955), ‘देवदास’ (साल 1955), ‘फ़ंटूश’ (साल 1956), ‘पेइंग गेस्ट’ (साल 1957) और ‘प्यासा’ (साल 1957) वह फ़िल्में हैं, जिनमें साहिर और एसडी बर्मन की जोड़ी ने कमाल का गीत-संगीत दिया है. फ़िल्म ‘प्यासा’ को भले ही बॉक्स ऑफ़िस पर कामयाबी न मिली हो, लेकिन इसके गीत खूब चले. ये गीत आज भी इसके चाहने वालों के होठों पर ज़िंदा हैं.फ़िल्मी दुनिया में साहिर को बेशुमार दौलत और शोहरत मिली. एक वक़्त ऐसा भी था कि उन्हें अपने गीत के लिए पार्श्व गायिका लता मंगेशकर से एक रुपया ज़्यादा मेहनताना मिलता था.

हिंदी फ़िल्मों में साहिर लुधियानवी ने दर्जनों सुपरहिट गाने दिए हैं. उनके इन गानों में भी अच्छी शायरी होती थी. साहिर के आने से पहले हिंदी फ़िल्मों में जो गाने होते थे, उनमें शायरी कभी-कभार ही देखने में आती थी. लेकिन जब फ़िल्मी दुनिया में मजरूह सुल्तानपुरी, कैफ़ी आज़मी और साहिर आए, तो फ़िल्मों के गीत और उनका अंदाज़ भी बदला. गीतों की जु़बान बदली. हिंंदी, उर्दू से इतर गीत हिंदुस्तानी ज़ुबान में लिखे जाने लगे.

इश्क-मोहब्बत के अलावा फ़िल्मी नग़मों में समाजी-सियासी नज़रिया भी आने लगा. इसमें सबसे बड़ा बदलाव साहिर ने किया. अपने शायराना गीतों को फ़िल्मों में रखने के लिए उन्होंने कई बार फ़िल्म प्रोड्यूसर और डायरेक्टर से लड़ाई भी की.

अपने फ़िल्मी गीतों की किताब ‘गाता जाए बंजारा’ की भूमिका में साहिर लिखते हैं, ‘‘मेरी हमेशा यह कोशिश रही है कि यथा संभव फ़िल्मी गीतों को सृजनात्मक काव्य के नज़दीक ला सकूं और इस तरह नए सामाजिक और सियासी नज़रिये को आम अवाम तक पहुंचा सकूं.’’

साहिर की ये बात सही भी है. उनके फ़िल्मी गीतों को उठाकर देख लीजिए, उनमें से ज़्यादातर में एक विचार मिलेगा, जो श्रोताओं को सोचने को मजबूर करता है. ‘‘वो सुबह तो आएगी’’ (फिर सुबह होगी), ‘‘जिन्हें नाज़ है हिंद पर’’, ‘‘ये तख़्तों ताजों की दुनिया, ये दुनिया अगर मिल भी जाए तो’’ (प्यासा), ‘‘तू हिंदू बनेगा न मुसलमां बनेगा’’ (धूल का फूल), ‘‘औरत ने जन्म दिया मर्दों को’’ (साधना) आदि ऐसे उनके कई गीत हैं, जिसमें ज़िंदगी का एक नया फ़लसफ़ा नजर आता है.

ये फ़िल्मी गीत अवाम का मनोरंजन करने के अलावा उन्हें तालीमयाफ़्ता और बेदार भी करते हैं. उन्हें एक सोच, नया नज़रिया प्रदान करते हैं. एक अच्छे लेखक, शायर की पहचान भी यही है.

साहिर लुधियानवी एक गै़रतमंद शायर थे. अपने स्वाभिमान से उन्होंने कभी समझौता नहीं किया. फ़िल्मी दुनिया में अब तो ये जैसे एक रिवायत बन गई है कि पहले संगीतकार गीत की धुन बनाता है, फिर गीतकार उस धुन पर गीत लिखता है. पहले भी ज़्यादातर संगीतकार ऐसा ही करते थे, लेकिन साहिर लुधियानवी अलग ही मिट्टी के बने हुए थे. वे इस रिवायत के बरखि़लाफ़ थे. अपने फ़िल्मी करियर में उन्होंने हमेशा गीत को धुन से ऊपर रखा.

पहले गीत लिखा और फिर उसके बाद उसका संगीत बना. उनके फ़िल्मी करियर में सिर्फ एक गीत ऐसा है, जिसकी धुन पहले बनी और गीत बाद में लिखा गया. ओपी नैयर के संगीत निर्देशन में फ़िल्म ‘नया दौर’ का ‘‘मांग के साथ तुम्हारा, मैंने मांग लिया संसार’’ वह गीत है.

अपनी फ़िल्मी मसरूफ़ियतों के चलते साहिर लुधियानवी अदब की ज़्यादा खि़दमत नहीं कर पाए. लेकिन उन्होंने जो भी फ़िल्मी गीत लिखे, उन्हें कमतर नहीं कहा जा सकता.

उनके गीतों में जो शायरी है, वह बेमिसाल है. जब उनका गीत ‘‘वह सुबह कभी तो आएगी....’’ आया, तो यह गीत मेहनतकशों, कामगारों और नौजवानों को ख़ासा पसंद आया.

इस गीत में उन्हें अपने जज़्बात की अक़्क़ासी दिखी. मुंबई की वामपंथी ट्रेड यूनियनों ने इस गीत के लिए साहिर को बुलाकर उनका सार्वजनिक अभिनंदन किया और कहा, ‘‘यह गीत हमारे सपनों की तस्वीर पेश करता है और इससे हम बहुत उत्साहित होते हैं.’’

ज़ाहिर है कि एक गीत और एक शायर को इससे बड़ा मर्तबा क्या मिल सकता है. ये गीत है भी ऐसा, जो लाख़ों लोगों में एक साथ उम्मीदें जगा जाता है, ‘‘वह सुबह कभी तो आएगी/बीतेंगे कभी तो दिन आखि़र, यह भूख के और बेकारी के/टूटेंगें कभी तो बुत आखि़र, दौलत की इज़ारेदारी के/जब एक अनोखी दुनिया की बुनियाद उठाई जाएगी/......संसार के सारे मेहनतकश, खेतों से मिलों से निकलेंगे/बेघर, बेदर, बेबस इंसा, तारीक बिलों से निकलेंगे/दुनिया अम्न और खु़शहाली के फूलों से सजाई जाएगी/वह सुबह हमीं से आएगी.’’

इस गीत के अलावा फ़िल्म ‘नया दौर’ के एक और गीत में मेहनतकशों से मुख़ातिब होते हुए उन्होंने लिखा,‘‘साथी हाथ बढ़ाना/एक अकेला थक जाएगा/मिलकर बोझ उठाना/माटी से हम लाल निकालें, मोती लाएं जल से/जो कुछ इस दुनिया में बना है, बना हमारे बल से/कब तक मेहनत के पैरों में दौलत की जंजीरें ?

/हाथ बढ़ाकर छीन लो अपने ख़्वाबों की तस्वीरें.’’ आज़ादी के बाद मुल्क के सामने अलग तरह की चुनौतियां थीं. इन चुनौतियों का सामना करते हुए साहिर ने कई अच्छे नग़मे लिखे. लेकिन उनके सभी नग़मों में एक ख़याल ज़रूर मिलेगा.

जिस ख़याल के जानिब उनका कमिटमेंट था, उसी ख़याल को उन्होंने अपने नग़मों के ज़रिए आगे बढ़ाया. उनका एक नहीं, कई ऐसे नग़मे हैं, जिसमें उनकी विचारधारा मुखर होकर सामने आई है. फ़िल्मी दुनिया में भी रहकर उन्होंने अपनी विचारधारा से कभी समझौता नहीं किया. मेहनतकशों और वंचितों के हक़ में हमेशा साथ खड़े रहे. ‘‘अब कोई गुलशन न उजड़े, अब वतन आज़ाद है/रूह गंगा की, हिमालय का वतन आज़ाद है/दस्तकारों से कहो, अपनी हुनरमन्दी दिखायें/उंगलियां कटती थीं जिस की, अब वो फन आज़ाद है.’’, ‘‘हम तरक़्क़ी के रास्ते पै मीलों चले-इस तिरंगे तले/और आगे बढ़ेंगे अभी मन चले-इस तिरंगे तले.’’

साहिर लुधियानवी साम्राज्यवाद और पूंजीवाद के साथ-साथ साम्प्रदायिकता के भी कड़े विरोधी थे. अपनी नज़्मों और फ़िल्मी गीतों में उन्होंने साम्प्रदायिकता और संकीर्णता का हमेशा विरोध किया. अपने एक गीत में वे हिन्दोस्तानियों को एक प्यारा पैग़ाम देते हुए लिखते हैं, ‘‘तू हिन्दू बनेगा न मुसलमान बनेगा/इन्सान की औलाद है इन्सान बनेगा.’’ साहिर लुधियानवी महिला-पुरुष समानता के बड़े हामी थे. औरतों के खि़लाफ़ होने वाले किसी भी तरह के अत्याचार और शोषण का उन्होंने अपने फ़िल्मी गीतों में जमकर प्रतिरोध किया. हिन्दुस्तानी समाज में औरतों के क्या हालात हैं, जहां इसका उनके गीतों में बेबाक चित्रण मिलता है, तो वहीं इन हालात के खि़लाफ़ एक गुस्सा भी है. साल 1958 में प्रदर्शित फ़िल्म ‘‘साधना’ में साहिर द्वारा रचित निम्नलिखित गीत को औरत की व्यथा-कथा का जीवंत दस्तावेज कहा जाए, तो अतिश्योक्ति न होगा, ‘‘

औरत ने जनम दिया मर्दों को/मर्दों ने उसे बाज़ार दिया/.......जिन सीनों ने इनको दूध दिया, उन सीनों का व्योपार किया/जिस कोख़ में इनका जिस्म ढला, उस कोख़ का कारोबार किया/जिस तन में उगे कोंपल बनकर, उस तन को जलीलो-ख़्वार किया.’’ यही नहीं फ़िल्म ‘दीदी’ में वे देश की नई पीढ़ी को समझाइश देते हुए लिखते हैं, ‘‘नारी को इस देश ने देवी कहकर दासी जाना है/जिसको कुछ अधिकार न हो/वह घर की रानी माना है/तुम ऐसा आदर मत लेना/आड़ जो हो अपमान की/बच्चों, तुम तक़दीर हो कल के हिन्दुस्तान की.’’

महिलाओं की मर्यादा और गरिमा के विरुद्ध जो भी बातें हैं, साहिर लुधियानवी ने अपने गीतों में इसका पुर-जो़र विरोध किया. औरतों के दुःख-दर्द को वे अच्छी तरह से समझते थे. यही वजह है कि उनके गीतों में इसकी संजीदा अक़्क़ासी बार-बार मिलती है.

‘मैं वह फूल हूं कि जिसको/गया हर कोई मसल के/मेरी उम्र बह गई है मेरे आँसुओं मेंं ढल के.’’ (फिल्म ‘‘देवदास’-1955) साल 1957 में प्रदर्शित फ़िल्म ‘‘प्यासा’ में साहिर ने खोखली परंपराओं, झूठे रिवाज़ों और नारी उत्पीड़न को लेकर जो सवाल खड़े किए है, वह आज भी प्रासंगिक है ‘‘ये कूचे ये नीलामघर दिलकशी के/ये लुटते हुए कारवां ज़िंदगी के/कहां हैं ? कहां हैं ? मुहाफ़िज़ खु़दी के ?’’

वहीं फ़िल्म ‘‘वह सुबह कभी तो आएगी’ में वे दुनिया की इस आधी आबादी के लिए पूरी आज़ादी का तसव्वुर कुछ इस तरह से करते हैं, ‘‘दौलत के लिए जब औरत की इस्मत को न बेचा जायेगा/चाहत को न कुचला जाएगा/गै़रत को न बेचा जायेगा/अपनी काली करतूतों पर जब यह दुनिया शर्माएगी.’’ ‘तल्खि़यां’, ‘परछाईयां’, ‘आओ कि कोई ख़्वाब बुने’ आदि किताबों में जहां साहिर लुधियानवी की ग़ज़लें और नज़्में संकलित हैं, तो ‘गाता जाए बंजारा’ किताब में उनके सारे फ़िल्मी गीत एक जगह मौजूद हैं. इन गीतों में भी ग़ज़ब की शायरी है. उनके कई गीत आज भी लोगों की जु़बान पर चढ़े हैं.साहिर को अवाम का खू़ब प्यार मिला और उन्होंने भी इस प्यार को गीतों के मार्फ़त अपने चाहने वालों को बार-बार सूद समेत लौटाया. 25 अक्टूबर, 1980 को इस बेमिसाल शायर, नग़मा निगार ने अपनी ज़िंदगी की आख़िरी सांस ली.

आज भले ही साहिर लुधियानवी हमारे बीच नहीं हैं, लेकिन उनकी ग़ज़लें, नज़्में और नग़में मुल्क की फ़िज़ा में गूंज-गूंजकर इंसानियत और भाईचारे का पाठ पढ़ा रहे हैं, ‘‘मालिक ने हर इन्सान को इन्सान बनाया/हमने उसे हिन्दू या मुसलमान बनाया.’’