1857 की क्रांति के फौलादी शेर मौलवी अहमदुल्लाह शाह फैजाबादी, जिन्होंने खूब छकाया था अंग्रेजों को

Story by  एटीवी | Published by  [email protected] | Date 30-07-2022
मौलवी अहमदुल्लाह शाह फैजाबादी
मौलवी अहमदुल्लाह शाह फैजाबादी

 

अभिषेक कुमार सिंह/ वाराणसी

आज हम और हमारा समाज किस मतलबपरस्ती की तरफ जा रहा है यह शब्दों में कहना मुमकिन नहीं होगा. महज 158 साल के भीतर ही हिंदुस्तान की अवाम ने एक महान जननायक को भुला दिया, जिन्होंने जंगे आज़ादी में बहुत ही अहम भूमिका निभाई थी.

असल में, हमारा इतिहास भी दो अलग हिस्सों में बंटा हुआ है. एक तरफ तो राजा-रजवाड़े, रियासतों, तालुकेदारों, नवाबों, बादशाहों, शहंशाहों का ब्योरा है और दूसरा हिस्सा है जनता का. सत्ता का चरित्र होता है कि वह अपने फ़रेब, साजिशों और दमन के सहारे हमें बार-बार आभास कराती है कि जनता बुजदिल, कायर होती है और जनता के बलिदानों का कोई इतिहास नहीं है.

जनता के ऐसे ही सेनानी थे मौलवी अहमदुल्लाह शाह फ़ैज़ाबादी. 1857 में जब पूरा हिंदुस्तान अंग्रेजों के जुल्मो-सितम से परेशान था और बगावत के सिवा उनके पास कोई चारा नहीं बचा था, इसी वक़्त में एक ऐसा शख्स भी था जिसने अंग्रेजों के नाक में दम कर रखा था. और वह भी इतना कि अंग्रेजों ने उन्हें जिन्दा या मुर्दा पकड़ के लाने वाले को 50,000 रुपए इनाम के तौर पर देने का ऐलान कर दिया.

हालांकि, यह बात दीगर है कि इतनी बड़ी रकम के ऐलान के बाद भी अंग्रेजी हुकूमत उन्हें कभी जिन्दा नही पकड़ पाई.

आज़ादी के यह सबसे सटीक पैरोकार एक सूफी-फ़कीर थे. जब लोगों के जेहन में आज़ादी के इस दीवाने की कहीं चर्चा तक नहीं है. जबकि फैजाबादी जगह-जगह घूमकर अंग्रेजों की बर्बरता के खिलाफ लोगों को जागरूक करते,उन्हें इकट्ठा और एकजुट करते, पर्चे बांटते.

फैजाबादी को कई नामों से जाना जाता था, जिनमें अहमद उल्लाह शाह, सिकंदर शाह, नक्कार शाह, डंका शाह जैसे कई सारे नाम थे. अपने नाम की तरह ही उनकी शख़्सियत के कई आयाम भी थे.

अगर हम बात करें 1857 के विद्रोह की, तो अंग्रेजों के डिवाइड एंड रूल वाली नीति यानी बांटो और राज करो को धता बताते हुए हिन्दू और मुसलमान आपस में कदम से कदम मिलाकर साथ लड़ रहे थे.

हर मोर्चे पर आलम यह था कि इंच-इंच भर जमीन अंग्रेजों को गंवानी पड़ी या देशवासियों के लाशों के ऊपर से गुज़रना पड़ा. अब सवाल यह उठता है कि आखिर हम नाकाम क्यों हुए?वजह साफ़ है कि ऐसे नाज़ुक दौर में हवा का रुख देखकर आज़ादी में शामिल हुए कुछ नायक भी ‘खलनायक’ बन गए और ऐन मौके पर अपनी गद्दारी की कीमत वसूलने के लिए दुश्मनों से जा मिले.

इसी विश्वासघात की वज़ह से जंगे आज़ादी के सबसे बहादुर सिपहसालार मौलवी को शहादत देनी पड़ी. 1857 का सबसे बड़ा सबक यह है कि ‘आप बिकेंगे तो हर मोर्चे पर हारेंगे.’

मौलवी के पास कलम और तलवार की ताकत तो थी ही, साथ ही वह आम लोगों के बीच काफी लोकप्रिय भी थे. इस योद्धा ने 1857 की शौर्य गाथा की ऐसी इबारत लिखी जिसको आज तक कोई छू भी नहीं पाया. पूरे अवध में नवंबर, 1856 से घूम-घूम कर इस विद्रोही ने आज़ादी की मशाल को जलाए रखा. उनकी इस सक्रियता की वजह से फरवरी, 1857 में उनके सशस्त्र जमावड़े की बढ़ती ताकत को देखकर फिरंगियों ने कई लालच दिए, अपने लोगों से हथियार डलवा देने के लिए कहा तो उन्होंने साफ़ मना कर दिया.

इस गुस्ताखी में फिरंगी आकाओं ने उनकी गिरफ्तारी का फ़रमान जारी कर दिया. मौलवी की लोकप्रियता का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि अवध की पुलिस ने मौलवी को गिरफ्तार करने से मना कर दिया था.

19 फरवरी, 1857 को अंग्रेज़ी फौज और मौलवी में कड़ी टक्कर के बाद उन्हें पकड़ लिया गया. बागियों का मनोबल तोड़ने के लिए घायल मौलवी को सिर से पांव तक जंजीरों में बांधकर पूरे फैज़ाबाद शहर में घुमाया ही नहीं गया बल्कि फांसी की सजा सुनाकर फैज़ाबाद जेल में डाल दिया गया.

फैजाबादी की शहादत ने यह बात साबित कर दी कि अंग्रेजों ने हिंदुस्तान पर शासन भले स्थापित कर दिया हो, लेकिन हिंदू और मुसलमान मिलकर उनके खिलाफ लड़ रहे थे. आजादी के अमृत महोत्सव में हमें फैजाबादी जैसे सैकड़ों बिसरा दिए गए नायकों को याद करना चाहिए, यह हमारे साझा अतीत से निकला भविष्य का सबक होगा.