मौलवी अब्दुस समद और एंटी-सेपरेट इलेक्टोरेट लीगः राष्ट्रवाद की भूली हुई कहानी

Story by  आवाज़ द वॉयस | Published by  [email protected] | Date 06-02-2023
द्वितीय गोल मेज सम्मेलन
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साकिब सलीम

‘‘जब तक राजनीतिक और आर्थिक मुद्दों के बजाय सांप्रदायिक और धार्मिक मुद्दों पर चुनाव होते रहेंगे और उम्मीदवारों को मतदाताओं की धार्मिक और कट्टर भावनाओं को अपील करके चुनाव लड़ना है, तब तक दो समुदायों के बीच अच्छी भावनाओं और सौहार्दपूर्ण संबंधों की स्थापना ( मुसलमानों और हिंदुओं) को हासिल करना असंभव है.’’ यह बात मौलवी अब्दुस समद ने फरवरी 1940 में ‘पृथकता-विरोधी निर्वाचक मंडल’ के अध्यक्ष की हैसियत से प्रेस को कही थी.

आधुनिक भारत के इतिहास की कोई भी पुस्तक पृथक निर्वाचिका के उल्लेख के बिना अधूरी है. अंग्रेजों ने अपनी ‘बांटो और राज करो’ की नीति को इसमें मिलाए बिना भारत में सीमित लोकतंत्र की शुरुआत नहीं की.

पृथक निर्वाचक मंडलों की शुरुआत की गई. इसका मतलब था कि मुसलमान केवल मुस्लिम उम्मीदवारों की निश्चित संख्या के लिए मतदान करेंगे, ईसाईयों के लिए ईसाई. इस विचार का कई सांप्रदायिक दलों ने स्वागत किया, जिनमें मुस्लिम लीग सबसे बड़ी थी.

तब से कई विद्वानों और राजनेताओं ने तर्क दिया है कि सांप्रदायिक राजनीति और भारत का विभाजन अलग मतदाताओं के प्रत्यक्ष परिणाम थे. मौलाना अबुल कलाम आजाद, आसफ अली, ख्वाजा अब्दुल हमीद और कई प्रमुख राष्ट्रवादी मुस्लिम नेताओं ने इस औपनिवेशिक योजना का विरोध किया था,जिसे मुस्लिम लीग के सांप्रदायिक नेताओं का समर्थन प्राप्त था. फिर भी, भारतीय समाज का एक बड़ा वर्ग मानता है कि पृथक निर्वाचक मंडल मुसलमानों की लोकप्रिय मांग थी. वास्तव में ऐसा नहीं था.

मुर्शिदाबाद के एक राष्ट्रवादी नेता मौलवी अब्दुस समद द्वारा बंगाल में गठित ‘एंटी-सेपरेट इलेक्टोरेट लीग’ नामक संगठन के अस्तित्व का लगभग किसी भी इतिहास की किताब में उल्लेख नहीं है. मोइनुद्दीन हुसैन और रेजाउल करीम जैसे कई अन्य नेता भी इसमें शामिल हुए. किसी भी प्रमुख इतिहासकार ने उन मुसलमानों के बारे में नहीं लिखा जिन्होंने इस विभाजनकारी योजना का विरोध किया था. हम उनके इरादों के बारे में निश्चित नहीं हो सकते हैं, लेकिन भारतीयों की पीढ़ियां यह मानती रहीं कि मुसलमानों ने अलग निर्वाचक मंडल की मांग की और उन्हें पाकर वे बहुत खुश थे.

इतिहास की किताबों ने दूसरा पक्ष दिखाने की कोशिश नहीं की कि बंगाल काउंसिल के एक मुस्लिम सदस्य ने 2 अगस्त, 1932 को अन्य मुस्लिम सदस्यों के काफी समर्थन के साथ इस योजना के खिलाफ प्रस्ताव पेश किया. पृथक निर्वाचिका के स्थान पर संयुक्त निर्वाचन को लागू करने की मांग करने वाले प्रस्ताव के पक्ष में 47 मत पड़े, जबकि विपक्ष में 32 मत पड़े.

प्रस्ताव मौलवी अब्दुस समद ने पेश किया. प्रस्ताव को पेश करते समय, उन्होंने तर्क दिया कि यह ब्रिटिश सरकार और नौकरशाही ही थी, जो मुसलमानों के प्रतिनिधियों के रूप में अपनी कठपुतली को अलग निर्वाचक मंडल की मांग को आगे बढ़ाने के लिए लाई थी.

उन्होंने पूछा, ‘‘उन्होंने अभी तक यह नहीं बताया है कि अलग मतदाताओं द्वारा समुदाय के हितों की सबसे अच्छी तरह से रक्षा कैसे की जा सकती है... हम लंबे समय से इस विशेषाधिकार का आनंद ले रहे हैं, लेकिन देखते हैं कि अतीत में इसने हमारे हितों की रक्षा कैसे की है. बंगाल काश्तकारी संशोधन विधेयक को मुस्लिम विरोध के बावजूद कानून का रूप दे दिया गया.’’

मौलवी ने बताया कि हिंदुओं और मुसलमानों को सांप्रदायिक आधार पर विभाजित करके अंग्रेजों ने यह सुनिश्चित किया कि किसी भी बिल को पारित करने में उनका कहना अनिवार्य हो.

मौलवी ने इस बात पर भी दुख व्यक्त किया कि इस व्यवस्था में आर्थिक और सामाजिक विकास के स्थान पर धार्मिक मुद्दों पर चुनाव लड़े जा रहे हैं. उन्होंने कहा, ‘‘संशोधित संविधान के उद्घाटन के बाद से मुल्लों के फतवे राजनीति और परिषद चुनावों में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहे हैं.’’ उनका मानना था कि राजनीति में धर्म का यह परिचय, मुस्लिम समुदाय के समग्र विकास में ही बाधाएँ पैदा करेगा.

बहुत से मुसलमान पृथक निर्वाचक मंडल में विश्वास नहीं करते थे. मौलवी ने तर्क दिया, ‘‘पृथक निर्वाचक मंडल मुस्लिम समुदाय और अन्य पिछड़े और अल्पसंख्यक समुदायों के हितों के लिए अत्यधिक हानिकारक है और सरकार के जिम्मेदार रूप से राष्ट्र-विरोधी और असंगत है और इस तरह राष्ट्रवादी मुसलमान किसी भी परिस्थिति में इसे स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं, वैधानिक बहुमत के साथ भी. इसलिए, मतदाताओं को संयुक्त होना चाहिए.’’

मतदान के लिए रखे गए प्रस्ताव में कहा गया, ‘‘यह परिषद सरकार से सिफारिश करती है कि संबंधित उचित अधिकारियों को सूचित करने की कृपा करें कि इस परिषद की राय में देश के भविष्य के संविधान में पृथक निर्वाचन की प्रणाली को एक प्रणाली द्वारा प्रतिस्थापित किया जाना चाहिए.’’ प्रस्ताव 32 के खिलाफ 47 के साथ पारित हुआ, जहां मौलवी अब्दुस समद को मौलवी हसन अली, मौलवी सैयद मजीद बख्श, मौलवी नूरल अबसार चौधरी, मौलवी अब्दुल हकीम, काजी इमदादुल हौ, मौलवी अजीजुर रहमान, मौलवी अब्दुल हमीद शाह जैसे कई मुसलमानों का समर्थन प्राप्त था. मगर मौलवी तमीजुद्दीन खान जैसे मुसलमानों ने इसलिए विरोध नहीं किया कि वे पृथक निर्वाचक मंडल के समर्थन में थे, बल्कि इसलिए कि उनका मानना था कि सार्वभौमिक वयस्क मताधिकार के लिए प्रस्ताव पारित किया जाना चाहिए, जो उस समय अब्दुस समद के विचार में व्यावहारिक नहीं था.

मुसलमानों के तमाम विरोध के साथ, अंग्रेज आगे बढ़े और उन्होंने पृथक निर्वाचिकाएँ रखीं. इसका विरोध करने के लिए मौलवी अब्दुस समद ने 1934 में एक पार्टी बनाई. एक सार्वजनिक सभा में,

उन्होंने कहा, ‘‘सांप्रदायिक पुरस्कार देश में भाईचारे के संघर्ष के युग की शुरूआत करेगा. हमने पृथक निर्वाचिका का विरोध किया, क्योंकि यह हिंदू समुदाय के हितों की तुलना में मुस्लिम समुदाय के हितों को अधिक गंभीर रूप से प्रभावित करेगा. पृथक निर्वाचिका की निरंतरता नौकरशाही के हाथों को केवल मजबूत करेगी.’’

1935 में इस मुद्दे पर लिखते हुए प्रफुल्ल चंद्र रे ने लिखा, ‘‘यह हमारे मुस्लिम भाइयों की जागृत राष्ट्रीय चेतना पर एक घोर अपमान होगा कि वे इस उथल-पुथल की घड़ी में अलग-थलग (और सांप्रदायिक राजनीति का समर्थन) खड़े हैं.’’ उन्होंने मौलवी अब्दुस समद को ‘बंगाल का महान पुत्र’ बताया, जिन्होंने लगातार और दृढ़ता से अपनी स्थिति बनाए रखा है और धर्मनिरपेक्षता को बरकरार रखा.

समय ने राष्ट्रवादी मुसलमानों के नामों को मिटा दिया है, जिससे यह आभास होता है कि स्वतंत्रता पूर्व युग में मुस्लिम नेतृत्व पूरी तरह से सांप्रदायिक था. इतिहासकारों ने मौलवी अब्दुस समद जैसे लोगों और ‘पृथकता-विरोधी निर्वाचक मंडल’ जैसे संगठनों की उपेक्षा की है.