-फ़िरदौस ख़ान
साहित्य समाज का दर्पण माना जाता है. जिस समाज में जो कुछ घटित हो रहा होता है, वह उस समाज के समकालीन साहित्य में झलकता है. साहित्यकार अपने साहित्य में जो कुछ लिखता है, वह उस समाज का अक्स ही तो होता है. साहित्य के ज़रिये ही लोगों को समाज की उस सच्चाई का पता चलता है, जिसका अनुभव उन्हें ख़ुद नहीं हुआ है.
साहित्य के ज़रिये ही हम किसी देश और किसी काल के सांस्कृतिक, धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक परिवेश आदि के बारे में जान पाते हैं. इसलिए साहित्य और समाज में गहरा रिश्ता होता है. ये साहित्यकार की क़लम का ही कमाल होता है कि पाठक उस समाज की गतिविधियों से ऐसे वाक़िफ़ हो जाता है कि मानो सबकुछ उसकी आंखों के सामने ही घटित हो रहा है. ऐसी ही एक सुप्रसिद्ध साहित्यकार हैं नासिरा शर्मा.
साहित्य उन्हें विरासत में मिला है. उनके पिता ज़ामिन अली उर्दू के प्रोफ़ेसर और प्रगतिवादी विचारों वाले शायर थे. उनकी माँ नाज़नीन बेगम भी रौशन ज़ेहन महिला थीं. अपने माता-पिता के विचारों का उनकी ज़िन्दगी पर गहरा असर पड़ा. इसलिए उन्होंने अपनी ज़िन्दगी में इंसानियत को सबसे ज़्यादा तरजीह दी. उनका लेखन भी इस बात की तस्दीक करता है.
इंसान को जीने के लिए हवा के बाद पानी की ही सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है. पानी के बिना ज़िन्दगी का तसव्वुर भी नहीं किया जा सकता. दुनियाभर में जल संकट एक बड़ी चुनौती बना हुआ है. हालांकि ज़मीन का दो तिहाई हिस्सा पानी से घिरा हुआ है, लेकिन इसमें से पीने लायक़ पानी बहुत कम यानी सिर्फ़ ढाई फ़ीसद ही है.
इस पानी का भी दो तिहाई हिस्सा बर्फ़ की शक्ल में है. इंसानों की ख़ामियों की वजह से ये पानी भी लगातार दूषित होता जा रहा है. कारख़ानों और नालों की गंदगी नदियों के पानी को ज़हरीला बना रही है. पहाड़ों में मुसलसल खनन होने और जंगलों को काटने की वजह से बारिश पर असर पड़ रहा है.
नासिरा शर्मा पानी की अहमियत समझती हैं और इसे अपने उपन्यास का विषय बनाती हैं. उनके उपन्यास 'कुइयाँजान' का मुख्य किरदार रसूख मुस्लिम परिवार का एक डॉक्टर है. वह लोगों के दुख-दर्द को मसहूस करता है. इस परिवार और इससे जुड़ते मुख़तलिफ़ किरदारों के ज़रिये कहानी आगे बढ़ती जाती है. इस दरम्यान डॉक्टर जल संरक्षण और ऐसे ही अन्य मुद्दों पर आयोजित अन्तर्राष्ट्रीय परिचर्चाओं व सम्मेलनों में भी शिरकत करता है.
उन्होंने अपने लेखन के ज़रिये देश ही नहीं, बल्कि विदेशों में रहने वाले लोगों के दुख-दर्द को भी महसूस किया और उनके मुद्दों को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर उठाया. वे ईरानी समाज और राजनीति के अलावा साहित्य कला व संस्कृति विषयों की विशेषज्ञ हैं. उन्होंने भारत के अलावा पाकिस्तान, अफ़ग़ानिस्तान, इराक़ और सीरिया के राजनीतिज्ञों और बुद्धिजीवियों के साक्षात्कार किए. उन्होंने ईरानी युद्धबंदियों पर जर्मन और फ़्रेंच टेलीविज़न के लिए बनी फ़िल्म में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया.
वे बताती हैं कि इराक़ में ईरानी युद्धबंदी किशोरों पर साल 1983में बनी फ़िल्म फ़्रेंच टीवी की पत्रिका मैगज़ीन में दिखाई गई थी. फ़्रेंच टीवी पत्रकार फ़िलिप शैन्थले ने उनके द्वारा बच्चों से लिए गये साक्षात्कार के आधार पर यह फ़िल्म बनाई थी. दूसरी फ़िल्म साल 1985 में जर्मनी टेलीविज़न के लिए पत्रकार नवीना सुन्दरम ने बनाई थी. इसमें रमादी के शिविर में मौजूद बाक़ी युद्धबंदियों का ज़िक्र था.
उनका जन्म 22 अगस्त 1948 को उत्तर प्रदेश के इलाहाबाद के शिया मुस्लिम परिवार में हुआ था. उन्होंने दिल्ली के जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से फ़ारसी साहित्य में स्नातकोत्तर की उपाधि हासिल की. उन्हें बचपन से ही लिखने का शौक़ था. उन्होंने अपने लेखन के ज़रिये स्त्री मन की जटिलताओं, समस्याओं और संघर्ष को असरदार तरीक़े से पेश किया है. उन्होंने मानव जीवन के तक़रीबन सभी पहलुओं को छूने की कोशिश की है. उनके लेखन का विषय विश्व व्यापक रहा है.
उन्होंने जनसाधारण से लेकर शक्तिशाली शासकों पर भी लिखा है. उनके उपन्यासों में सात नदियां एक समन्दर, शाल्मली, ठीकरे की मंगनी, ज़िन्दा मुहावरे, अक्षयवट, कुइयांजान, ज़ीरो रोड, पारिजात, अजनबी जज़ीरा और काग़ज़ की नाव शामिल हैं. उनके कहानी संग्रहों में शामी काग़ज़, पत्थर गली, संगसार, इब्ने-मरियम, सबीना के चालीस चोर, ख़ुदा की वापसी, इंसानी नस्ल, दूसरा ताजमहल और बुतख़ाना शामिल हैं.
उनके ईरान व अन्य देशों पर लिखे रिपोर्ताज ‘जहां फौव्वारे लहू रोते हैं’ में दर्ज हैं. उनका एक संस्मरण ‘यादों के गलियारे’ भी प्रकाशित हो चुका है. उनके लेख संग्रहों में राष्ट्र और मुसलमान, औरत के लिए औरत, वह एक कुमारबाज़ थी और औरत की आवाज़ प्रमुख हैं.
इसके अलावा ‘अफ़ग़ानिस्तान बुजकशी का मैदान’ अफ़ग़ानिस्तान क्रान्ति, राजनीति, संस्कृति, साहित्य एवं विभिन्न महत्वपूर्ण लोगों से साक्षात्कार का संग्रह है. ‘मरजीना का देश इराक़’ में भूतपूर्व राष्ट्रपति सद्दाम हुसैन का समय और अमेरिकन हमले की विवेचना, विभिन्न महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों के साक्षात्कार हैं. विविध में जब समय बदल रहा हो इतिहास, किताब के बहाने और सबसे पुराना दरख़्त शामिल हैं.
उन्होंने बच्चों के लिए भी साहित्य की रचना की, जिसमें उपन्यास दिल्लू दीपक और भूतों का मैकडोनाल्ड, कहानी संग्रह संसार अपने-अपने, दर्द का रिश्ता व अन्य कहानियां और गुल्लू शामिल है. उन्होंने टेलीफ़िल्म सेमल का दरख़्त, काली मोहिनी, आया बसंत सखी, माँ, कुंजी, मुस्कान, जागृति, तड़प, बावली, तीसरा मोर्चा और दिलआरा की कहानी और संवाद लिखे.
उन्होंने टीवी धारावाहिक शाल्मली, फ़रेब, दो बहनें, बदला ज़माना, चार बहनें शीशमहल की और नौ नगों का घर आदि की कथा व संवाद लिखे. उन्होंने रेडियो धारावाहिक मैं लौट आया हूं, दहलीज़, प्लेटफ़ार्म और मुझे अपना लो की भी कहानी और संवाद लिखे.
उत्कृष्ट लेखन के लिए उन्हें अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया जा चुका है. इनमें पत्रकारश्री, अर्पण सम्मान, गजनन्द मुक्तिबोध नेशनल अवार्ड, महादेवी वर्मा पुरस्कार, इंडो रशन अवार्ड फ़ॉर चिल्डरेड लिटरेचर, कृति सम्मान, वाग्मणि सम्मान लेखिका संघ, इंदु शर्मा कथा सम्मान, नई धारा रचना सम्मान, मीरा स्मृति सम्मान, बाल साहित्य सम्मान खतीमा, महात्मा गांधी सम्मान, स्पंदन पुरस्कार, राही मासूम रज़ा सम्मान, कथाक्रम सम्मान, साहित्य अकादमी पुरस्कार, व्यास सम्मान और साहित्य जागृति सम्मान शामिल हैं.
उन्होंने अभिनय भी किया है. उन्होंने अंजुमन फ़ीचर फ़िल्म में तालुकेदारिन का किरदार निभाया. उन्होंने सर सैयद अहमद ख़ान पर बने वृत्तचित्र में बेगम सर सैयद और धारावाहिक दो बहनें में माँ की भूमिका निभाई. उनके अभिनय को भी ख़ूब सराहा गया.
उनका व्यक्तित्व एवं कृत्तित्व इतना विराट है कि उन पर अनेक किताबें लिखी जा चुकी हैं. उन पर और उनकी कृतियों पर अनेक विशेषांक प्रकाशित हो चुके हैं. दरअसल उनका व्यक्तित्व आदर्शवादी और ध्येयवादी है. वे मृदुभाषी और मिलनसार हैं. उन्हें मेहमाननवाज़ी का शौक़ है और वे अतिथि देवो भव में यक़ीन रखती हैं. वे स्पष्टवादी हैं. जो उनके मन में होता है, वही उनकी ज़ुबां पर आ जाता है. उन्हें घर सजाना और बाग़वानी भी बहुत पसंद है.
वे बताती हैं कि उन्हें भ्रमण का शौक़ है. नई-नई जगहों पर जाना, वहां की संस्कृति को जानना और वहां के लोगों से मिलना-जुलना उन्हें बहुत पसंद है. उन्होंने अनेक देशों का सफ़र किया है. इस सफ़र ने उनके लेखन को बेहतर बनाने का ही काम किया है. उन्होंने अनेक अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में भी शिरकत की.
ऐसा नहीं है कि उन्हें किसी बात का ग़म नहीं है. वे कहती हैं कि उन्हें अपने पुश्तैनी घर के बिक जाने का बहुत मलाल है. मकान की लड़ाई जीत जाने के बाद भी भूमि माफ़िया के दबाव में उन्हें मकान बेचना पड़ा. इस घर से उनकी बहुत-सी यादें वाबस्ता हैं. इसी घर में उनका जन्म हुआ था और उनकी परवरिश हुई थी.
फ़िलहाल उनकी दो किताबें आने वाली हैं. इनमें एक उपन्यास है, जिसका नाम है- कुछ रंग थे ख़्वाबों के. उनकी दूसरी किताब ‘फ़िलिस्तीन एक नई कर्बला’ है. इसमें उनकी कुछ कविताएं, कुछ कहानियां और राजनीतिक विश्लेषण हैं. एक ज़माने से इज़राइल और फ़िलिस्तीन के बीच घोषित और अघोषित जंग जारी है. ऐसे में यह किताब बेहद प्रासंगिक है.
उनके गद्य की तरह ही उनका काव्य भी पाठकों को बांधे रखता है. बानगी देखें-
शब्द-परिंदे
शब्द जो परिंदे हैं।
उड़ते हैं खुले आसमान और खुले ज़हनों में
जिनकी आमद से हो जाती है, दिल की कंदीलें रौशन।
अक्षरों को मोतियों की तरह चुन
अगर कोई रचता है इंसानी तस्वीर, तो
क्या एतराज़ है तुमको उस पर?
बह रहा है समय, सबको लेकर एक साथ
बहने दो उन्हें भी, जो ले रहे हैं साँस एक साथ।
डाल के कारागार में उन्हें, क्या पाओगे सिवाय पछतावे के?
अक्षर जो बदल जाते हैं परिंदों में,
कैसे पकड़ोगे उन्हें?
नज़र नहीं आयेंगे वह उड़ते, ग़ोल दर ग़ोल की शक्ल में।
मगर बस जायेंगे दिल व दिमाग़ में, सदा के लिए।
किसी ऊँची उड़ान के परिंदों की तरह।
अक्षर जो बनते हैं शब्द, शब्द बन जाते हैं वाक्य।
बना लेते हैं एक आसमाँ, जो नज़र नहीं आता किसी को।
उन्हें उड़ने दो, शब्द जो परिंदे हैं।
*दुनिया के क़लमकारों के नाम
किताबें क़रीने से सजी
रहती हैं अलमारियों में बंद
मगर झाँकती रहतीं हैं शीशों से हरदम।
रहती हैं खड़ी एक साथ
झाड़ते हैं धूल उनकी, सहलाते हैं उन्हें प्यार से
दे जाती हैं रौशनी दिल व दिमाग़ को
यह करिश्मा है लिखने वालों का
जिनके पास अक्षरों की दौलत है
जिसको जोड़कर, वह खड़ी करते हैं मिनारें
विचारों की, जो चूमती हैं आकाश के सीने को।
भले ही शरीर छोड़ दे साथ उनका
जला दिए जायें या दफ़्न हो जायें उनके मुर्दा शरीर
मगर रहते हैं वह ज़िंदा, मरते नहीं कभी वह।
इसलिए
उन्हें लिखने के लिए आज़ाद छोड़ दो
मत बाँधो, उनके क़लम को, सूखने न दो, उनकी सियाही को
उनके शब्द बरसते हैं बंजर धरती पर
उगाते हैं विचारों की खेती, बोते हैं नए बीज
जो चलते हैं शताब्दियों तक, सीना ब सीना, पीढ़ी दर पीढ़ी
उन्हें ख़त्म करना या मिटा देना, किसी के बस में नहीं
क्योंकि, वह लिख जाते हैं, कह जाते हैं, कुछ आगे की बातें।
(लेखिका शायरा, कहानीकार व पत्रकार हैं)