ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान फ़रीदाबाद को क्यों कहते थे ' उम्मीदों का शहर '

Story by  एटीवी | Published by  [email protected] • 1 Years ago
जयंती विशेष : ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान फ़रीदाबाद को क्यों कहते थे
जयंती विशेष : ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान फ़रीदाबाद को क्यों कहते थे " उम्मीदों का शहर

 

फ़िरदौस ख़ान 
 
सीमाप्रांत और बलूचिस्तान के महान राजनेता ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान का हरियाणा के फ़रीदाबाद से गहरा रिश्ता है. दरअसल आज के नये औद्योगिक शहर फ़रीदाबाद के विकास की बुनियाद ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान ने ही रखी थी और इसे परवान चढ़ाने में देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू की भी अहम भूमिका थी. 

हुआ यूं कि देश के बंटवारे के वक़्त उत्तर-पश्चिमी सीमांत प्रांत के बन्नू, डेरा इस्माइल ख़ान, कोहाट, हज़ारा, मरदान और पेशावर आदि ज़िलों के तक़रीबन 50 हज़ार लोग उजड़कर आशियाने की तलाश में हिन्दुस्तान आ गए.
 
इनमें से ज़्यादातर लोगों ने हरियाणा के ऐतिहासिक नगर कुरुक्षेत्र में पनाह ली. यहां वे शरणार्थी शिविरों में रहने लगे. चूंकि ये लोग ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान के समर्थक थे, इसलिए पंडित जवाहरलाल नेहरू ख़ुद उनका ख़्याल रखा करते थे.
 
कहा जाता है कि हिन्दुस्तान की हुकूमत उन्हें राजस्थान के अलवर और भरतपुर ज़िलों में बसाना चाहती थी, लेकिन वे लोग दिल्ली के आसपास ही रहना चाहते थे.
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शायद वे राजस्थान की प्राकृतिक परिस्थितियों में ख़ुद को ढाल पाने में असमर्थ महसूस कर रहे थे. ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान के ख़ुदाई ख़िदमतगार संगठन के सदस्यों ने एकजुट होकर अपनी मांगों को लेकर धरना-प्रदर्शन शुरू कर दिया.
 
इस प्रदर्शन के ज़रिये वे हुकूमत तक अपनी मांगें पहुंचाना चाहते थे. इन लोगों में कन्हैया, निहाल चंद, सुखराम, पंडित गोबिन्द दास, पंडित अनंत राम, ख़ुशीराम, चौधरी दयालागंद, दुली चौधरी, जेठा नंद और छत्तू राम गेरा आदि शामिल थे.
 
जब उन्होंने देखा कि उनके प्रदर्शन का हुकूमत पर कोई असर नहीं हो रहा है, तो वे जुलाई 1948 में कुरुक्षेत्र छोड़कर दिल्ली चले गए और पुन: स्थापना मंत्रालय के सामने अपना आन्दोलन शुरू कर दिया.
 
इस आन्दोलन के दौरान वे अपनी गिरफ़्तारियां देने लगे. जब आन्दोलन तेज़ होने लगा, तो पंडित जवाहरलाल नेहरू ने प्रदर्शनकारियों से बात करने के लिए अपने ख़ास सलाहकार मृदुला साराभाई को उनके पास भेजा.
 
उन्होंने प्रदर्शनकारियों को समझाने की बहुत कोशिश की, लेकिन वे किसी भी हाल में राजस्थान में बसने के लिए तैयार नहीं हुए. आख़िरकार सरकार को उनके लिए नया शहर बसाने का फ़ैसला लेना पड़ा.
 
पहले कई शहरों के विकास के बारे में सलाह-मशविरा किया गया. फिर बात फ़रीदाबाद पर आकर ख़त्म हुई. इस तरह 17 अक्टूबर 1949 को दिल्ली के क़रीबी राज्य हरियाणा में नये औद्योगिक शहर फ़रीदाबाद की बुनियाद रखी गई.
    
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डॉ. मुनीश परवेज़ बताते हैं कि प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने फ़रीदाबाद के विकास में ख़ास दिलचस्पी ली. फ़रीदाबाद के विकास के लिए उन्होंने कैबिनेट मंत्रिमंडल की बैठक बुलाई और फ़रीदाबाद विकास बोर्ड के गठन को मंज़ूरी दी.
 
उन्होंने देश के पहले राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद को बोर्ड का अध्यक्ष नियुक्त किया और महात्मा गांधी के क़रीबी सुधीर घोष को बोर्ड के मुख्य प्रशासक की ज़िम्मेदारी सौंपी गई.
 
बोर्ड की ख़ास बात यह भी थी कि प्रधानमंत्री ख़ुद इसके आमंत्रित सदस्य थे और उन्होंने बोर्ड की कुल 24 बैठकों में से 21 में शिरकत की, ताकि इसके काम पर निगरानी रख सकें.
 
इसका असर ये हुआ कि काम तयशुदा वक़्त यानी अढाई साल में पूरा हो गया और लागत भी इसके लिए जारी की गई रक़म पांच करोड़ से कम यानी 4.64 करोड़ रुपये आई.
 
बोर्ड ने बाक़ी रक़म सरकार को वापस लौटा दी. उस वक़्त बोर्ड ने 5196 मकान बनाने का फ़ैसला किया था. ये सभी मकान 233 वर्ग गज़ के थे. मकान की क़ीमत बहुत ही वाजिब रखी गई और लोगों को मामूली मासिक क़िस्तों पर मकान दिए गए.
 
शहर को पांच हिस्सों में तक़सीम किया गया. इसके अलावा शहर में सड़कें, विद्यालय, स्वास्थ्य केंद्र, अस्पताल, सिनेमाघर, पावर हाउस, वाटर वर्क्स और एक औद्योगिक क्षेत्र बनाया गया.
 
यहां इन लोगों को रहने के लिए मकान मिले और रोज़गार मिला. इस तरह सरकार ने शरणार्थियों को रोटी, कपड़ा और मकान दिया. शहर दिनोदिन तरक़्क़ी करने लगा.
 
आज फ़रीदाबाद औद्योगिक शहर किसी परिचय का मोहताज नहीं है. क़ाबिले-ग़ौर है कि बादशाह जहांगीर के ख़ज़ांची शेख़ फ़रीद ने इस शहर को बसाया था. उन्होंने यहां एक क़िला, एक तालाब और एक मस्जिद बनवाई थी. उन्हीं के नाम पर इस शहर का नाम फ़रीदाबाद पड़ा. 
 
स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय रहे एलसी जैन ने खान अब्दुल गफ्फार खान के फरीदाबाद से रिश्ते को लेकर 330 पृष्ठों की एक पुस्तक लिखी है- द सिटी आॅफ होप : द फरीदाबाद स्टोरी. 1998 में प्रकाशित इस पुस्तक में जैन कहते दावा करते हैं, ‘‘फरीदाबाद में विस्थापितों को बसाने के लिए देश का यह पहला प्रयोग था."
 
 
लेखक ने शहर बसाने से लेकर के इसके औद्योगीकरण को बहुत करीब से देखा है. उन्हें उम्मीद है कि उम्मीदों का यह शहर किसी न किसी ने बहुत ऊंचाइयों को छुएगा. हालांकि, हाल के दिनों में शहर की स्थिति बदतर ही हुई है.
 
ग़ौरतलब है कि ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान का जन्म 6 फ़रवरी 1890 को पेशावर में हुआ था. उन्होंने अपनी ज़िन्दगी का एक बड़ा हिस्सा जेल में बिताया. उन्होंने हिन्दुस्तान की सरज़मीन को अंग्रेज़ों की ग़ुलामी से आज़ाद कराने की मुहिम में बढ़-चढ़कर शिरकत की थी.
 
जंगे-आज़ादी में वे महात्मा गांधी के साथ थे. वे भी महात्मा गांधी की तरह अहिंसा के हिमायती थे. महात्मा गांधी उनके विचारों और उनकी निष्ठा के क़ायल थे. महात्मा गांधी उनके बारे में लिखते हैं- “वह तो असंदिग्ध रूप से ईश्वर-भीरू पुरुष हैं. उनकी प्रतिरक्षण की अखंड उपस्थिति में उनकी परम श्रद्धा है और वह बख़ूबी जानते हैं कि उनका आन्दोलन तभी प्रगति करेगा जब ईश्वर की वैसी इच्छा होगी. ईश्वर के इस कार्य में अपनी सारी आत्मा को उड़ेलकर परिणाम की वह बहुत ज़्यादा फ़िक्र नहीं करते.”     
 
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ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान ने साल 1929 में ख़ुदाई ख़िदमतगार नाम के संगठन की स्थापना की थी. इस संगठन को सुर्ख़ पोश यानी लाल कुर्ती दल के नाम से भी जाना जाता था, क्योंकि इसके सदस्य लाल कुर्ती पहनते थे, जो क़ुर्बानी का प्रतीक थी.
 
उन्होंने उत्तर-पश्चिम सीमा प्रांत में जातीय समूहों ख़ासकर पठानों को एकजुट करके ब्रिटिश हुकूमत के ख़िलाफ़ एक अहिंसक आंदोलन चलाया था। इसीलिए उन्हें सरहदी गांधी या सीमान्त गांधी भी कहा जाता है. उन्हें बच्चा ख़ान और बादशाह ख़ान भी कहा जाता है.   
 
उन्होंने हमेशा देश के बंटवारे का विरोध किया. वे मुस्लिम लीग द्वारा की जाने वाली देश के बंटवारे की मांग के सख़्त ख़िलाफ़ थे. लेकिन जब कांग्रेस ने देश का बंटवारा क़ुबूल कर लिया, तो उन्हें बहुत दुख हुआ.
 
बंटवारे के बाद उन्होंने अपनी जन्मभूमि पेशावर में ही रहने का फ़ैसला किया. उन्होंने पख़्तूनों के हक़ की लड़ाई जारी रखी. उन्होंने पाकिस्तान हुकूमत से पख़्तूनों के लिए अलग पख़्तूनिस्तान की मांग की, जिससे वहां की हुकूमत उनके ख़िलाफ़ हो गई और उन पर नज़र रखी जाने लगी.
 
साल 1988 में पाकिस्तान हुकूमत ने उन्हें उनके घर में ही नज़रबंद कर दिया. उसी दौरान 20 जनवरी 1988 को उनकी मौत हो गई. ताउम्र उन्हें बंटवारे का दुख रहा.
 
वे एकता और अखंडता के हिमायती थे. साल 1987 में भारत सरकार ने उन्हें देश के सर्वोच्च नागरिक सम्मान ‘भारत रत्न’ से नवाज़ा था. वे पहले ग़ैर भारतीय थे, जिन्हें इस सम्मान से सम्मानित किया गया. 
 
क़ाबिले-ग़ौर है कि प्रधानमंत्री पंडित जवाहरलाल नेहरू ने 5 जून 1951 को फ़रीदाबाद में शरणार्थियों के लिए एक अस्पताल बनवाया था. उन्होंने इस अस्पताल का नाम ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान के नाम पर बादशाह ख़ान अस्पताल रखा था.
 
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साल 2020 में हरियाणा सरकार ने इसका नाम बदलकर अटल बिहारी वाजपेयी सामान्य अस्पताल कर दिया. भले ही सरकार ने अस्पताल का नाम बदल दिया है, लेकिन बादशाह ख़ान अपने उत्कृष्ट कार्यों की बदौलत लोगों के दिलों में हमेशा ज़िन्दा रहेंगे.
 
महात्मा गांधी के पौत्र राजमोहन गांधी ने ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान पर एक किताब लिखी है, जिसका नाम है ‘ग़फ़्फ़ार ख़ान: नॉनवाइलेंट बादशाह ऑफ़ द पख़्तूंस’.
 
किताब के लेखक राजमोहन गांधी का कहना है कि महात्मा गांधी ख़ान अब्दुल ग़फ़्फ़ार ख़ान को अपना भाई मानते थे, लेकिन भारत ने उन्हें भुला दिया है. अपनी किताब का ज़िक्र करते हुए वे कहते हैं कि हर किताब की एक यात्रा और इतिहास होता है.
 
मेरी इस किताब की शुरुआत तबसे होती है जब मैं 10 साल का था. मेरे पिताजी गांधीजी के चौथे बेटे देवदास गांधी दिल्ली में हिन्दुस्तान टाइम्स के संपादक थे.
 
उस समय बादशाह ख़ान हमारे घर दो बार रुके. तब से मेरा उनसे संबंध रहा. 1969 में उनका एक ज़बरदस्त भाषण हुआ, जिसमें उन्होंने ग़रीबी, भ्रष्टाचार और नागरिक अधिकारों के हनन पर बहुत प्रभावी बातें कही थीं.
 
फिर 1987 में देहांत से एक साल पहले इलाज के सिलसिले में वह मुंबई आए थे, तब भी कुछ बातें हुई थीं. 2001 में मैं पाकिस्तान गया और असफंदयार ख़ान, जो बादशाह ख़ान के पोते हैं,
 
उनसे मिला. उन्होंने मुझसे कहा कि बहुत अफ़सोस है कि कोई अच्छी बायोग्राफ़ी बादशाह ख़ान की नहीं है. तब मुझे लगा कि मुझे उन पर काम करना चाहिए. उन पर बहुत दस्तावेज़ मौजूद नहीं थे, लेकिन अमेरिका के इलिनॉय विश्वविद्यालय की लाइब्रेरी में मुझे उनकी लिखी आत्मकथा मिल गई.
 
उससे भी मुझे इस किताब को लिखने में मदद मिली. एक और चीज़ मैं बताना चाहूंगा, मेरे पिताजी जब 30-31 साल के थे, तब वे दोनों जेल में साथ ही रहे थे. उन दोनों का जो संबंध था, उसकी भी मेरे किताब लिखने के पीछे एक भूमिका है. जिस उद्देश्य के लिए उन्होंने अपना जीवन जिया,
 
उनमें निर्भीकता, त्याग, तकलीफ़ के लिए तैयार रहना और अहिंसा प्रमुख है. दुनिया में जेल में लंबे समय तक रहने का उनका रिकॉर्ड है. 1987 में उनके देहांत से एक साल पहले उनसे मैं मिला, तो उन्होंने कहा कि क़ुरान में जो एक शब्द सबसे ज़्यादा है- सब्र, सब्र करो. बादशाह ख़ान की राय में अहिंसा और धैर्य का एक-दूसरे से ज़बरदस्त संबंध है.
 
(लेखिका शायरा, कहानीकार व पत्रकार हैं)